मेरे पहले प्यार को मिला सबका प्यार

नोएडा शहर से प्रकाशित होने वाले लोकप्रिय समाचार-पत्र चेतना मंच का 27वां स्थापना दिवस उस समय और भी खास हो गया जब चेतना मंच का 28 पेज का स्थापना दिवस विशेषांक लाखों पाठकों के हाथों में पहुंचा। चेतना मंच के इस विशेषांक के पहले पन्ने पर एक विशेष संपादकीय लेख प्रकाशित किया गया।

धूमधाम के साथ मनाया गया  चेतना मंच का 27वां स्थापना दिवस
धूमधाम के साथ मनाया गया चेतना मंच का 27वां स्थापना दिवस
locationभारत
userआरपी रघुवंशी
calendar29 Dec 2025 01:03 PM
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27th Foundation Day of Chetna Manch : हाल ही में 21 दिसंबर 2025 को चेतना मंच का 27वां स्थापना दिवस धूमधाम के साथ मनाया गया। चेतना मंच के स्थापना दिवस के अवसर पर चेतना मंच के नोएडा कार्यालय में हवन-पूजन तथा भंडारे का आयोजन किया गया। नोएडा शहर से प्रकाशित होने वाले लोकप्रिय समाचार-पत्र चेतना मंच का 27वां स्थापना दिवस उस समय और भी खास हो गया जब चेतना मंच का 28 पेज का स्थापना दिवस विशेषांक लाखों पाठकों के हाथों में पहुंचा। चेतना मंच के इस विशेषांक के पहले पन्ने पर एक विशेष संपादकीय लेख प्रकाशित किया गया।

संपादकीय लेख को मिला पाठकों को भरपूर प्यार

चेतना मंच के स्थापना दिवस के अवसर पर प्रकाशित विशेष संपादकीय लेख का शीर्षक बहुत अनूठा था। इस संपादकीय पेज का शीर्षक था-‘‘मेरा पहला प्यार”।  मेरा पहला प्यार शीर्षक से प्रकाशित चेतना मंच के संपादकीय लेख को पांच लाख से अधिक पाठकों ने पढ़ा है। इस संपादकीय लेख को पढ़नेे वाले पाठक लगातार इस विषय में अपनी प्रतिक्रियाएं व्यक्त कर रहे हैं। ज्यादातर पाठकों ने ‘‘मेरा पहला प्यार” शीर्षक से प्रकाशित संपादकीय लेख की खूब तारीफ की है। चेतना मंच की पूरी टीम पाठकों के इस प्यार से अभिभूत हुई है। चेतना मंच न्यूज पोर्टल www.chetnamanch.com के पाठकों को यह संपादकीय लेख पढ़वाने के मकसद से यहां उस संपादकीय लेख को ज्यों का त्यों प्रकाशित किया जा रहा है।

मेरा पहला प्यार

इस हैडिंग (शीर्षक) को पढक़र कृपया यह न समझें कि मैं किसी रूमानी प्रसंग की बात कर रहा हूँ। आप यह बिल्कुल भी ना समझें कि अमुक कक्षा में पढ़ते हुए किसी से प्रेम हो गया, उसकी हर अदा दिलकश लगने लगी, सामने आते ही मंदिर की घंटियाँ बज उठीं, दिल धडक़ना भूल गया या सर्दियों की गुनगुनी धूप-सा सुकून मिलने लगा। नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं है। क्योंकि मैं तो उस प्रकृति-प्रेमी संवेदना का व्यक्ति हूँ जो यह सोच रखता है कि :“छोड़ द्रुमों की मृदु छाया, तोड़ प्रकृति से भी माया,


बाले तेरे बाल-जाल में कैसे उलझा दूं लोचन।“

दरअसल उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के एक छोटे से गाँव में जन्मे व्यक्ति को प्रकृति की मृदु छाया का आनंद लेने का अवकाश कहाँ था? इस गाँव में गन्ने की खेती ने भले ही लोगों के जीवन में मिठास घोली हो, लेकिन किसानों का स्वयं का जीवन अत्यंत कष्टसाध्य और दुर्वह था। गाँव, गली, खेत-खलिहान, झोपड़पट्टियाँ हर ओर शोषण, पीड़ा और मौन फैला हुआ था। इन्हीं परिस्थितियों में एक जज़्बा जन्मा। वह जज़्बा यह था कि गाँव, किसान, मज़दूर, शोषित-दमित और वंचित वर्ग की पीड़ा को समाज और सत्ता के सामने निर्भीकता से रखना जरूरी है। इसी उत्कट भावना से आज से 27 वर्ष पूर्व, आज ही के दिन 21 दिसंबर 1998 को आपके लोकप्रिय समाचार-पत्र  ‘‘चेतना मंच’’ का जन्म हुआ। लेकिन जन्म देना कभी आसान नहीं होता। मैंने तथा चेतना मंच की पूरी टीम ने भी चेतना मंच नामक इस रचना को आकार देने में गहरी प्रसव पीड़ा सही है। जैसे एक माँ शिशु का मुख देखते ही सारी पीड़ा भूल जाती है उसके हृदय में अथाह, नि:स्वार्थ प्रेम उमड़ पड़ता है वैसे ही मुझे भी अपनी इस रचना ‘‘चेतना मंच” से गहरा प्रेम हो गया। साथ ही प्रेम हो गया चेतना मंच के उन लाखों पाठकों से जिन्होंने चेतना मंच को अपना भरपूर प्यार दिया।  मेरे प्रिय पाठकों, अब आप समझ ही गए होंगे कि मेरा पहला प्यार  ‘‘चेतना मंच” समाचार-पत्र तथा चेतना मंच के पाठक हैं। दिन-प्रतिदिन ‘‘चेतना मंच”  का प्रकाशन करते हुए यह अनुभूति होती है कि मैं अत्यंत सौभाग्यशाली हूँ कि मेरा पहला प्यार हमेशा मेरे साथ है। चेतना मंच के माध्यम से सच को सच कहने का जो रंग मुझ पर चढ़ा है, वह कभी फीका नहीं पड़ेगा। मैं जीवन भर इसी शिद्दत के साथ इस पहले प्यार के पीछे चलता रहूँगा। ठीक उसी प्रकार कि मानो कोई सपना साकार हो गया हो, मानो आसमान मेरी मुट्ठी में आ गया हो। चेतना मंच की यह यात्रा केवल समाचार देने की नहीं है, बल्कि सच की खोज और सच से आपको रूबरू कराने की है कदम दर कदम। आज के इंटरनेट और ऑनलाइन प्रकाशनों के युग में इस प्रेम को निभाना आसान नहीं है। किन्तु प्रेम निभाना कब आसान रहा है? क्योंकि प्रेम तो वही है। 

“आग का दरिया है और डूब के जाना है।“

इसी संकल्प के साथ, चार वर्ष पूर्व चेतना मंच का ऑनलाइन संस्करण www.chetnamanch.com आरंभ किया गया। आप सुधी पाठकों ने चेतना मंच समाचार पत्र की तरह से ही चेतना मंच के न्यूज पोर्टल को भरपूर प्यार से नवाजा है। चेतना मंच के पाठकों ने चेतना मंच को जो अपार स्नेह और विश्वास दिया है, उसके लिए मैं हृदय से प्रत्येक पाठक का बारम्बार आभार व्यक्त करता हूँ। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि चेतना मंच आगे भी सच का सजग प्रहरी बना रहेगा तथा शोषित, पीडि़त, निर्बल वर्ग का सच्चा साथी और सहयोगी बना रहेगा। 27 वर्षों की यह यात्रा केवल समय की नहीं, बल्कि संघर्ष, विश्वास और सच के प्रति अटूट प्रतिबद्धता की यात्रा है और यह सफर यूँ ही निरंतर चलता रहेगा :-

मंजिलें क्या हैं, रास्तों से पूछो।

चलते-चलते कारवां बन जाते हैं।।- 27th Foundation Day of Chetna Manch


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जिनके लिए बने कानून वें ही बता रहे हैं धोखा

ये चारों श्रम संहिताएं इन सभी पर लागू होंगी। सरकार को नए कानून में अस्थायी कामगार को स्थायी कामगार बनाने की व्यवस्था करनी चाहिए, लेकिन उसने किया यह है कि उन्हें स्थायी तौर पर अस्थायी कामगार ही बने रहने का प्रावधान कर दिया है।

नए श्रम कानूनों के खिलाफ आवाज उठाते श्रमिक, सवाल एक ही– फायदे किसके लिए?
नए श्रम कानूनों के खिलाफ आवाज उठाते श्रमिक, सवाल एक ही– फायदे किसके लिए?
locationभारत
userआरपी रघुवंशी
calendar25 Nov 2025 11:59 AM
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भारत सरकार ने देश के 50 करोड़ श्रमिकों के लिए नए श्रम कानून लागू किए हैं। यह विडम्बना है कि जिन लोगों के लिए नए श्रम कानून बनाए गए हैं वें श्रमिक ही श्रमिक कानूनों को अपने साथ धोखा बता रहे हैं। ऐसे में देश में बने नए श्रम कानूनों का पूरी ईमानदारी के साथ विश्लेषण होना जरूरी है। सरकार को भी चाहिए कि सरकार अपने स्तर से इन कानूनों के विषय में ज्यादातर श्रमिकों की राय को जानकर उसी के हिसाब से श्रम कानूनों में बदलाव करे। यहां हम नए श्रम कानूनों का विश्लेषण अपने पाठकों के लिए कर रहे हैं।

श्रमिक संगठनों ने एक सुर में खारिज कर दिए नए श्रम कानून

हाल ही में केंद्र सरकार ने पुराने श्रम कानूनों की जगह चार नई श्रम संहिताएं लागू करने की घोषणा की है, जिनमें वेतन संहिता, 2019, औद्योगिक संबंध संहिता, 2020, सामाजिक सुरक्षा संहिता, 2020 और व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य व कार्य शर्त संहिता, 2020 शामिल हैं। सरकार इसे आजादी के बाद मजदूरों के लिए सबसे बड़े और प्रगतिशील सुधारों में से एक मान रही है। सरकार का दावा है कि इससे मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी की गारंटी मिलेगी और हर पांच साल में इसकी समीक्षा की जाएगी। यही नहीं, श्रमिकों को समय पर वेतन की गारंटी दी जाएगी तथा महिला व पुरुषों को समान वेतन मिलेगा। लेकिन अधिकतर मजदूर संगठनों का मानना है कि नई श्रम संहिता श्रमिकों के मौलिक अधिकारों का हनन है। वास्तव में सरकार ने सुधार के नाम पर जो किया है, वह सुधार नहीं है, बल्कि कमजोर श्रमिकों को एक तरह से मालिकों (नियोक्ताओं) की दया पर छोड़ दिया है। हमारे देश में संगठित और असंगठित, दोनों क्षेत्रों को मिलाकर 50 करोड़ से अधिक कामगार काम करते हैं। इनमें से लगभग 90 फीसदी असंगठित क्षेत्रों में काम करते हैं। ये चारों श्रम संहिताएं इन सभी पर लागू होंगी। सरकार को नए कानून में अस्थायी कामगार को स्थायी कामगार बनाने की व्यवस्था करनी चाहिए, लेकिन उसने किया यह है कि उन्हें स्थायी तौर पर अस्थायी कामगार ही बने रहने का प्रावधान कर दिया है।

इस उदाहरण से समझ सकते हैं पूरा माजरा

श्रम कानूनों का पूरा माजरा इस एक उदाहरण से समझिए कि सरकार रेलवे में स्थायी व अस्थायी तौर पर कामगारों को नियुक्त करती है। रेलवे में कुछ वर्षों तक अस्थायी तौर पर काम करने के बाद उन्हें स्थायी करने का प्रावधान था, लेकिन नए कानून में उन कामगारों को स्थायी करने का प्रावधान ही खत्म कर दिया सरकार का यह भी दावा है कि इसमें पहली बार सीमित समय के लिए ठेके पर काम करने वाले गिग वर्कर्स को भी शामिल किया गया है और उनके हित में कई प्रावधान लाए गए हैं। यह अच्छी बात है कि सरकार ने गिग वर्कर्स की सुविधा का प्रावधान किया है, लेकिन उन्हें वे सुविधाएं तो उपभोक्ता देंगे। उसमें सरकार की भूमिका क्या है? यह ठीक है कि महिला कामगारों को भी अब समान काम के लिए समान वेतन देने का प्रावधान किया गया है, लेकिन नए कानून के तहत अब रात में भी महिलाओं से काम कराया जा सकेगा, जो कि पहले संभव नहीं था। हालांकि, इसके लिए नियोक्ताओं को महिलाओं से सहमति लेनी होगी। इसके अलावा, सरकार ने फैक्टरी एक्ट कानून में भी बदलाव किया है। जैसे-पहले किसी फैक्टरी में 15-20 कर्मचारी काम करते थे, तो उस पर फैक्टरी एक्ट लागू होता था, लेकिन अब उसकी संख्या बढ़ाकर सी कर दी गई है। ऐसे में, बहुत-सी छोटी फैक्टरियां उसके दायरे से बाहर हो जाएंगी, ऐसे में 'श्रमिकों का अधिकार कहां रहेगा? मौजूदा कानून के तहत, 'यदि किसी फैक्टरी में 100 से अधिक कर्मचारी काम करते हैं, तो उसे बंद करने के लिए सरकार की मंजूरी लेनी जरूरी होती थी, जबकि नए कोड में यह संख्या 300 कर दी गई है, यानी यदि किसी फैक्टरी में 300 से कम कामगार काम कर रहे हों, तो उसे बंद करने के लिए सरकार की मंजूरी की जरूरत नहीं होगी। इसलिए भले ही इसें सरकार श्रम कानूनों में सुधार के नाम पर लागू कर रही है, लेकिन नए कानून मजदूरों के दूरगामी हित में नहीं हैं। यदि सरकार का ऐसा दावा है, तो उसे मजदूर संगठनों से बात करनी चाहिए और पूछना चाहिए कि आपकी आपत्ति कहां पर है। इसके अलावा, देश में जितने भी मजदूर संगठन हैं, वे संगठित क्षेत्र के श्रमिकों के हैं। असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों का तो कोई संगठन है ही नहीं। ऐसे में, सरकार को संगठित एवं असंगठित क्षेत्रों के श्रमिक प्रतिनिधियों के साथ बात करनी चाहिए। सर्वाधिक श्रमिक असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं और सबसे ज्यादा कठिनाई भी इन्हें ही होती है।

उद्योग जगत के फायदे के लिए बनाए गए हैं नए श्रम कानून

ज्यादातर श्रमिक नेताओं का स्पष्ट मत है कि नए श्रम कानून असल में उद्योग जगत को फायदा पहुंचाने के लिए है, श्रमिक वर्ग को इससे बहुत फायदा नहीं होने वाला है। आउटसोर्सिंग किए जाने वाले श्रमिकों के लिए कोई ज्यादा सुविधाजनक प्रावधान नहीं किया गया है।. मसलन, विभिन्न दफ्तरों, कोठियों, अपार्टमेंटों में ठेकेदारों के माध्यम से ठेके पर सिक्योरिटी गार्ड रखे जाते हैं। उनसे जितने वेतन पर हस्ताक्षर करवाया जाता है, उतना वेतन वास्तव में उन्हें नहीं मिलता है। ऐसे श्रमिकों के हित के लिए नए कानून में क्या प्रावधान हैं। असल में नए श्रम, कानून से नियोक्ताओं के लिए श्रमिकों को नौकरी से निकालना तो आसान हो ही जाएगा, मालिकों के लिए फैक्टरी को बंद करना भी काफी आंसान हो जाएगा। इससे श्रमिकों के लिए मजदूर संगठन बनाना व हड़ताल करना मुश्किल हो जाएगा। इसलिए सरकार को पहले देश, के संगठित एवं असंगठित मजदूर प्रतिनिधियों से चर्चा करके राष्ट्रीय विमर्श चलाना चाहिए, ताकि देश की भावनाओं का समावेश हो सके। 


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बिहार की राजनीति है भारत की बड़ी राजनीतिक प्रयोगशाला

फिर सवाल यह भी उठता है कि क्या इस तरह की सीरीज पर कोई सेंसर या समीक्षा होनी चाहिए? क्या ओटीटी प्लेटफॉर्म पर राजनीतिक संतुलन की ज़रूरत है? सरकारों ने पहले भी इस पर चर्चा की है, लेकिन ओटीटी की आज़ादी का हवाला देकर यह मुद्दा हर बार ठंडा पड़ जाता है। महारानी 4 इस मायने में एक केस स्टडी है कैसे एक कहा

महारानी सीजन 4
हुमा कुरैशी महारानी वेब सीरीज में (courtesy SonyLIV)
locationभारत
userआरपी रघुवंशी
calendar10 Nov 2025 06:38 PM
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बिहार प्रदेश में विधानसभा का चुनाव चल रहा है। बिहार की विधानसभा के चुनाव के नतीजे अकेले बिहार को ही प्रभावित नहीं करेंगे बल्कि भारत की राजनीति के ऊपर भी बिहार के चुनाव के नतीजों का बड़ा प्रभाव पड़ेगा। इस दौरान बिहार प्रदेश की राजनीति का एक नजारा इन दिनों इंटरनेट मीडिया के OTT प्लेट फार्म पर भी नजर आ रहा है। OTT प्लेटफार्म पर हाल ही में रिलीज हुई चर्चित सीरीज ‘‘महारानी सीजन-4’’ बिहार की राजनीति की तरफ बड़ा इशारा कर रही है। प्रसिद्ध पत्रकार अजय कुमार ने OTT पर रिलीज हुई सीरीज को बिहार की राजनीति के साथ जोडक़र सार्थक विश्लेषण किया है। अजय कुमार का पूरा विश्लेषण नीचे प्रकाशित किया जा रहा है। महारानी सीजन 4’ ने खोला नया मोर्चा, ओटीटी बना बिहार चुनाव की सियासी प्रयोगशाला


बिहार की राजनीति हमेशा देश की सबसे दिलचस्प प्रयोगशाला रही है, जहाँ सत्ता, जाति, संघर्ष और गठबंधन की कहानी हर चुनाव के साथ नया रंग लेती है। लेकिन इस बार खेल सिर्फ चुनाव मैदान में नहीं, बल्कि ओटीटी प्लेटफॉर्म पर भी दिख रहा है। 7 नवंबर को सोनी लिव पर रिलीज हुई “महारानी सीजन 4” को देखिए कहानी बिहार की है, पर निशाने पर दिल्ली है। यह वही समय है जब बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के पहले चरण का मतदान 6 नवंबर को हुआ था और दूसरा चरण 11 नवंबर को होने वाला है। आंकड़े बताते हैं कि पहले चरण में रिकॉर्ड 64.66% वोटिंग हुई, जो राज्य के इतिहास में अब तक की सबसे ऊँची है। ऐसे में मतदान के बीच इस सीरीज का रिलीज होना महज़ संयोग नहीं लगता। इसमें दिखाया गया कथानक आम दर्शक के मन में एक राजनीतिक सन्देश छोड़ता है कि बिहार की दुर्दशा की जड़ें दिल्ली की सत्ता में हैं, केंद्र की नीतियाँ ही राज्य को पीछे रखती हैं, और जो नेता बिहार की “इज्जत” के लिए लड़े, वही असली नायक हैं। यही परत “महारानी 4” को सिर्फ मनोरंजन भर नहीं रहने देती, बल्कि उसे एक सधी हुई राजनीतिक कथा में बदल देती है, जो जनमानस की धारणा को प्रभावित करने वाला औजार साबित हो सकती है।

क्या है बिहार की यह राजनीति

महारानी 4 में कहानी रानी भारती (हुमा कुरैशी) की है, जो बिहार की मुख्यमंत्री हैं। वह एक बार फिर अपने राज्य को विकास की राह पर लाने की कोशिश कर रही हैं, लेकिन केंद्र की राजनीति उनके रास्ते में दीवार बन जाती है। प्रधानमंत्री सुधाकर श्रीनिवास जोशी (विपिन शर्मा) दिल्ली में बैठे वह ताकतवर किरदार हैं, जिनके पास सत्ता, संसाधन और एजेंसियों की पूरी मशीनरी है। जोशी का चरित्र एक सशक्त, पर अत्यंत चालाक प्रधानमंत्री का है, जो राज्य की राजनीति को अपनी मुट्ठी में रखने के लिए सीबीआई और ईडी जैसी संस्थाओं का इस्तेमाल करता है। जब रानी बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग करती हैं और प्रधानमंत्री के गठबंधन प्रस्ताव को लाइव टेलीविज़न पर ठुकरा देती हैं, तो कहानी में राजनीतिक युद्ध शुरू हो जाता है। सीरीज में दिखाया गया है कि केंद्र सरकार बिहार के विकास फंड रोक देती है और राज्य एक-एक रुपये के लिए तरसता है। यही दृश्य आम दर्शक के मन में यह सवाल पैदा करता है क्या बिहार वाकई केंद्र की नीतियों का शिकार है? यही वह भावनात्मक बिंदु है जिस पर यह शो अपने दर्शक को बाँध लेता है। बिहार की राजनीति को करीब से देखने वाले जानते हैं कि विशेष राज्य का दर्जा लंबे समय से राज्य की मांग रही है, लेकिन अब तक किसी सरकार ने इसे मंजूरी नहीं दी। ऐसे में सीरीज उस भावनात्मक घाव को कुरेदती है जो हर बिहारी के भीतर है “हमारे हिस्से का विकास हमें नहीं मिला।” यही वह हिस्सा है जहाँ यह राजनीतिक समानांतर और भी स्पष्ट हो जाता है। पीएम जोशी के नेतृत्व में उन्हें 232 सीटें मिलती दिखाया गया है। गौरतलब है कि एनडीए को 2024 लोकसभा चुनावों में 234 सीटें प्राप्त हुई थीं। जिस तरह एनडीए का साथ देने के लिए बिहार के सीएम नीतीश कुमार और आंध्र के सीएम चंद्रबाबू सामने आते हैं, उसी तरह महारानी सीरीज में बंगाल और तमिलनाडु के सीएम सपोर्ट में आते हैं। पीएम जोशी को अपने स्किन पर विशेष ध्यान रखने वाला और कपड़ों को लेकर बेहद सजग दिखाया गया है। सोशल मीडिया पर लिखा जा रहा है कि ऐसा सब पीएम मोदी को टारगेट करने के लिए किया गया है।

PM मोदी को बनाया गया निशाना

यहां तक तो कथा यथार्थ के करीब लगती है, लेकिन इसके बाद जो रंग भरे जाते हैं, वे स्पष्ट रूप से केंद्र सरकार को नकारात्मक रूप में पेश करते हैं। प्रधानमंत्री जोशी को ‘जुमलेबाज’, ‘तानाशाह’ और ‘एजेंसियों के दुरुपयोगकर्ता’ के रूप में दिखाया गया है। यहां तक कि उन्हें अपनी “स्किन केयर” और “कपड़ों” के प्रति सजग दिखाना भी एक व्यंग्यात्मक इशारा है, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सार्वजनिक छवि पर तंज करता हुआ लगता है। सोशल मीडिया पर भी यही बहस चल रही है कि यह किरदार मोदी की छवि पर सीधा हमला है। ट्विटर (अब X) पर बीजेपी समर्थक यूजर @UpendraMPradhan ने लिखा, “यह सीरीज प्योर प्रोपगैंडा है, बिहार चुनावों के लिए बनी है, जिसमें पीएम को बिहार को नष्ट करने वाला दिखाया गया है।” विपक्ष समर्थक कई हैंडल्स ने उल्टा तर्क दिया कि यह सीरीज “यथार्थ की झलक” दिखाती है, जहाँ एजेंसियों के डर से राजनीतिक विरोधी दबाए जाते हैं। यही दो ध्रुवों के बीच की बहस इस सीरीज की सबसे बड़ी सफलता है उसने चर्चा छेड़ दी है, और उस चर्चा में चुनावी हवा शामिल हो गई है। रोशनी को तेजस्वी यादव जैसी युवा लीडरशिप के रूप में पेश किया गया है। नवीन कुमार का किरदार नीतीश कुमार या किसी ऐसे राइवल नेता से मेल खाता है जो पीएम से एलाइड हो जाता है। यह समानता कहानी को और भी यथार्थ के करीब लाती है, जहाँ सत्ता, गठबंधन और अवसरवाद की राजनीति का आईना दर्शक के सामने रखा गया है।

वंशवाद पर भी चोट की गई है

वंशवाद के पहलू पर भी कहानी दिलचस्प मोड़ लेती है। रानी भारती अपने पद से इस्तीफा देकर अपनी बेटी रोशनी को मुख्यमंत्री बनाती हैं। यह लालू-राबड़ी-तेजस्वी की राजनीति की याद दिलाता है। आम तौर पर जनता वंशवाद पर सवाल उठाती है, लेकिन सीरीज इसे एक “परिवार की जिम्मेदारी” के रूप में प्रस्तुत करती है। यानी दर्शक को यह समझाया जाता है कि जब नेता भ्रष्ट तंत्र से घिरे हों, तब अपने परिवार को आगे लाना गलत नहीं। यही वह सॉफ्ट पिच है जो दर्शक के अवचेतन में यह विचार रोपती है कि लालू-राबड़ी या परिवार आधारित राजनीति भी किसी सामाजिक “कर्तव्य” का रूप है। अब अगर आप चुनावी समय, कथा का भावनात्मक केंद्र और कथानक की दिशा इन तीनों को जोड़ें, तो यह कहानी केवल कल्पना नहीं बल्कि एक राजनीतिक उपकरण की तरह दिखने लगती है। ओटीटी के पास अब गाँव-गाँव तक पहुँच है। बिहार जैसे राज्य में, जहाँ मोबाइल इंटरनेट का इस्तेमाल तेज़ी से बढ़ा है, युवाओं की बड़ी संख्या ऐसी सीरीज देखती है। डेटा बताता है कि बिहार में इंटरनेट उपयोगकर्ता 2024 तक 6.3 करोड़ से अधिक हो चुके थे, और ग्रामीण हिस्से में 72% युवा स्मार्टफोन से कंटेंट देखते हैं। यानी एक सीरीज, जो बिहार की भावना से जुड़ी है, उसका असर ज़मीनी राजनीति तक जा सकता है।

खास है रिलीज की टाइमिंग

यह भी ध्यान देने योग्य है कि भारत में फिल्मों और वेब सीरीज की रिलीज टाइमिंग अक्सर रणनीतिक रही है। चुनावी सीजन में चाहे राजनीति , तांडव या द केरल स्टोर जैसी फिल्में हों, उनका विमोचन अक्सर किसी जन-भावना को दिशा देने के लिए किया जाता है। महारानी 4 की रिलीज 7 नवंबर को होना, जब दूसरे चरण के मतदान की तैयारी चल रही थी, निश्चित रूप से एक सोचा-समझा कदम लगता है। खुद सीरीज के निर्माताओं ने कहा कि यह “सबसे भावनात्मक और विवादास्पद सीजन” है, जो बिहार की जनता के दिल से जुड़ता है। अगर आप इसे निष्पक्ष नजरिए से देखें, तो कहानी में कला और राजनीति का घालमेल दोनों मौजूद हैं। एक ओर रानी भारती का संघर्ष, जो केंद्र की “तानाशाही” के खिलाफ आवाज़ उठाती है, दर्शकों को प्रेरक लग सकता है। दूसरी ओर, इसका प्रतीकात्मक संदेश यह भी देता है कि केंद्र सरकार एजेंसियों का इस्तेमाल विपक्ष को खत्म करने के लिए करती है। यही संदेश अगर बिहार चुनाव से कुछ दिन पहले फैलता है, तो वह चुनावी हवा को प्रभावित कर सकता है। फिल्म और सीरीज का प्रभाव सीधा वोट में नहीं बदलता, पर यह धारणा बनाता है। राजनीति में धारणा ही सबसे बड़ा हथियार होती है। अगर कोई दर्शक यह मान लेता है कि “केंद्र बिहार को नजरअंदाज कर रहा है,” तो वह वोट डालते समय अपने मन में वही पीड़ा रखता है। इसी कारण ऐसे कंटेंट की रिलीज टाइमिंग पर सवाल उठते हैं। फिर सवाल यह भी उठता है कि क्या इस तरह की सीरीज पर कोई सेंसर या समीक्षा होनी चाहिए? क्या ओटीटी प्लेटफॉर्म पर राजनीतिक संतुलन की ज़रूरत है? सरकारों ने पहले भी इस पर चर्चा की है, लेकिन ओटीटी की आज़ादी का हवाला देकर यह मुद्दा हर बार ठंडा पड़ जाता है। महारानी 4 इस मायने में एक केस स्टडी है कैसे एक कहानी, जो सतह पर काल्पनिक है, असल में सियासी माहौल को बदलने की ताकत रखती है। इस सीरीज ने बिहार के विकास, विशेष राज्य दर्जे और केंद्र-राज्य रिश्तों को फिर चर्चा में ला दिया है। यह अच्छी बात है कि जनता इन विषयों पर बात कर रही है, लेकिन चिंता यह भी है कि क्या यह बातचीत तथ्यों पर आधारित है या भावनाओं पर। कला को राजनीति से अलग रखना हमेशा आसान नहीं होता, लेकिन जब कला राजनीति का औजार बन जाए, तब लोकतंत्र को सोचना पड़ता है हम कहानी देख रहे हैं या सियासत की पटकथा पढ़ रहे हैं।


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