Lucknow Chikankari : लखनऊ की चिकनकारी का दुनिया मे है अपना खास मुकाम

चिकनकारी का इतिहास
भारतीय चिकनकारी का काम तीसरी शताब्दी से होता रहा है। चिकन शब्द शायद फ़ारसी के चिकिन या चिकीन शब्द से लिया गया है जिसका मतलब होता है कपड़े पर एक तरह की कशीदाकारी। लखनऊ में चिकनकारी का काम दो सौ सालों से भी पहले से होता रहा है। लेकिन किवदंतियों के अनुसार 17वीं शताब्दी में मुग़ल बादशाह जहांगीर की बेगम नूरजहां तुर्क कशीदाकारी से बहुत प्रभावित थीं और तभी से भारत में चिकनकारी कला का आरंभ हुआ। कढ़ाई का काम ज़्यादातर गाँवों में रहने वाली महिलाएं करती हैं जोकि छपाई के ऊपर सुई और धागों की मदद से कढ़ाई करती ।कढ़ाई के लिये अधिकतर मलमल के कपड़ों का इस्तोमाल होता था क्योंकि मलमल, सूखे और उमस भरे मौसम में सुकून देता था।हालंकि आज लखनऊ चिकनकारी का गढ़ है लेकिन पश्चिम बंगाल और अवध ने भी इसके विकास में भूमिका अदा की थी।मुर्रे, जाली, बखिया, टेप्ची, टप्पा आदि ३६ प्रकार के चिकन की शैलियां होती हैं।नवाबों के समय में इस कढ़ाईने अपना थोड़ा रंग-रूप बदला और चिकनकारी के साथ सोने और चांदी के तारों से मुकेश का काम भी किया जाने लगा। ऐसा लगभग मुश्किल से ही होता है कि लखनऊ चिकनकारी का लिबास हो और उस पर फूलों के पैटर्न या रुपांकन न हों। फूलों की क़िस्म और इन्हें बनाने की शैलियां फ़ैशन के चलन के साथ बदलती रही हैं लेकिन इनकी जटिलता और नज़ाकत जस की तस रही है।कढ़ाई का तरीका:
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Lucknow Chikankari :[/caption]
Lucknow Chikankari : सबसे पहले कपड़े पर लकड़ी के ब्लॉक से डिजाइन उकेरी जाती हैं। इसके लिए नील और व्हाइट डाई का इस्तेमाल होता है।
छपाई किये गये कपड़े पर कढ़ाई का काम शुरू होता है। कढ़ाई के लिये सूती के सफेद धागों का प्रयोग किया जाता है ।मगर बदलते ट्रेंड के साथ धागों का रंग बदलता चला गया। आज लगभग हर रंग के धागे से चिकनकारी की जाती है।कढ़ाई का काम पूरा होने के बाद पैटर्न की आउट लाइन को हटाने के लिये कपड़े को पानी में भिगोया जाता है। इसके बाद कपड़े को कड़ा करने के लिये इसमें कलफ़ लगाया जाता है। कलफ़,कपड़े की क़िस्म के अनुसार ही लगाया जाता है।
कीमत 500 रुपए से लेकर 5000 तक
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Lucknow Chikankari : लखनऊ में आपको 500 रुपए से लेकर 5000 रुपए तक और इससे भी कीमती चिकनकारी के नमूने देखने को मिल जाएंगे। इसके अलावा आप लखनऊ की सबसे प्रसिद्ध और लोकप्रिय मार्केट अमीनाबाद और आलमबाग से भी चिकनकारी किए गए कपड़े खरीद सकते हैं। पहले मलमल, आर्गंडी और लोन कपड़े पर ही चिकनकारी होती थी। मगर आज के लोगों की पसंद को ख्याल में रखते हुए जोर्जेट, शिफान, कॉटन और डोरिया कोटा कपड़े पर भी की जाने लगी है। पहले जहां केवल फूल और पट्टी की डिजाइनिंग होती थीं वहां भी अब फैंसी डिजाइन बनने लगे है ।
चिकनकारी कई तरह से हुआ करती थी जो धीरे धीरे जमाना गुजरने के साथ लुप्त होती जा रही है। पैसों की तंगी और मुनासिब मेहनताना न मिलने की वजह से पीढ़ी दर पीढ़ी आगे न बढ़ सका और लुप्त हो गया।लेकिन बदलावों के बावजूद इसका मूल स्वरुप आज भी इसके जन्मस्थान लखनऊ में रचा बसा है।
Gujrat Patola Saree : गुजरात का पटोला क्यों है खास,किसी धरोहर से कम नही है इसकी कला
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चिकनकारी का इतिहास
भारतीय चिकनकारी का काम तीसरी शताब्दी से होता रहा है। चिकन शब्द शायद फ़ारसी के चिकिन या चिकीन शब्द से लिया गया है जिसका मतलब होता है कपड़े पर एक तरह की कशीदाकारी। लखनऊ में चिकनकारी का काम दो सौ सालों से भी पहले से होता रहा है। लेकिन किवदंतियों के अनुसार 17वीं शताब्दी में मुग़ल बादशाह जहांगीर की बेगम नूरजहां तुर्क कशीदाकारी से बहुत प्रभावित थीं और तभी से भारत में चिकनकारी कला का आरंभ हुआ। कढ़ाई का काम ज़्यादातर गाँवों में रहने वाली महिलाएं करती हैं जोकि छपाई के ऊपर सुई और धागों की मदद से कढ़ाई करती ।कढ़ाई के लिये अधिकतर मलमल के कपड़ों का इस्तोमाल होता था क्योंकि मलमल, सूखे और उमस भरे मौसम में सुकून देता था।हालंकि आज लखनऊ चिकनकारी का गढ़ है लेकिन पश्चिम बंगाल और अवध ने भी इसके विकास में भूमिका अदा की थी।मुर्रे, जाली, बखिया, टेप्ची, टप्पा आदि ३६ प्रकार के चिकन की शैलियां होती हैं।नवाबों के समय में इस कढ़ाईने अपना थोड़ा रंग-रूप बदला और चिकनकारी के साथ सोने और चांदी के तारों से मुकेश का काम भी किया जाने लगा। ऐसा लगभग मुश्किल से ही होता है कि लखनऊ चिकनकारी का लिबास हो और उस पर फूलों के पैटर्न या रुपांकन न हों। फूलों की क़िस्म और इन्हें बनाने की शैलियां फ़ैशन के चलन के साथ बदलती रही हैं लेकिन इनकी जटिलता और नज़ाकत जस की तस रही है।कढ़ाई का तरीका:
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Lucknow Chikankari :[/caption]
Lucknow Chikankari : सबसे पहले कपड़े पर लकड़ी के ब्लॉक से डिजाइन उकेरी जाती हैं। इसके लिए नील और व्हाइट डाई का इस्तेमाल होता है।
छपाई किये गये कपड़े पर कढ़ाई का काम शुरू होता है। कढ़ाई के लिये सूती के सफेद धागों का प्रयोग किया जाता है ।मगर बदलते ट्रेंड के साथ धागों का रंग बदलता चला गया। आज लगभग हर रंग के धागे से चिकनकारी की जाती है।कढ़ाई का काम पूरा होने के बाद पैटर्न की आउट लाइन को हटाने के लिये कपड़े को पानी में भिगोया जाता है। इसके बाद कपड़े को कड़ा करने के लिये इसमें कलफ़ लगाया जाता है। कलफ़,कपड़े की क़िस्म के अनुसार ही लगाया जाता है।
कीमत 500 रुपए से लेकर 5000 तक
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Lucknow Chikankari : लखनऊ में आपको 500 रुपए से लेकर 5000 रुपए तक और इससे भी कीमती चिकनकारी के नमूने देखने को मिल जाएंगे। इसके अलावा आप लखनऊ की सबसे प्रसिद्ध और लोकप्रिय मार्केट अमीनाबाद और आलमबाग से भी चिकनकारी किए गए कपड़े खरीद सकते हैं। पहले मलमल, आर्गंडी और लोन कपड़े पर ही चिकनकारी होती थी। मगर आज के लोगों की पसंद को ख्याल में रखते हुए जोर्जेट, शिफान, कॉटन और डोरिया कोटा कपड़े पर भी की जाने लगी है। पहले जहां केवल फूल और पट्टी की डिजाइनिंग होती थीं वहां भी अब फैंसी डिजाइन बनने लगे है ।
चिकनकारी कई तरह से हुआ करती थी जो धीरे धीरे जमाना गुजरने के साथ लुप्त होती जा रही है। पैसों की तंगी और मुनासिब मेहनताना न मिलने की वजह से पीढ़ी दर पीढ़ी आगे न बढ़ सका और लुप्त हो गया।लेकिन बदलावों के बावजूद इसका मूल स्वरुप आज भी इसके जन्मस्थान लखनऊ में रचा बसा है।
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पटोला बनाने कि कला:
पटोला बनाने की कला इतनी अनमोल है कि 1934 मे एक हस्तनिर्मित पटोला साड़ी की कीमत 100 रुपये थी।पाटन में केवल 1 ऐसा परिवार हैं, जो ओरिजनल पाटन पटोला साड़ी बनाने की कला को संजोए हुए है और इस विरासत को आगे बढ़ा रहा है।पटोला साड़ियां बनाने के लिए रेशम के धागों पर डिजाइन के मुताबिक वेजीटेबल और केमिकल कलर से रंगाई की जाती है। फिर हैंडलूम पर बुनाई का काम होता है।
पटोला की लुप्त होती कला:
मात्र 1 ही परिवार ऐसा बचा है जो पटोला की इस कला को बचाये हुए है ।इसी वजह से पटोला महंगा होने के करण नकली पटोला भी बनता है ।भरतभाई पटोला के कारीगर है उन्हे सरकार की तरफ से हर संभव मदद देने और प्रशिक्षण केंद्र खोलने की बात कही गयी है ।ताकि 900 साल पुरानी कला नष्ट न हो।
इस साड़ी की खासियत है कि ये दोनो तरफ से पहनी जाती है ।इस आर्ट को 'डबल इकत' आर्ट कहते है ।पटोला साड़ी की दूसरी सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसका रंग कभी फेड नहीं होता और साड़ी 100 साल तक चलती है। यह बुनकरी कला अब लुप्त होने के कगार पर है ।लागत के हिसाब से बाजार में कीमत न मिल पाना इस कला के सिमटने का प्रमुख कारण है।
