Vice President : भारत का लोकतंत्र तीन स्तंभों—विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका—पर टिका है। लेकिन हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा राष्ट्रपति और राज्यपालों को बिलों की मंजूरी के लिए समयसीमा तय करने के फैसले पर उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने कड़ी नाराजगी जताई है। यह बयान भारत के संवैधानिक ढांचे और शक्तियों के संतुलन पर एक बड़ी बहस को जन्म दे रहा है।
राष्ट्रपति को निर्देश देना – न्यायपालिका की सीमा? :धनखड़ (Vice President)
धनखड़ (Vice President) का मानना है कि भारत में राष्ट्रपति का पद सर्वोच्च है और उसे निर्देशित करना संविधान की भावना के खिलाफ है। उनका कहना है कि अनुच्छेद 142, जो सुप्रीम कोर्ट को “पूर्ण न्याय” देने का अधिकार देता है, अब एक ऐसी 24×7 न्यूक्लियर मिसाइल बन गया है जो लोकतांत्रिक संतुलन को खतरे में डाल रही है।
न्यायपालिका बनाम विधायिका – कौन बनाएगा कानून?
उपराष्ट्रपति (Vice President) ने साफ कहा कि भारत ने ऐसा लोकतंत्र नहीं चाहा था जहां जज कानून बनाएंगे, कार्यपालिका का काम खुद करेंगे और “सुपर संसद” की भूमिका निभाएंगे। उन्होंने यह भी कहा कि संविधान के अनुसार कोर्ट का कार्य केवल संविधान की व्याख्या करना है, न कि कार्यपालिका को निर्देश देना।
हालिया घटनाएं और मौन का सवाल
धनखड़ (Vice President) ने मार्च में एक जज के निवास पर हुई घटना का ज़िक्र करते हुए पूछा कि एक सप्ताह तक किसी को इस बारे में कैसे जानकारी नहीं मिली? उन्होंने इसे लोकतंत्र में पारदर्शिता और जवाबदेही के लिए एक “मौलिक सवाल” बताया।
लोकतंत्र में शक्तियों का संतुलन क्यों ज़रूरी है?
(Vice President) ने यह भी कहा कि कार्यपालिका जनता द्वारा चुनी जाती है और संसद के प्रति जवाबदेह होती है। अगर अदालतें उस पर नियंत्रण करने लगें तो लोकतंत्र की “जवाबदेही की प्रणाली” कमजोर पड़ जाती है।
भारत जैसे लोकतंत्र में न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका का संतुलन बेहद जरूरी है। इस बहस से साफ है कि अब समय आ गया है कि हम संवैधानिक सीमाओं की स्पष्ट परिभाषा और आपसी सम्मान की ओर बढ़ें, जिससे देश में न्याय और शासन दोनों अपनी जगह मजबूती से टिके रहें। Vice President :
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