Sunday, 24 November 2024

Mahashivratri : महाशिवरात्रि विशेष: समस्त शक्तियां के मूल आश्रय हैं भगवान शिव!

   विनय संकोची भगवान शिव (Lord Shiva) और उनका नाम समस्त संसार के मंगलों का मूल कारण है। वेद और…

Mahashivratri : महाशिवरात्रि विशेष: समस्त शक्तियां के मूल आश्रय हैं भगवान शिव!

 

 विनय संकोची

भगवान शिव (Lord Shiva) और उनका नाम समस्त संसार के मंगलों का मूल कारण है। वेद और आगमों में भगवान शिव को विशुद्ध ज्ञान स्वरूप बतलाया गया है। समस्त विद्याओं के मूल स्थान भगवान शिव ही हैं। समस्त शक्तियों के लिए मूल आश्रय एवं एक मात्र स्थान भी वही हैं। शिव, शंभू और शंकर यह तीन महामहेश्वर के मुख्य तीन नाम है और तीनों का अर्थ है – कल्याण की जन्मभूमि, संपूर्ण रूप से कल्याणमय और परमशांतमय, भगवान शिव ईश्वरों के भी ईश्वर और सभी देवताओं के भी परम आराध्य देव हैं। वे नित्य अनादि और अजन्मा है। भगवान मृत्युंजय अपने ऊपर के दो हाथों में स्थित दो कलशों के द्वारा आर्त व्यक्ति के सिर को अमृत जल से सराबोर कर रहे हैं और दो हाथों में क्रमशः मुद्रा तथा वलयाकार रुद्राक्ष माला लपेटे हुए हैं। दो हाथों को गोद में रख कर उस पर अमृत कलश लिए हुए हैं तथा अन्य दो हाथों से उसे ऊपर से ढके हुए हैं। इस प्रकार आठ हाथों से युक्त कैलाश पर्वत पर स्थित स्वच्छ कमल पर विराजमान और माथे पर बालचंद्र को मुकुट के रूप में धारण किए हुए तीन नेत्रों वाले महादेव का स्वरूप निराला है। उनके इस स्वरूप की कल्पना से ही शीश झुक जाता है।

एक बार कैलाश शिखर पर स्थित पार्वती जी ने भगवान शंकर से पूछा – “हे भगवन! धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इस चतुर्वर्ग के तुम्हीं हेतु हो। साधना से संतुष्ट हो मनुष्य को तुम्हीं इसे प्रदान करते हो। अतः यह जानने की इच्छा होती है कि किस कर्म, किस व्रत या किस प्रकार की तपस्या से तुम प्रसन्न होते हो।”

इसके उत्तर में भगवान शंकर ने कहा -“फाल्गुन के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तिथि को आश्रय कर जिस अंधकारमयी रजनी का उदय होता है उसी को शिवरात्रि कहते हैं। उस दिन जो उपवास करता है, वह निश्चय ही मुझे संतुष्ट करता है। उस दिन उपवास करने से मैं जैसा प्रसन्न होता हूं, वैसा स्नान, वस्त्र, धूप और पुष्प के अर्पण से भी नहीं होता।”

इस व्रत का उपवास ही प्रधान अंग है। तथापि रात्रि के चार प्रहरों में चार बार प्रथक-प्रथक पूजा का विधान भी प्राप्त होता है। प्रथम प्रहर में दुग्ध द्वारा शिव की ईशान मूर्ति को, द्वितीय प्रहर में दधि द्वारा अघोर मूर्ति को, तृतीय में घृत द्वारा वामदेव मूर्ति को एवं चतुर्थ में मधु द्वारा सद्यजात मूर्ति को स्नान कराकर उनका पूजन करना चाहिए। प्रभात में विसर्जन के बाद व्रत कथा सुनकर अमावस्या को यह कहते हुए पारण करना चाहिए – “हे शंकर! मैं नित्य संसार की यातना से दग्ध हो रहा हूं। इस व्रत से तुम मुझ पर प्रसन्न होओ। हे प्रभु! संतुष्ट होकर तुम मुझे ज्ञान दृष्टि प्रदान करो।”

व्रतकथा : वाराणसी का एक व्याध शिकार के लिए वन में गया। वहां अनेक मृगों का शिकार कर लौटते समय मार्ग में वह थका-मांदा किसी वृक्ष के नीचे सो गया। नींद टूटने पर देखता है कि संध्या हो गई है। चारों ओर अंधकार हो जाने से मार्ग नहीं सूझता था। उस समय घर लौटना असंभव देख वह हिंसक जंतुओं के आक्रमण के भय से वृक्ष के ऊपर चढ़कर उसी पर रात्रि बिताने का विचार करने लगा। उस दिन भाग्यवश शिवरात्रि थी और वह वृक्ष जिस पर वह बैठा था बेल का था तथा उसकी जड़ में एक अति प्राचीन शिवलिंग था। व्याध शिकार के लिए बड़े सवेरे घर से बाहर निकल पड़ा था और तब से उसने कुछ खाया नहीं था। इस प्रकार उसका उपवास भी स्वाभाविक ही हो गया। इस अद्भुत मणिकांचन संयोग से और महादेव के आशुतोष होने के कारण, वसंत की रात्रि में ओस की बूंदों से भीगा हुआ बिल्व पत्र व्याध की देह से लगकर शिव की उस लिंगमूर्ति पर जा गिरा। उससे आशुतोष के तोष का पार न रहा। फल स्वरुप आजीवन दुष्कर्म करने पर भी अंत काल में उस व्याध को शिवलोक की प्राप्ति हुई।

शिवरात्रि व्रत रात्रि को ही क्यों होता है? शास्त्र में दिवस और रात्रि को नित्य सृष्टि और नित्य प्रलय कहा गया है। एक से अनेक और कारण से कार्य की ओर जाना ही सृष्टि है और ठीक इसके विपरीत अर्थात अनेक से एक और कार्य से कारण की ओर जाना ही प्रलय है। दिन में हमारा मन, प्राण और इंद्रियां हमारी आत्मा के समीप से भीतर से बाहर विषय-राज्य की ओर दौड़ती हैं और विषयानंद में ही मगन रहती हैं। पुनः रात्रि में विषयों को छोड़कर आत्मा की ओर, अनेक को छोड़कर एक की ओर, शिव की ओर प्रवृत्त होती हैं। हमारा मन दिन में प्रकाश की ओर, सृष्टि की ओर, भेदभाव की ओर, अनेक की ओर, जगत की ओर, कर्मकांड की ओर जाता है और पुनः रात्रि में लौटता है अंधकार की ओर, लय की ओर, अभेद की ओर, एक की ओर, परमात्मा की ओर और प्रेम की ओर। दिन में कारण से कार्य की ओर जाता है और रात्रि में कार्य से कारण की ओर लौट आता है। इसी से दिन सृष्टि का और रात्रि प्रलय का द्योतक है। ‘नेति नेति’ की प्रक्रिया के द्वारा समस्त भूतों का अस्तित्व मिटा कर समाधि योग में परमात्मा से आत्म समाधान की साधना ही शिव की साधना है, इसीलिए रात्रि ही इसका मुख्य काल है, अनुकूल समय है।

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