जौनपुर में ‘बहू भोज’ की धूम, दूल्हे के डबल सरनेम ने खींचा सबका ध्यान
उस दौर में परिवार के पुरखे लाल बहादुर दुबे जमींदार बताए जाते हैं। समय के साथ पीढ़ियों में धर्म परिवर्तन हुआ, लेकिन परिवार ने अपनी ऐतिहासिक पहचान के प्रतीक के तौर पर ‘दुबे’ उपनाम को बनाए रखा।

UP News : उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले में आयोजित एक विवाह समारोह इन दिनों खास चर्चा में है। वजह है दूल्हे का डबल सरनेम मोहम्मद खालिद दुबे। इस नाम के साथ जुड़ी कहानी सिर्फ एक परिवार की नहीं, बल्कि मुगलकाल से लेकर आज तक चलती आ रही वंश-परंपरा, पहचान और सामाजिक समरसता की मिसाल बनकर सामने आई है।
नाम में छुपा 17वीं सदी का इतिहास
जौनपुर की केराकत तहसील के देहरी गांव में रविवार को हुए इस विवाह को लोग सामान्य आयोजन की तरह नहीं देख रहे। परिवार का दावा है कि उनके पूर्वज 1669 में आजमगढ़ क्षेत्र से यहां आकर बसे थे। उस दौर में परिवार के पुरखे लाल बहादुर दुबे जमींदार बताए जाते हैं। समय के साथ पीढ़ियों में धर्म परिवर्तन हुआ, लेकिन परिवार ने अपनी ऐतिहासिक पहचान के प्रतीक के तौर पर ‘दुबे’ उपनाम को बनाए रखा।
‘बहू भोज’ में दिखी उत्तर प्रदेश की गंगा-जमुनी तहजीब
शादी के बाद आयोजित ‘बहू भोज’ (दावत-ए-वलीमा) का आयोजन खालिद दुबे के चाचा नौशाद अहमद दुबे ने किया। उनका कहना है कि यह सिर्फ नाम का मामला नहीं, बल्कि अपनी जड़ों से जुड़े रहने का भाव है। उन्होंने परिवार की सोच साझा करते हुए कहा कि आस्था बदल सकती है, लेकिन वंश और इतिहास की स्मृति नहीं मिटती—और यही भाव इस आयोजन की सबसे बड़ी पहचान बन गया।
अलग-अलग समाजों की मौजूदगी ने बढ़ाई आयोजन की गरिमा
इस समारोह की एक और खास बात यह रही कि इसमें विभिन्न धर्मों और सामाजिक पृष्ठभूमियों से जुड़े लोग शामिल हुए। कार्यक्रम में पातालपुरी पीठ के जगद्गुरु बाबा बालकदास देवाचार्य महाराज, महंत जगदीश्वर दास, भारत सरकार की उर्दू काउंसिल की सदस्य नजनीन अंसारी और विशाल भारत संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजीव गुरु की उपस्थिति रही।परिवार के मुताबिक, आरएसएस के वरिष्ठ पदाधिकारी कृष्ण गोपाल और इंद्रेश कुमार ने फोन पर शुभकामनाएं भी दीं। इससे यह आयोजन केवल पारिवारिक कार्यक्रम नहीं रहा, बल्कि उत्तर प्रदेश की साझी संस्कृति और सामाजिक सौहार्द का संदेश देने वाला मंच बन गया। UP News
UP News : उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले में आयोजित एक विवाह समारोह इन दिनों खास चर्चा में है। वजह है दूल्हे का डबल सरनेम मोहम्मद खालिद दुबे। इस नाम के साथ जुड़ी कहानी सिर्फ एक परिवार की नहीं, बल्कि मुगलकाल से लेकर आज तक चलती आ रही वंश-परंपरा, पहचान और सामाजिक समरसता की मिसाल बनकर सामने आई है।
नाम में छुपा 17वीं सदी का इतिहास
जौनपुर की केराकत तहसील के देहरी गांव में रविवार को हुए इस विवाह को लोग सामान्य आयोजन की तरह नहीं देख रहे। परिवार का दावा है कि उनके पूर्वज 1669 में आजमगढ़ क्षेत्र से यहां आकर बसे थे। उस दौर में परिवार के पुरखे लाल बहादुर दुबे जमींदार बताए जाते हैं। समय के साथ पीढ़ियों में धर्म परिवर्तन हुआ, लेकिन परिवार ने अपनी ऐतिहासिक पहचान के प्रतीक के तौर पर ‘दुबे’ उपनाम को बनाए रखा।
‘बहू भोज’ में दिखी उत्तर प्रदेश की गंगा-जमुनी तहजीब
शादी के बाद आयोजित ‘बहू भोज’ (दावत-ए-वलीमा) का आयोजन खालिद दुबे के चाचा नौशाद अहमद दुबे ने किया। उनका कहना है कि यह सिर्फ नाम का मामला नहीं, बल्कि अपनी जड़ों से जुड़े रहने का भाव है। उन्होंने परिवार की सोच साझा करते हुए कहा कि आस्था बदल सकती है, लेकिन वंश और इतिहास की स्मृति नहीं मिटती—और यही भाव इस आयोजन की सबसे बड़ी पहचान बन गया।
अलग-अलग समाजों की मौजूदगी ने बढ़ाई आयोजन की गरिमा
इस समारोह की एक और खास बात यह रही कि इसमें विभिन्न धर्मों और सामाजिक पृष्ठभूमियों से जुड़े लोग शामिल हुए। कार्यक्रम में पातालपुरी पीठ के जगद्गुरु बाबा बालकदास देवाचार्य महाराज, महंत जगदीश्वर दास, भारत सरकार की उर्दू काउंसिल की सदस्य नजनीन अंसारी और विशाल भारत संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजीव गुरु की उपस्थिति रही।परिवार के मुताबिक, आरएसएस के वरिष्ठ पदाधिकारी कृष्ण गोपाल और इंद्रेश कुमार ने फोन पर शुभकामनाएं भी दीं। इससे यह आयोजन केवल पारिवारिक कार्यक्रम नहीं रहा, बल्कि उत्तर प्रदेश की साझी संस्कृति और सामाजिक सौहार्द का संदेश देने वाला मंच बन गया। UP News











