धर्म-अध्यात्म : तीन प्रकार के होते हैं शरीर!
विनय संकोची संसार में हमारे आस-पास इतना ज्ञान फैला हुआ है कि उसे समझने के लिए एक जीवन तो कदापि…
चेतना मंच | October 20, 2021 11:17 PM
विनय संकोची
संसार में हमारे आस-पास इतना ज्ञान फैला हुआ है कि उसे समझने के लिए एक जीवन तो कदापि पर्याप्त नहीं है। लेकिन यदि व्यक्ति जिज्ञासु हो, सीखने जानने की भूख रखता हो तो अपने छोटे से जीवन में भी बहुत सा ऐसा ज्ञान अर्जित कर सकता है, जिससे उसकी जीवन यात्रा सुखद व सार्थक हो जाए। प्रस्तुत हैं, कुछ प्रश्न और उनके उत्तर।
आत्मनिरीक्षण का जीवन में क्या महत्व है?: पहले तो आत्मनिरीक्षण का अर्थ जानना होगा। आत्म निरीक्षण का सीधा सच्चा अर्थ है, अपने आप की जांच करना, स्वयं को परखना। आत्म निरीक्षण में ईमानदारी आवश्यक है, तभी इसका लाभ मिल सकता है। स्वयं को कम अथवा अधिक करके आंकना अपने आपसे धोखा करना है, इसका परिणाम विपरीत हो सकता है। अपने अंदर के अवगुणों, सद्गुणों को पूरी ईमानदारी से सामाजिक और नैतिक मूल्यों की कसौटी पर कसना आत्मनिरीक्षण है। भारतीय सनातन संस्कृति में नैतिकता की अवधारणा में जिन गुणों को शामिल किया गया है, उसका आधार पवित्रता, न्याय और सत्य है। इन तीन गुणों की कसौटी पर स्वयं की जांच करना, स्वयं को परखना ही आत्मनिरीक्षण है। यदि व्यक्ति पूरी ईमानदारी से नैतिक गुणों के आधार पर स्वयं को जांच लेता है तो उसका व्यक्तित्व तपे हुए स्वर्ण के समान शुद्ध और कांति युक्त हो जाता है। लेकिन यह इतना आसान नहीं है, क्योंकि तमाम लोग अपनी कमियों को स्वीकार करने को तैयार ही नहीं होते हैं। ऐसे लोगों की पवित्रता की अपनी परिभाषा होती है, न्याय की अपनी व्याख्या होती है और सत्य की अपनी अवधारणा। जब कोई अपने बनाए नैतिक मूल्यों के आधार पर स्वयं को आंकेगा तो पक्षपात किए बिना रहना रह पाना संभव नहीं है। अपवाद से इंकार नहीं है। आत्मनिरीक्षण इतना सरल भी नहीं है।
आध्यात्मिकता का वास्तविक अर्थ क्या है ? :
आध्यात्मिकता को यदि एक शब्द में कहें तो वह है पूर्णता। आध्यात्मिकता व्यक्ति से कुछ भी त्यागने के लिए नहीं कहती है, जो भी अवांछित होता है वह स्वयं छूटता चला जाता है। यह है आध्यात्मिकता का प्रभाव। आध्यात्मिकता में संघर्ष नहीं सहजता है और इसी सहजता से साधक के भीतर उत्साह जागृत रहता है, जागरण रहता है। आध्यात्मिकता में असहजता, असुविधा और उहापोह वालों को कोई स्थान नहीं है, इसीलिए साधक को किसी प्रकार की प्रतिकूलता का आभास नहीं होता है। यही कारण है कि आध्यात्मिक साधक की साधना में कोई व्यवधान नहीं आता है, वह स्वस्थ और प्रसन्न चित्त रहता है तथा निर्विघ्न लक्ष्य की ओर बढ़ता जाता है। उसका चित्त सात्विक वातावरण को विकसित करने के प्रति कटिबद्ध रहता है। आध्यात्मिकता साधक को पूर्णता का अहसास कराती है उसे आधे अधूरे से पूर्णता की ओर ले जाती है।
शरीर कितने प्रकार के होते हैं ? :
शरीर तीन प्रकार के होते हैं स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर। स्थूल शरीर उसे कहा गया है जो जन्म के उपरांत सामने दिखाई देता है, इसी स्थूल शरीर को एक नाम दिया जाता है और इसी के द्वारा समस्त सांसारिक कार्य किए जाते हैं। प्रत्यक्ष रूप से इसी शरीर को सुख, दु:ख, कष्ट, मान, अपमान सहना होता है। लेकिन स्थूल शरीर के अंदर एक और शरीर रहता है, जिसे सूक्ष्म शरीर कहा गया है।
सूक्ष्म शरीर हमारी चेतना का दूसरा रूप है। सोते समय मनुष्य अनजाने में सूक्ष्म शरीर की तरंगों का अनुभव करते हैं, इस स्वप्न कहा गया है। जागृत अवस्था में ध्यान के माध्यम से सूक्ष्म शरीर का अनुभव किया जा सकता है। सूक्ष्म शरीर की यात्रा अंतराल और समय से परे है। ध्यान करने वाले व्यक्ति शरीर से बाहर आकर भौतिक देह को देख सकता है और समझ सकता है कि वह देह नहीं है बल्कि वह देह में रहता है। यह गहन बोध है जो सूक्ष्म देह के माध्यम से ही प्राप्त होता है। कारण शरीर को स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर का बीज बताया गया है। इसी कारण से स्थूल और सूक्ष्म शरीर का निर्माण होता है। मनुष्य शरीर के सभी तत्व कारण शरीर रूपी बीज में उपस्थित रहते हैं और वातावरण के प्रभाव में आते ही सूक्ष्म और स्थूल शरीर बन जाते हैं। समष्टि स्तर पर जो कार्य माया का होता है, व्यष्टि स्तर पर वही कार्य कारण शरीर का है। माया समस्त जगत की सृजन सत्ता है संचालक सत्ता है। कारण शरीर प्रत्येक जीव की सृजनकर्ता सत्ता है, जीव की लय सत्ता है। वास्तव में यह अत्यंत गूढ़ रहस्य है और संक्षेप में इससे अधिक नहीं बताया जा सकता।