Kabir Vani : भारतीय इतिहास के मध्यकाल में जन्मे एवं अपने सामाजिक सरोकारों एवं रचनाओं से हर संवेदनशील प्राणी को प्रभावित करने वाले कबीर निरक्षर थे। उनकी रचनाएं उनके प्रिय शिष्य धर्मदास द्वारा संकलित की गई है। समाज में फैली कुरीतियों, अंधविश्वासों, ऊंच-नीच की भावना एवं धार्मिक सांप्रदायिक विद्वेष पर चोट करने वाले महान संत, कवि व समाज सुधारक कबीरदास अगर आज जीवित होते तो क्या होता ? क्या हमारा धर्मों, पंथों, मजहबों एवं अनेकानेक जातियों एवं उप जातियों में बटा समाज नीर क्षीर सा एक हो गया होता ? या फिर धार्मिक मजहबी आस्था को चोट पहुंचाने के कारण कबीरदास पर भारत के हर प्रांत में सैकड़ों मुकदमे दर्ज हो गए होते और कबीर दास समाज को जागृत करने का कार्य त्याग कर न्यायालय दर न्यायालय अपनी जमानत करा रहे होते ? यह एक बड़ा सवाल है। ख़ैर आइए पहले कबीर दास को जान लिजिए !
Kabir Vani
कबीर दास का जन्म
कबीर दास जी के जन्म के संबंध में जो कथा प्रचलित है उसके अनुसार, कबीर दास जी का जन्म एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से हुआ था। जिसने लोक भय से कबीर दास को वाराणसी के लहरतारा तालाब के पास छोड़ दिया था। इस कथा की प्रमाणिकता के विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता। इनके जन्म के संबंध में यह भी कथा प्रचलित है कि नीरू व नीमा नामक मुसलमान जुलाहा दंपत्ति ने लहरतारा तालाब में इन्हें कमल के फूल पर लेटा हुआ पाया था।
किंतु यह तथ्य स्वीकार्य है कि इनका पालन-पोषण नीरू व नीमा नामक मुसलमान जुलाहा दंपत्ति द्वारा किया गया और कबीर का व्यवसाय भी बड़े होकर कपड़ा बुनने का ही था। कपड़ा बुनते बुनते ही कबीर ने प्रेम के धागों से समाज की चादर बुनने की गंभीर कोशिश बिना किसी लाग लपेट के की थी। इस प्रक्रिया में वह कभी मुल्ले मौलवियों से उलझे तो कभी पंडितों से टकराए। बड़ी बेबाकी और पूरे अकखड़पन से वह कहते हैं कि –
पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजू पहार
ताते यह चाकी भली पीस खाए संसार
कबीरदास यहीं नहीं रुके वह आगे कहते हैं कि –
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ पंडित भया न कोई, ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।
सबको चुनौती देते हैं कबीर
भारतीय इतिहास के जिस काल में कबीर दास जी का अभ्युदय हुआ तब उत्तर भारत में सैकड़ों वर्षों से मुसलमानों का शासन था और हिंदू धर्म को हर और से अनेक चुनौतियां मिल रही थी किंतु शासक वर्ग के धर्म व रीति-रिवाजों को चुनौती कबीर दास जैसा निर्गुण संत कवि ही दे सकता था। वह कहते हैं कि-
काकर पाथर जोड़ के मस्जिद लई बनाय, ता चढि मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय।
कबीर दास जी अंतिम किताब या अंतिम पैगंबर को भी चुनौती देते हैं जब वें कहते हैं कि –
तू कहता कागज की लेखी, मैं कहता हूं आंखन देखी।
वह आगे कहते हैं कि
बकरी पाती खात है ताकि मोटी खाल, जे नर बकरी खात हैं उनको कौन हवाल।
उनका कोई मज़हब नहीं
कबीर ना तो हिंदू थे ना मुसलमान, किंतु अपनी वैचारिकता एवं अपने कृतित्व से वह निर्गुण ब्रह्म के उपासक भक्ति मार्ग की ज्ञानाश्रई शाखा के कवि अद्वैत के साधक एवं एकेश्वरवादी ही समझ आते हैं। कबीरदास जी कहते हैं कि –
हिंदू कहें मोहे राम पियारा तुर्क कहें रहमाना, आपस में दोऊ लड़ीं लड़ी मूऐ मरम न कोई जाना।
या फिर
काया माहि कबीर है ज्यों पहुपन में बास,
कोई जाने कोई जोहरी कोई जाने कोई दास।
आत्म निरीक्षण एवं आत्मलोचन की प्रवृत्ति कबीर दास जी को निरंतर स्वयं में एवं समाज में सुधार के लिए आन्दोलित करती रहती है जिसकी अभिव्यक्ति इस दोहे में होती है।
निंदक नियरे राखिए आंगन कुटी छवाय,
बिन पानी साबुन बिना निर्मल करे सुभाय।
जीवन का धर्म का समाज का अध्यात्म का कोई पक्ष ऐसा नहीं है जो उनकी पकड़ से अछूता रह गया हो। वह कहते हैं कि –
धीरे धीरे रे मना धीरे सब कुछ होय माली सींचे सौ घड़ा ऋतु आए फल होय
मन के मते न चालिए मन के मते अनेक
जो मन पर असवार है सो साधु कोई एक
अर्थात् वें कह रहे हैं कि हे मन तू धैर्य रख, क्योंकि धैर्य से लगे रहने पर इच्छित की प्राप्ति होती है। माली किसी वृक्ष को सौ बार भी सीचे किंतु फल तो ऋतु आने पर ही वृक्ष पर लगता है।
मन के अनुसार नहीं चलना चाहिए, क्योंकि मन तो चंचल है उसमें अनेक विचार आते हैं किंतु जिसने अपने मन को अपने नियंत्रण में कर लिया है ऐसा तो कोई एकाध साधु ही होता है।
Kabir Vani – कबीर दास का पारिवारिक जीवन
कबीर साहब के पारिवारिक जीवन के विषय में कहा जाता है कि उनकी पत्नी का नाम लोई था। जिससे इनकी दो संताने थी। पुत्र कमाल व पुत्री कमाली। कबीरदास जी शायद अपने पुत्र के आचरण से दुखी थे, क्योंकि यह लिखा मिलता है कि बूढ़ा वंश कबीर का उपजा पुत्र कमाल। पिता पुत्र के बीच की प्रतिद्वंद्विता के संबंध में यह दो दोहे बहुत प्रसिद्ध है, जहां एक और कबीरदास जी कहते हैं कि –
चलती चाकी देखकर दिया कबीरा रोय, दो पाटन के बीच में साबुत रहा न कोय।
वहीं उनके पुत्र कमाल लिखते हैं कि
चलती चाकी देख के हंसा कमाल ठठाय। कीले सहारे जो रहा ताहि काल ना खाएं।।
अर्थात् हाथ से चलने वाली चक्की के दो पाटों के बीचो-बीच लकड़ी की एक छोटी सी कल लगी होती है यदि अनाज पीसते समय इसमें कोई दाना चला जाए तो वह साबुत रहता है।
जिस तरह से कबीर दास जी के जन्म के विषय में कई कथाएं हैं, उसी तरह उनकी मृत्यु के संबंध में भी कई अलग-अलग कहानियां है। यह कहा जाता है कि कबीर दास जी अपनी मृत्यु के पूर्व काशी छोड़कर मगहर चले गए थे, क्योंकि हिंदू धर्म में काशी को मोक्ष दायिनी कहा जाता है पर कबीरदास का तो कर्मकांड व पाखंड से 36 का
आंकड़ा है इसीलिए वह कहते हैं कि
जो काशी तन तजे कबीरा रामै कौन निहोरा रे
काशी में प्राण त्याग मात्र से ही व्यक्ति को मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता या वह ईश्वर का प्रिय नहीं हो सकता। यह विशुद्ध रूप से कर्म वाद के सिद्धांत की स्वीकृति है कबीर दास यह भी तो कहते हैं कि
जाति पाति पूछे नहीं कोई, हरि को भजे सो हरि को होई।
हर सामाजिक पाखंड एवं कर्मकांड को धता बताते हुए कबीर दास जी ने हमेशा मनुष्य को अच्छा मानव बनने की सीख दी क्योंकि जीवन क्षणभंगुर है और मृत्यु के साथ कुछ भी नहीं जाता है। उनका दोहा है कि
क्या मांगू कुछ थिर ना रहाई। देखत नैन चला जग जाई।।
कबीर दास जी पूरा जीवन कठिन परिश्रम कर अपना जीवन यापन करते रहे। वह इस प्रकार के साधु नहीं थे जो भिक्षा ग्रहण कर अपना भरण पोषण करते हैं फिर भी उनका पूरा जीवन लोकमंगल की भावना से ओतप्रोत रहा। समाज को ऊंच-नीच, जातिगत भेदभाव, पाखंड, कर्मकांड एवं धार्मिक विद्वेष के विरुद्ध जागृत व शिक्षित करने के लिए अपना पूरा जीवन अर्पण कर दिया। उनका मानना था कि ईश्वर एक है जिसको प्रेम और भक्ति से प्राप्त किया जा सकता है। सरलता एवं सहजता से प्राप्त किया जा सकता है, दिखावे से नहीं।
कबीर दास की मौत भी उत्सव
कबीर दास जी की मृत्यु के संबंध में यह किंदवंती है कि उनकी मृत्यु के उपरांत हिंदू और मुसलमान आपस में लड़ने लगे कि उनका दाह संस्कार होगा अथवा उनको दफन किया जाएगा। कहते हैं कि बहुत वाद विवाद के पश्चात जब उनके शव से चादर हटाई गई तो वहां केवल पुष्प थे और कुछ नहीं था जिन्हें हिंदुओं और मुसलमानों ने आपस में बांट लिया और अपने अपने धर्म के अनुसार अंतिम संस्कार किया। अब मगहर में इनकी मजार भी है और समाधि भी।
शायद हमारे समाज का यही सबसे बड़ा विद्रूप है कि जो महान व्यक्तित्व अपने संपूर्ण जीवन काल में मतों एवं मजहबों के पाखंडों एवं कर्मकांडों के विरुद्ध संघर्ष करता रहा। उसकी मृत्यु होते ही उनकी शिक्षाओं को भूल गए और हिंदू मुसलमान होकर लड़ने लगे और तो और कबीर के अनुयायियों ने उनके नाम से कबीर पंथ भी चला दिया।
शायद हमारा समाज उस तालाब की तरह है जिसमें कंकड़ फेंकने पर लहरें उठती हैं किंतु थोड़ी देर बाद सब कुछ पूर्ववत हो जाता है या फिर उनके विचारों की एक अंतर धारा अंदर ही अंदर चलती रहती है जो बाहर से दिखाई नहीं देती कबीर साहब जैसे लोग जब जाते है तो क्या होता है। इस विषय में भी कबीर अदभुत बात कहते हैं। वें फ़रमाते हैं कि .-
जब हम पैदा हुए जग हंसे हम रोए,
ऐसी करनी कर चले हम हंसे जग रोए।
Kabir Vani
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