Sunday, 17 November 2024

Uttarakhand News: ‘घी संग्यान’ और ‘हरेला’: लुप्त हो रहे खेती और प्रकृति से जुड़े त्योहार !

Uttarakhand News: पहाड़ में अमूमन सभी त्योहारों का इतिहास खेती और प्रकृति से जुड़ा है। हर उत्सव और हर रूप…

Uttarakhand News: ‘घी संग्यान’ और ‘हरेला’: लुप्त हो रहे खेती और प्रकृति से जुड़े त्योहार !

Uttarakhand News: पहाड़ में अमूमन सभी त्योहारों का इतिहास खेती और प्रकृति से जुड़ा है। हर उत्सव और हर रूप में प्रकृति शामिल होती है। ऋतुओं के स्वागत से लेकर जीवन के हर रंग में प्रकृति मौजूद रहती है। आज हुई ‘घिसग्यान’ मतलब ‘घी संग्यान’ (घी खाने वाला त्योहार) है। घी संग्यान भी खेती से जुड़ा हुआ त्योहार है। आज के दिन घी खाना अनिवार्य हुआ। माना जाता है कि जो आज घी नहीं खाता वो अगले जन्म में ‘गनेल’ (घोंघा) के रूप में पैदा होता है। इसलिए बूढ़े से लेकर बच्चे तक किसी न किसी रूप में आज घी खाते हैं। आज के दिन जो बनता था, ईजा उसमें घी जरूर डालती थीं। साथ ही ईजा एक कटोरी में सबको घी पीने के लिए देती थीं।

घी खाने के साथ ‘ओग’ (नई फसलों-फल-फूलों का उपहार) भी निकाला जाता था। चौमास की जो भी फसल हो उसमें से ओग निकलता था। ओग को मंदिर में चढ़ाया जाता था। यह एक तरह से नयी फसल का भगवान को भोग चढ़ाना था। ओग की मान्यता भी इसी रूप में थी। सबसे पहले कुल देवता के लिए ओग निकाला जाता था। उसके बाद सारे देवताओं के मंदिर में चढ़ाया जाता था। ओग में मक्का, दाड़िम, अमरूद, चिचन, ककड़ी जो भी नई फसल हो उसे निकाला जाता था।

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हरेला त्योहार जहाँ बीज बोने के साथ वर्षा ऋतु के स्वागत का त्योहार होता है तो वहीं घिसग्यान अंकुरित हो चुकी फसलों में बालियों के पनप जाने और नए फल-फूलों के आगमन के उत्सव का त्योहार है।हर ऋतु की फसल पर सबका हक़ होता था। देवता, जानवर, प्रकृति, पशु- पक्षी सभी उसमें शामिल होते थे। त्योहार उसका माध्यम बनता था। तब ईजा कहती थीं- “च्यला ओग हैं देख ढैय् के लागि रहो लगुलु में” (बेटा उपहार के लिए देख तो बालियों पर क्या लगा है)। ईजा के कहते ही हम जो भी हो रहा होता था उसे तोड़ कर ले आते थे।

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आज के दिन ईजा ‘बेडू, लघड़’ ( पूरी के भीतर दाल भरकर ) और घी में ‘कसार’ बनाती थीं। उसके बाद हम गांव में संग्यान देने जाते थे। जिनके घर दूध देने वाली गाय-भैंस न हो उनके लिए घी और दही भी ले जाते थे। एक-एक घर में संग्यान देने का उत्साह भी अलग ही तरह का होता था। उसमें एक खुशी का भाव होता था।

गांव के त्योहार भी सामूहिक होते थे। त्योहार के दिन किसी भी तरह की कमी की भरपाई बिना कहे ही पूरी हो जाती थी। पहाड़ की यही संरचना उसकी सामूहिकता को बचाए हुए थी। त्योहारों के सामाजिक संरचनागत निहितार्थ भी थे। अगर किसी की संग्यान नहीं होती तो उन्हें सब के सब संग्यान पकाकर देते थे। मतलब कि जिनकी किसी भी कारण से नहीं होती उनको भी संग्यान के दिन संग्यान जैसा ही महसूस हो। इस बात का पूरा ख़्याल रखा जाता था।

पहाड़ और त्योहारों को इन सब चीजों से काटकर न देखा और न समझा जा सकता है। इनका एक इतिहास है तो वर्तमान भी है। उस इतिहास को पहाड़ की इजाओं ने वर्तमान में जीवंत रखा है। यही तो पहाड़ है न…
आप सभी खूब घ्यों खाव और स्वस्थ रहो।
घिसग्यान की हार्दिक शुभकामनाए

प्रकाश उप्रेती की फेसबुक वाल से साभार

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