क्या सावरकर के बहाने इस सच का सामना करने से डर रही कांग्रेस!
Rajnath Singh on Veer Savarkar
भारत
चेतना मंच
02 Dec 2025 03:11 AM
सावरकर का नाम आते ही राजनीतिक हलके में तूफान मच जाता है। कुछ लोग विनायक दामोदर सावरकर का नाम सुनते ही भड़क जाते हैं? इसकी वजह सिर्फ विचारधारा नहीं है, इसके लिए कुछ और चीजें भी जिम्मेदार हैं।
आजादी की लड़ाई में भी शामिल थीं दो विचाराधाराएं
भारत की आजादी में योगदान देने वाले स्वतंत्रता सेनानियों को मोटे तौर पर दो वर्गों में बांटा जाता है। नरम दल और गरम दल। महात्मा गांधी, पंडित नेहरू, गोपाल कृष्ण गोखले जैसे नेताओं को नरम दल कहा जाता था और लाल, बाल, पाल को गरम दल का समर्थक माना जाता था।
भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू, सुभाष चंद्र बोस या सावरकर भी गरम दल का ही हिस्सा माने जाते थे। दोनों ही भारत को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराना चाहते थे। लेकिन, उनकी विचारधारा में अंतर था। नरम दल का मानना था कि अंग्रेज कितना भी अत्याचार क्यों न करें हमें उनके खिलाफ हिंसा नहीं करनी चाहिए। जबकि, गरम दल अंग्रेजों के खिलाफ हथियार उठाने को सही मानता था।
इतिहास लेखन पर उठते रहे हैं ये सवाल
आजादी के बाद जो इतिहास लिखा गया उसे लेकर यह सवाल उठता रहा है कि देश को आजादी दिलाने में किसने कितना योगदान दिया। इतिहासकारों पर यह आरोप लगा कि उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में कुछ नेताओं को खास तवज्जो दी। जबकि, स्वतंत्रता के लिए यातनाएं सहने और जान गंवाने के बावजूद कुछ नेताओं का जिक्र भर करके छोड़ दिया गया।
यानी कुछ नेताओं को हीरो और कुछ को साइड हीरो बना कर छोड़ दिया गया। जबकि, आजादी के तुरंत बाद भारत का विभाजन हुआ। इस विभिषिका में लाखों की मौत हुई और हजारों परिवार विस्थापित हुए।
हीरो और विलेन बनाने का लोभ
जाहिर है कि इसके लिए किसी न किसी को विलेन बनाना भी जरूरी था। आजादी की लड़ाई और बंटवारे के दौरान जो कुछ भी अच्छा हुआ उसका श्रेय कुछ खास नेताओं को दिया गया। इस दौर में होने वाली हर बुरी चीज का ठीकरा कुछ नेताओं और उनसे जुड़ी विचारधारा पर फोड़ दिया गया। जाहिर है, वक्त हमेशा एक सा नहीं रहता।
समय बितने के साथ यह मांग जोर पकड़ने लगी कि इतिहास में जो कुछ भी लिखा है, क्या वह पूरा सच है? या इतिहासकारों से भी कुछ गलतियां हुई हैं जिनमें सुधार की जरूरत है?
असल में सावरकर के बारे में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के बयान के बाद उठे विवाद के मूल में यही प्रश्न है। पृथ्वी का चक्कर सूर्य लगाता है या सूर्य के चारों ओर धरती घूमती है? विज्ञान के इस सवाल पर सदियों तक विवाद रहा। क्योंकि, दोनों के समर्थक खुद को सही और दूसरे को गलत मानते थे। विज्ञान ने तरक्की की और यह साबित हुआ कि सूर्य तो अपनी जगर पर स्थिर है।
क्या यह सवाल नहीं उठना चाहिए?
जब विज्ञान के किसी सवाल पर विचार या पुनर्विचार हो सकता है, तो इतिहास के बारे में उठने वाले सवाल पर इतना हंगामा क्यों? किसी सवाल को सिर्फ इस आधार पर खारिज कर देना कि इससे सांप्रदायिक शक्तियों को बढ़ावा मिलेगा, क्या सही है?
लंबे समय तक यह कहा जाता रहा कि अयोध्या मामले का फैसला अगर किसी एक समुदाय के पक्ष में आया, तो देश में आग लग जाएगी। क्या ऐसा हुआ? कहा जाता रहा कि अगर कश्मीर से धारा 370 हटाई गई, तो कश्मीर जल उठेगा। क्या ऐसा हुआ? किसी विवाद को सुलझाने के बजाए, उसे अनजाने डर के बस्ते में दबाए रखना क्या सही है?
देश को आजाद हुए 70 साल से ज्यादा हो चुके हैं। लगभग तीन पीढ़ियों से लोग एक-दूसरे के साथ रहने के आदी हो चुके हैं। शायद वक्त आ गया है कि उन सवालों पर खुलकर बात हो जिसे अब तब दबाया या छुपाया गया। चाहे वह सवाल इतिहास, भूगोल, विज्ञान, धर्म या आस्था किसी से भी जुड़ा क्यों न हो।
-संजीव श्रीवास्तव
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भारत
चेतना मंच
02 Dec 2025 03:11 AM
सावरकर का नाम आते ही राजनीतिक हलके में तूफान मच जाता है। कुछ लोग विनायक दामोदर सावरकर का नाम सुनते ही भड़क जाते हैं? इसकी वजह सिर्फ विचारधारा नहीं है, इसके लिए कुछ और चीजें भी जिम्मेदार हैं।
आजादी की लड़ाई में भी शामिल थीं दो विचाराधाराएं
भारत की आजादी में योगदान देने वाले स्वतंत्रता सेनानियों को मोटे तौर पर दो वर्गों में बांटा जाता है। नरम दल और गरम दल। महात्मा गांधी, पंडित नेहरू, गोपाल कृष्ण गोखले जैसे नेताओं को नरम दल कहा जाता था और लाल, बाल, पाल को गरम दल का समर्थक माना जाता था।
भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू, सुभाष चंद्र बोस या सावरकर भी गरम दल का ही हिस्सा माने जाते थे। दोनों ही भारत को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराना चाहते थे। लेकिन, उनकी विचारधारा में अंतर था। नरम दल का मानना था कि अंग्रेज कितना भी अत्याचार क्यों न करें हमें उनके खिलाफ हिंसा नहीं करनी चाहिए। जबकि, गरम दल अंग्रेजों के खिलाफ हथियार उठाने को सही मानता था।
इतिहास लेखन पर उठते रहे हैं ये सवाल
आजादी के बाद जो इतिहास लिखा गया उसे लेकर यह सवाल उठता रहा है कि देश को आजादी दिलाने में किसने कितना योगदान दिया। इतिहासकारों पर यह आरोप लगा कि उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में कुछ नेताओं को खास तवज्जो दी। जबकि, स्वतंत्रता के लिए यातनाएं सहने और जान गंवाने के बावजूद कुछ नेताओं का जिक्र भर करके छोड़ दिया गया।
यानी कुछ नेताओं को हीरो और कुछ को साइड हीरो बना कर छोड़ दिया गया। जबकि, आजादी के तुरंत बाद भारत का विभाजन हुआ। इस विभिषिका में लाखों की मौत हुई और हजारों परिवार विस्थापित हुए।
हीरो और विलेन बनाने का लोभ
जाहिर है कि इसके लिए किसी न किसी को विलेन बनाना भी जरूरी था। आजादी की लड़ाई और बंटवारे के दौरान जो कुछ भी अच्छा हुआ उसका श्रेय कुछ खास नेताओं को दिया गया। इस दौर में होने वाली हर बुरी चीज का ठीकरा कुछ नेताओं और उनसे जुड़ी विचारधारा पर फोड़ दिया गया। जाहिर है, वक्त हमेशा एक सा नहीं रहता।
समय बितने के साथ यह मांग जोर पकड़ने लगी कि इतिहास में जो कुछ भी लिखा है, क्या वह पूरा सच है? या इतिहासकारों से भी कुछ गलतियां हुई हैं जिनमें सुधार की जरूरत है?
असल में सावरकर के बारे में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के बयान के बाद उठे विवाद के मूल में यही प्रश्न है। पृथ्वी का चक्कर सूर्य लगाता है या सूर्य के चारों ओर धरती घूमती है? विज्ञान के इस सवाल पर सदियों तक विवाद रहा। क्योंकि, दोनों के समर्थक खुद को सही और दूसरे को गलत मानते थे। विज्ञान ने तरक्की की और यह साबित हुआ कि सूर्य तो अपनी जगर पर स्थिर है।
क्या यह सवाल नहीं उठना चाहिए?
जब विज्ञान के किसी सवाल पर विचार या पुनर्विचार हो सकता है, तो इतिहास के बारे में उठने वाले सवाल पर इतना हंगामा क्यों? किसी सवाल को सिर्फ इस आधार पर खारिज कर देना कि इससे सांप्रदायिक शक्तियों को बढ़ावा मिलेगा, क्या सही है?
लंबे समय तक यह कहा जाता रहा कि अयोध्या मामले का फैसला अगर किसी एक समुदाय के पक्ष में आया, तो देश में आग लग जाएगी। क्या ऐसा हुआ? कहा जाता रहा कि अगर कश्मीर से धारा 370 हटाई गई, तो कश्मीर जल उठेगा। क्या ऐसा हुआ? किसी विवाद को सुलझाने के बजाए, उसे अनजाने डर के बस्ते में दबाए रखना क्या सही है?
देश को आजाद हुए 70 साल से ज्यादा हो चुके हैं। लगभग तीन पीढ़ियों से लोग एक-दूसरे के साथ रहने के आदी हो चुके हैं। शायद वक्त आ गया है कि उन सवालों पर खुलकर बात हो जिसे अब तब दबाया या छुपाया गया। चाहे वह सवाल इतिहास, भूगोल, विज्ञान, धर्म या आस्था किसी से भी जुड़ा क्यों न हो।
-संजीव श्रीवास्तव
जब भी कोई चुनाव भारतीय जनता पार्टी की प्रतिष्ठा को प्रभावित करने वाला प्रतीत होता है, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कोई विवादित मुद्दा लेकर आ खड़ा होता है और वही मुद्दा भाजपा का तारणहार बन जाता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि विपक्ष इस मुद्दे से उत्तेजित होता है और उसके उत्तेजना का लाभ संघ के माध्यम से भाजपा को मिल जाता है।...और यह सब तब होता है, जब कि संघ स्वयं को गैर राजनीतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक संगठन बताते नहीं थकता है।
संघ प्रमुख मोहन भागवत एक नए विवादित बयान के साथ सामने आए हैं। उन्होंने अपने ताजा बयान में कहा है कि वीर सावरकर को बदनाम करने वाले अभी और आगे बढ़ेंगे, अभी कुछ और महान विभूतियों को बदनाम करने की साजिश की जाएगी। इस संदर्भ में भागवत ने तीन नाम बताए - स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद सरस्वती और योगी अरविंद।
उल्लेखनीय है कि इन तीन महान विभूतियों को सावरकर से जोड़कर संघ प्रमुख ने पेश किया है। सावरकर को स्वामी विवेकानंद, दयानंद सरस्वती और योगी अरविंद के समकक्ष खड़ा करने का यह एक ऐसा प्रयास है, जिसे किसी भी हालत में स्वीकार नहीं किया जा सकता है।
सावरकर को राष्ट्रवादी और दूरदर्शी बताते हुए संघ प्रमुख ने यहां तक कह डाला कि यह सावरकर युग है, यह युग देशभक्ति का है, यह कर्तव्य और भागीदारी को सिखाने वाला युग है। संघ प्रमुख ने यह नहीं बताया कि स्वतंत्रता संग्राम में संघ कथित रूप से अपने कर्तव्य के प्रति विमुख क्यों था?
मोहन भागवत ने कहा कि चूंकि सावरकर स्वामी दयानंद, स्वामी विवेकानंद और योगी अरविंद से प्रभावित थे इसलिए इन तीनों विभूतियों को बदनाम करने की साजिश रची जाएगी। यह तर्क नहीं विशुद्ध कुतर्क है। यदि कोई शिष्य अथवा अनुयायी अपने शिक्षक अथवा गुरु की शिक्षा व विचारों के अनुसार व्यवहार ना करें, तो निंदा आलोचना तो शिष्य की ही होती है न कि गुरु अथवा शिक्षक की। जिन तीन महान विभूतियों के नाम संघ प्रमुख ने लिए उनके विचारों से देश-विदेश के करोड़ों करोड़ लोग प्रभावित हुए हैं। इन महान आत्माओं की शिक्षाओं को आत्मसात करने वाले असंख्य लोगों के जीवन में सकारात्मक परिवर्तन आए हैं। प्रश्न उठता है कि निंदा और आलोचना सावरकर की ही क्यों होती है बाकी लोगों की क्यों नहीं? एक व्यक्ति की आलोचना से तीन-तीन महान आध्यात्मिक विभूतियों को टारगेट किए जाने की आशंका जताने के पीछे संघ प्रमुख का कोई तो आज एजेंडा जरूर है। भागवत या संघ के अन्य विचारकों, प्रचारकों के मन में यह विचार आज तक क्यों नहीं आया कि सावरकर की आलोचना तो देश की आजादी से पहले और आजादी के बाद से लगातार होती रही है, सावरकर स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद सरस्वती और योगी अरविंद के विचारों से प्रभावित तो यह रहस्योद्घाटन आज से पहले संघ या सावरकर समर्थकों ने क्यों नहीं किया?
संघ, भाजपा के लिए सावरकर को एक महामानव और देश रक्षक के रूप में खड़ा करना चाहता है। सावरकर को उन महान विभूतियों से जोड़कर पेश करना चाहता है जो हिंदुत्व के पैरोकार थे। लेकिन उनका हिंदुत्व सावरकर के हिंदू वाद से बिल्कुल मेल नहीं खाता है। तीनों महान विभूतियों के साथ सावरकर का नाम जोड़कर सावरकर के हिंदुत्व को उनके हिंदू वाद से प्रभावित बता कर संघ एक नया खेल रचना चाहता है ताकि उसका लाभ निकट भविष्य में भाजपा को मिले। अब जल्द यह भी देखने को मिल सकता है कि कुछ लोग स्वामी दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद और योगी अरविंद की निंदा आलोचना करते मिलें। यह भी संघ का ही एक गेम प्लान होगा। ये निंदक संघ की विचारधारा के प्रचारक, विस्तारक और पोषक भी हो सकते हैं, जो पर्दे के पीछे रहकर संघ का काम करते हैं। रही सही कसर सोशल मीडिया पर बैठे भाजपा समर्थक पूरी कर देंगे। सावरकर महान विभूतियों के विचारों से प्रभावित होंगे, लेकिन इस बात के लिए उन महान विभूतियों को कोई बदनाम करेगा, यह दलील खोखली है, निराधार है।
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भारत
चेतना मंच
02 Dec 2025 12:08 AM
विनय संकोची
जब भी कोई चुनाव भारतीय जनता पार्टी की प्रतिष्ठा को प्रभावित करने वाला प्रतीत होता है, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कोई विवादित मुद्दा लेकर आ खड़ा होता है और वही मुद्दा भाजपा का तारणहार बन जाता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि विपक्ष इस मुद्दे से उत्तेजित होता है और उसके उत्तेजना का लाभ संघ के माध्यम से भाजपा को मिल जाता है।...और यह सब तब होता है, जब कि संघ स्वयं को गैर राजनीतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक संगठन बताते नहीं थकता है।
संघ प्रमुख मोहन भागवत एक नए विवादित बयान के साथ सामने आए हैं। उन्होंने अपने ताजा बयान में कहा है कि वीर सावरकर को बदनाम करने वाले अभी और आगे बढ़ेंगे, अभी कुछ और महान विभूतियों को बदनाम करने की साजिश की जाएगी। इस संदर्भ में भागवत ने तीन नाम बताए - स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद सरस्वती और योगी अरविंद।
उल्लेखनीय है कि इन तीन महान विभूतियों को सावरकर से जोड़कर संघ प्रमुख ने पेश किया है। सावरकर को स्वामी विवेकानंद, दयानंद सरस्वती और योगी अरविंद के समकक्ष खड़ा करने का यह एक ऐसा प्रयास है, जिसे किसी भी हालत में स्वीकार नहीं किया जा सकता है।
सावरकर को राष्ट्रवादी और दूरदर्शी बताते हुए संघ प्रमुख ने यहां तक कह डाला कि यह सावरकर युग है, यह युग देशभक्ति का है, यह कर्तव्य और भागीदारी को सिखाने वाला युग है। संघ प्रमुख ने यह नहीं बताया कि स्वतंत्रता संग्राम में संघ कथित रूप से अपने कर्तव्य के प्रति विमुख क्यों था?
मोहन भागवत ने कहा कि चूंकि सावरकर स्वामी दयानंद, स्वामी विवेकानंद और योगी अरविंद से प्रभावित थे इसलिए इन तीनों विभूतियों को बदनाम करने की साजिश रची जाएगी। यह तर्क नहीं विशुद्ध कुतर्क है। यदि कोई शिष्य अथवा अनुयायी अपने शिक्षक अथवा गुरु की शिक्षा व विचारों के अनुसार व्यवहार ना करें, तो निंदा आलोचना तो शिष्य की ही होती है न कि गुरु अथवा शिक्षक की। जिन तीन महान विभूतियों के नाम संघ प्रमुख ने लिए उनके विचारों से देश-विदेश के करोड़ों करोड़ लोग प्रभावित हुए हैं। इन महान आत्माओं की शिक्षाओं को आत्मसात करने वाले असंख्य लोगों के जीवन में सकारात्मक परिवर्तन आए हैं। प्रश्न उठता है कि निंदा और आलोचना सावरकर की ही क्यों होती है बाकी लोगों की क्यों नहीं? एक व्यक्ति की आलोचना से तीन-तीन महान आध्यात्मिक विभूतियों को टारगेट किए जाने की आशंका जताने के पीछे संघ प्रमुख का कोई तो आज एजेंडा जरूर है। भागवत या संघ के अन्य विचारकों, प्रचारकों के मन में यह विचार आज तक क्यों नहीं आया कि सावरकर की आलोचना तो देश की आजादी से पहले और आजादी के बाद से लगातार होती रही है, सावरकर स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद सरस्वती और योगी अरविंद के विचारों से प्रभावित तो यह रहस्योद्घाटन आज से पहले संघ या सावरकर समर्थकों ने क्यों नहीं किया?
संघ, भाजपा के लिए सावरकर को एक महामानव और देश रक्षक के रूप में खड़ा करना चाहता है। सावरकर को उन महान विभूतियों से जोड़कर पेश करना चाहता है जो हिंदुत्व के पैरोकार थे। लेकिन उनका हिंदुत्व सावरकर के हिंदू वाद से बिल्कुल मेल नहीं खाता है। तीनों महान विभूतियों के साथ सावरकर का नाम जोड़कर सावरकर के हिंदुत्व को उनके हिंदू वाद से प्रभावित बता कर संघ एक नया खेल रचना चाहता है ताकि उसका लाभ निकट भविष्य में भाजपा को मिले। अब जल्द यह भी देखने को मिल सकता है कि कुछ लोग स्वामी दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद और योगी अरविंद की निंदा आलोचना करते मिलें। यह भी संघ का ही एक गेम प्लान होगा। ये निंदक संघ की विचारधारा के प्रचारक, विस्तारक और पोषक भी हो सकते हैं, जो पर्दे के पीछे रहकर संघ का काम करते हैं। रही सही कसर सोशल मीडिया पर बैठे भाजपा समर्थक पूरी कर देंगे। सावरकर महान विभूतियों के विचारों से प्रभावित होंगे, लेकिन इस बात के लिए उन महान विभूतियों को कोई बदनाम करेगा, यह दलील खोखली है, निराधार है।
नई दिल्ली। भारत के किसी भी राजनेता के अरुणाचल दौरे के बाद न जाने चीन क्यों छटपटाने लगता है। और उसके बाद उसकी तरफ से जारी बयान शांति वार्ताओं को बाधित करने का ही काम करते हैं। दरअसल उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू बीते 9 अक्टूबर को अरुणाचल प्रदेश के दौरे पर थे। इस यात्रा के दौरान उन्होंने राज्य विधानसभा के स्पेशल सत्र को भी संबोधित किया था। विशेष सत्र को संबोधित करते हुए उपराष्ट्रपति ने अरुणाचल प्रदेश की विरासत पर विस्तार से चर्चा की थी और कहा था कि यहां अब हाल के वर्षों में परिवर्तन की दिशा और विकास की गति में तेजी के रूप में नया परिवर्तन देखने को मिल रहा है।
उपराष्ट्रपति के इस दौरे से चीन बुरी तरह तिलमिलाया हुआ है। उपराष्ट्रपति के दौरे पर अपनी आपत्ति जताते हुए चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता झाओ लिजयान ने कहा कि, 'सीमा मुद्दे पर चीन की स्थिति सुसंगत और स्पष्ट है। चीनी सरकार कभी भी भारतीय पक्ष द्वारा एकतरफा और अवैध रूप से स्थापित तथाकथित अरुणाचल प्रदेश को मान्यता नहीं देती है, और संबंधित क्षेत्र में भारतीय नेताओं की यात्राओं का कड़ा विरोध करती है। हम भारतीय पक्ष से चीन की प्रमुख चिंताओं का ईमानदारी से सम्मान करने, सीमा मुद्दे को जटिल और विस्तारित करने वाली कोई भी कार्रवाई बंद करने और आपसी विश्वास और द्विपक्षीय संबंधों को कम करने से बचने का आग्रह करते हैं।'चीनी प्रवक्ता ने आगे कहा कि इसके बजाय भारत को चीन-भारत सीमा क्षेत्रों में शांति और स्थिरता बनाए रखने के लिए वास्तविक ठोस कार्रवाई करनी चाहिए और द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत और स्थिर विकास को पटरी पर लाने में मदद करनी चाहिए।
चीन के बेतुके बयान पर पलटवार करते हुए भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने कहा, 'भारत के एक राज्य में देश के एक नेता के जाने पर चीन की आपत्ति बेवजह और भारतीय नागरिकों के समझ से परे है। हमने चीन के आधिकारिक प्रवक्ता की तरफ से आए बयान को देखा है। हम ऐसी बातों को खारिज करते हैं। अरुणाचल प्रदेश भारत का अभिन्न हिस्सा है।' उन्होंने कहा कि जैसा कि हमने पहले उल्लेख किया है कि पश्चिमी क्षेत्र में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) से लगे इलाकों में चीन की ओर से यथास्थिति को बदलने के एकतरफा प्रयासों के कारण ही दोनों पक्षों में गतिरोध बढ़ा है। बागची ने यह भी कहा कि हम उम्मीद करते हैं कि चीनी पक्ष असंबंधित मुद्दों को जोड़ने की कोशिश करने के बजाय द्विपक्षीय समझौतों और प्रोटोकॉल का पूरी तरह से पालन करते हुए पूर्वी लद्दाख में एलएसी के साथ शेष मुद्दों के जल्द समाधान की दिशा में काम करेगा।
बता दें कि अरुणाचल प्रदेश को लेकर चीन से भारत का विवाद काफी पुराना है। ड्रैगन अरुणाचल प्रदेश को साउथ तिब्बत का हिस्सा मानता है। दोनों देशों के बीच 3,500 किमोलीटर (2,174 मील) लंबी सीमा है। सीमा विवाद के कारण दोनों देश 1962 में युद्ध के मैदान में भी आमने-सामने खड़े हो चुके हैं, लेकिन अभी भी सीमा पर मौजूद कुछ इलाकों को लेकर विवाद है जो कभी-कभी तनाव की वजह बनते हैं।
भारत
चेतना मंच
28 Nov 2025 05:00 PM
नई दिल्ली। भारत के किसी भी राजनेता के अरुणाचल दौरे के बाद न जाने चीन क्यों छटपटाने लगता है। और उसके बाद उसकी तरफ से जारी बयान शांति वार्ताओं को बाधित करने का ही काम करते हैं। दरअसल उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू बीते 9 अक्टूबर को अरुणाचल प्रदेश के दौरे पर थे। इस यात्रा के दौरान उन्होंने राज्य विधानसभा के स्पेशल सत्र को भी संबोधित किया था। विशेष सत्र को संबोधित करते हुए उपराष्ट्रपति ने अरुणाचल प्रदेश की विरासत पर विस्तार से चर्चा की थी और कहा था कि यहां अब हाल के वर्षों में परिवर्तन की दिशा और विकास की गति में तेजी के रूप में नया परिवर्तन देखने को मिल रहा है।
उपराष्ट्रपति के इस दौरे से चीन बुरी तरह तिलमिलाया हुआ है। उपराष्ट्रपति के दौरे पर अपनी आपत्ति जताते हुए चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता झाओ लिजयान ने कहा कि, 'सीमा मुद्दे पर चीन की स्थिति सुसंगत और स्पष्ट है। चीनी सरकार कभी भी भारतीय पक्ष द्वारा एकतरफा और अवैध रूप से स्थापित तथाकथित अरुणाचल प्रदेश को मान्यता नहीं देती है, और संबंधित क्षेत्र में भारतीय नेताओं की यात्राओं का कड़ा विरोध करती है। हम भारतीय पक्ष से चीन की प्रमुख चिंताओं का ईमानदारी से सम्मान करने, सीमा मुद्दे को जटिल और विस्तारित करने वाली कोई भी कार्रवाई बंद करने और आपसी विश्वास और द्विपक्षीय संबंधों को कम करने से बचने का आग्रह करते हैं।'चीनी प्रवक्ता ने आगे कहा कि इसके बजाय भारत को चीन-भारत सीमा क्षेत्रों में शांति और स्थिरता बनाए रखने के लिए वास्तविक ठोस कार्रवाई करनी चाहिए और द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत और स्थिर विकास को पटरी पर लाने में मदद करनी चाहिए।
चीन के बेतुके बयान पर पलटवार करते हुए भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने कहा, 'भारत के एक राज्य में देश के एक नेता के जाने पर चीन की आपत्ति बेवजह और भारतीय नागरिकों के समझ से परे है। हमने चीन के आधिकारिक प्रवक्ता की तरफ से आए बयान को देखा है। हम ऐसी बातों को खारिज करते हैं। अरुणाचल प्रदेश भारत का अभिन्न हिस्सा है।' उन्होंने कहा कि जैसा कि हमने पहले उल्लेख किया है कि पश्चिमी क्षेत्र में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) से लगे इलाकों में चीन की ओर से यथास्थिति को बदलने के एकतरफा प्रयासों के कारण ही दोनों पक्षों में गतिरोध बढ़ा है। बागची ने यह भी कहा कि हम उम्मीद करते हैं कि चीनी पक्ष असंबंधित मुद्दों को जोड़ने की कोशिश करने के बजाय द्विपक्षीय समझौतों और प्रोटोकॉल का पूरी तरह से पालन करते हुए पूर्वी लद्दाख में एलएसी के साथ शेष मुद्दों के जल्द समाधान की दिशा में काम करेगा।
बता दें कि अरुणाचल प्रदेश को लेकर चीन से भारत का विवाद काफी पुराना है। ड्रैगन अरुणाचल प्रदेश को साउथ तिब्बत का हिस्सा मानता है। दोनों देशों के बीच 3,500 किमोलीटर (2,174 मील) लंबी सीमा है। सीमा विवाद के कारण दोनों देश 1962 में युद्ध के मैदान में भी आमने-सामने खड़े हो चुके हैं, लेकिन अभी भी सीमा पर मौजूद कुछ इलाकों को लेकर विवाद है जो कभी-कभी तनाव की वजह बनते हैं।