क्षमादान!
संहार तू रोज करता है
तापस भूमि के कण-कण को रौंदकर ,
कौन सा साम्राज्य तेरे ह्रदय को भरता है?
बुद्ध, महावीर, गांधी की धरती को पददलित कर क्या तू विश्व में यश पाता है?
पुरूषोत्तम के नाम हत्या का षडयंत्र रचाता है!
तिमिर की न कोई परछाई,
वक्त के हाथ मिटती तेरी अंगड़ाई
बोलो, क्षमादान क्या इसलिए तू चाहता है?
माधव के सौवें प्रण का क्या तू तिरस्कार चाहता है?
भीम, अर्जुन और न कोई योद्धा आएगा,
सहस्र प्रहार क्या कोटी जन झेल ना पायेगा?
झेलम तट् पर डटे, सिन्धु के आँगन
नजर किसी की ना पड़े,
क्या तू ऐसा कर पायेगा?
हे भारती, दे फिर एक दधीची
अस्थि जो सब के काम आयेगी,
नर-नारी के ह्रदय-हुंकार-
जे पी क्या फिर जन्म ले पायेगा?
नही चाहिए कोई उपहार,
वक्त की शिला पर क्या फिर ‘इंकलाब’ लिख पायेगा?
हा. हा… हे भारत-भारती!
दानवों की छाती विदीर्ण हों,
लहु का रंग एक…
क़ाबा-काशी संग हो।
उजड़ जाये सभा
जहां न मानवता संग हो,
नारी वंदन के लिए
क्या यही ढंग और ढोंग हो?
रे पांडव! बनवास का शाप समाप्त हुआ,
उठा अपने गांडीव और गदा
भंग कर दंभ का सीस,
जी उठे कोटी जनों का राष्ट्रहित।
— जे पी स्वर्ण
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