अमरेंद्र कुमार राय
Fakkad Baba : अयोध्या को मंदिरों का शहर कहा जाता है। यह भी कहते हैं कि यहां हर घर में मंदिर है। इसी तरह से बनारस को कहते हैं कि यहां कंकर-कंकर शंकर। यानी हर कंकड़ में शंकर का वास है। उसी तरह से गाजीपुर जिला भी है। यहां पग-पग पर संतों की कर्म भूमि है। गाजीपुर का तो नाम ही गाधि ऋषि के नाम पर पड़ा है। गाजीपुर के जमनिया क्षेत्र में भगवान परशुराम के पिता महर्षि यमदग्नि रहा करते थे। इसके करंडा क्षेत्र में कण्व ऋषि का आश्रम था। प्रसिद्ध ऋषि गौतम और च्यवन ने यहां धर्मोपदेश दिए। गौतम बुद्ध जिन्होंने वाराणसी के सारनाथ में अपना पहला धर्मोपदेश दिया था, वह स्थान भी यहां से ज्यादा दूर नहीं है। गाजीपुर जिले का अहरौरा इलाका भगवान बुद्ध की शिक्षा का प्रमुख केंद्र बन गया था। इस इलाके के कई स्तूप और खंभे इसके प्रमाण हैं। आधुनिक संतों में पवहारी बाबा और गंगा दास ने भी गाजीपुर के समीप गंगा किनारे अपना आश्रम बनाकर तपस्या की। उसी कड़ी में फक्कड़ बाबा भी हुए। ये अपने जीवन के आखिरी दिनों में इसी जिले के कासमाबाद तहसील के सुरवत गांव में आकर रहे और क्षेत्र के लोगों का कल्याण करते रहे। आज भी इनके बारे मे मान्यता है कि अगर किसी किसान का पशु बीमार हो जाए और उसका पगहा (जिसमें पशु खूंटे से बांधा जाता है) और एक भेली गुड़ बाबा के दरबार मे पहुंचा दिया जाए तो वह ठीक हो जाता है। इस तरह फक्कड़ बाबा किसानों के रक्षक बनकर क्षेत्र के लोगों का कल्याण करते हैं।
Fakkad Baba

फक्कड़ बाबा को क्षेत्र के लोग सिद्ध संत मानते हैं। उनके इस गांव में आने के पीछे भी एक कहानी है। बताते हैं कि 1960 में गांव (सुरवत) में बहुत तेज प्लेग फैला। प्लेग एक-एक करके गांव के लोगों को मौत के मुंह में डालने लगा। प्लेग से गांव के 60 लोगों की मौत हो गई। इससे गांव के लोग बहुत चिंतित हुए। बचाव का कोई उपाय सूझ नहीं रहा था। तब किसी ने बताया कि आजमगढ़ जिले (अब मऊ) में छोटी सरयू के पार एक सिद्ध संत रहते हैं। वही लोगों को इस बीमारी से बचा सकते हैं। अगर वे गांव आने को तैयार हो जाएं तो। यह पता चलने पर गांव के कुछ रईस लोग जिनमें कलिका राय, रमा शंकर राय, गिरिजा शंकर राय आदि शामिल थे, पालकी लेकर बाबा को बुलाने के लिए गए। तब रमाशंकर राय गांव के प्रधान थे। इन लोगों को देखते ही बाबा समझ गए कि ये लोग किस लिए आए हैं। उन्होंने इन्हें देखते ही कलिका राय का नाम लेकर कहा कि आप आ गए। चलो अच्छा हुआ। मैं तुम लोगों के साथ चलूंगा। उन्होंने ये भी कहा कि अभी गांव में एक और व्यक्ति की मौत होगी। वह नहीं बच पाएगा। लेकिन इसके बाद ये बीमारी चली जाएगी। अभी लोग छोटी सरयू पर ही पहुंचे थे कि नदी पार कराने वाले मल्लाह ने बताया कि गांव में एक और व्यक्ति की मौत हो गई है। बाबा की बात सच निकली।

बाबा पर लोगों का भरोसा और बढ़ गया। बाबा गांव आ गए और उसके बाद प्लेग से किसी की मौत नहीं हुई। बाबा सुरवत गांव में ही दो साल रहे। जब मौत की घड़ी नजदीक आई तो उन्होंने कलिका राय को बुलाया और कहा कि कल हम एक बजे शरीर छोड़ेंगे। मैंने तुम्हें इसलिए बुलवाया कि तुम मेरा काम करने में अकेले ही सक्षम हो। कलिका राय इलाके के बड़े जमीदार थे। उनके पास 800 पक्के बीघे की जमीदारी थी। बाबा ने कहा कि उनके लिए 13 हाथ लंबा और सात हाथ का चौड़ा गड्ढा खोदवा देना। उसके ऊपर मंडप छवा देना। मंडप को कैद मत करना। यानी उसकी बाउंड्री मत कराना। उसी में हम समाधि लेंगे। अगले दिन डुग्गी बजवाकर पूरे गांव के लोगों को इसकी सूचना दे दी गई। गांव के लोग तय समय पर वहां पहुंच गए। बाबा को एक कुर्सी पर बैठाकर उसी गड्ढे में बैठा दिया गया। वे लोगों से बात करते रहे, आशीर्वाद देते रहे और ठीक एक बजे आंख बंद कर ली। बाबा वहीं समाधिस्थ हो गए। जिस दिन बाबा ने देह त्याग किया उस दिन कार्तिक बदी अष्टमी थी। समाधिस्थ होने से पहले बाबा ने ये भी कहा कि उनकी मौत के बाद कुत्तों को खिचड़ी खिलाया जाए।
अगले वर्ष जब बाबा की समाधि का दिन कार्तिक बदी अष्टमी आया तो उनके कहे अनुसार कड़ाहा में खिचड़ी बनाई गई और कुत्तों को खिलाया गया। इसके बाद से पिछले 60 साल से हर साल यही होता है। आप कह सकते हैं कि बाबा को श्रद्धांजलि कुत्तों को खाना खिलाकर मनाई जाती है। अब तो स्थिति यह है कि उस दिन हजारों की संख्या में पता नहीं कहां से कुत्ते आ जाते हैं। लोग उन्हें प्रेम और आदर भाव से खिचड़ी बनाकर खिलाते हैं। समाधि पर उस दिन बड़ा मेला लगता है।

1962 में बाबा ने जब देह छोड़ा तो मंडप साधारण ही था। बाद में उनकी समाधि लाहौरी ईंटों की बना दी गई। लेकिन 2019 में कलिका राय के ही पोते पवन राय ने उसे भव्य रूप देने की योजना बनाई। पवन राय बताते हैं कि मंदिर की नई डिजाइन और उस के पुनर्निर्माण पर 27 लाख का खर्च आ रहा था। मंदिर सबके सहयोग से बनता है। पैसे की बात नहीं। पैसा तो मैं अकेले ही खर्च कर देता। पर तब वह मंदिर नहीं माना जाता। हमारी मिल्कियत हो जाती। इसलिए हमने गांव के हर व्यक्ति से उसमें सहयोग लिया। गांव में कई जातियों के लोग रहते हैं। मुसलमान भी हैं। सभी ने सहयोग दिया और अपनी सामर्थ्य से ज्यादा दिया।
मंदिर के लिए हम गांव के हर व्यक्ति के दरवाजे पर गए उनके दरवाजे पर भी जिनके यहां हम कभी नहीं जाते या जाने की जरूरत नहीं पड़ती। यहां तक कि जिनसे हमारा झगड़ा है, जिनसे हमारी बातचीत नहीं होती, उनके यहां हमारा खाना-पीना नहीं है फिर भी हम उनके यहां गए और उन्होंने भी फक्कड़ बाबा के कारण हमारा मान रखा। वे कहते हैं कि हमारा ईंट का भट्टा था। मंदिर के लिए हमने ईंट फ्री कर दी। भूपेश गुप्ता ने एक लाख रुपये दिए। जिनसे हमारी लड़ाई थी उन्होंने भी 5001 और 10001 रूपये दिये। और तो और मुसलमानों ने भी 501 रुपये की पर्ची कटाई। सहयोग सिर्फ गांव के लोगों से लिया गया बाकी किसी और से नहीं। जो मिला सो मिला बाकी पैसा मैंने लगाकर निर्माण पूरा कराया।
2019 में मंदिर का निर्माण कार्य शुरू हुआ और 2020 में कोरोना फैलने से पहले ही पूरा हो गया। अब मंदिर भव्य बन गया है। यहां तीन साधु रहते हैं और वही मंदिर में पूजा-पाठ करते हैं। मंदिर की पूरे इलाके में बड़ी प्रतिष्ठा है। साल के 365 दिन में 350 दिन यहां राम चरित मानस और कीर्तन होता रहता है। लोग फक्कड़ बाबा के नाम पर मनौती मानते हैं और पूरी होने पर कीर्तन या राम चरित मानस कहलवाते हैं।
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