Friday, 22 November 2024

बड़ा खुलासा : MSP के नाम पर किसानों को धोखा दे रही है सरकार

MSP : एमएसपी (MSP) को न्यूनतम समर्थन मूल्य (Minimum Support Price) के नाम से जाना जाता है। सरकार किसानों की…

बड़ा खुलासा : MSP के नाम पर किसानों को धोखा दे रही है सरकार

MSP : एमएसपी (MSP) को न्यूनतम समर्थन मूल्य (Minimum Support Price) के नाम से जाना जाता है। सरकार किसानों की फसलों को MSP पर खरीदने के लिए MSP के रेट निर्धारित करती है। भारत सरकार का दावा है कि पूरे देश में MSP की व्यवस्था लागू है। सरकार यह भी दावा करती है कि MSP से किसानों को खूब फायदा हो रहा है। उन्होंने MSP को लेकर बड़ी पड़ताल की है। हमारी पड़ताल में बड़ा खुलासा हुआ है। बड़ा खुलासा यह है कि MSP के नाम पर भारत सरकार किसानों के साथ धोखाधड़ी कर रही है।

MSP को ठीक से समझ लेना जरूरी है

एमएसपी को समर्थन मूल्य कहना असल में बहकावा है। इसका उद्देश्य है कि बाजार में कृषि उपज के खरीद के दाम एमएसपी से नीचे न गिरें और अगर गिरते हैं, तो सरकार उन उपजों को समर्थन मूल्य पर खरीदकर मूल्य गिरने न दे। लेकिन वास्तव में ऐसा होता नहीं है। समर्थन मूल्य सुनने में भले ही अच्छा लगता है, पर यह घोषित मूल्य धोखे से भरा होता है, क्योंकि हकीकत पूरे लागत- खर्च पर आधारित ही नहीं है। इसे बारीकी से समझना जरूरी है। फसल उगाने के लिए किसान को कई खर्च, निवेश और विनियोग करने पड़ते हैं। इनके तीन प्रकार हैं-

किसान द्वारा नकद भुगतान किए जाने वाले पहले प्रकार को ए-2 खर्च कहा जाता है। शुरुआत से ही कुछ साल पहले तक भी सरकारें सिर्फ ए-2 प्रकार के खर्च को ही लागत खर्च में गिनती रहीं, लेकिन ए-2 के अलावा ऐसे ही दूसरे बड़े खर्च भी हैं, जिन्हें अनदेखा किया जाता रहा है। इस दूसरे प्रकार में वे खर्च हैं, जिन्हें फसल के लिए किसान को निवेश करना पड़ता है। जैसे कि परिवार के श्रम, घर की गोबर खाद, घर से बिजाई, सिंचाई के लिए किस कुएं का पानी, घर की बैलजोड़ी-इन सबको एफएल अर्थात फैमिली लेबर प्रकार कहा गया। हालांकि अब सरकार इस प्रकार के कुछ खर्चे शामिल करने लगी है।

तीसरे प्रकार के खर्चे में विभिन्न लागतें, जमीन का सालाना किराया, मवेशी के बाड़े, भंडारण के मकानात, औज़ारों का किराया अथवा घिसावट (अवमूल्यन), कार्यगत पूंजी की समूची राशि पर ब्याज, खेती का प्रबंधन करने के लिए प्रबंधक के नाते किसान के समय का पारिश्रमिक, खेती के लिए किए जाने वाले प्रवास का खर्च, दूसरों से खासकर, सरकारी दफ्तरों से खेती के विभिन्न काम और कागजात के लिए खर्चे और उनके एवज में दी जाने वाली रिश्वत अलग है।

विक्रय के लिए परिवहन समेत कई प्रकार के खर्चे, खेती के लिए आवश्यक संपत्ति के लिए (भूमि सुधार, कुआं, बाड़, बांध, रास्ता आदि) लगने वाले खर्चे, किसान के अपने कौशल विकास के खर्चे, खेती के लिए दी जाने वाली भेंट, और फसलों की विफलता, विपदा और अकाल के कारण खेती में लगे हुए संपूर्ण खर्चे-ऐसी सब प्रकार की वास्तविक परंतु अदृश्य मदों पर लगे खर्चे शामिल कर ही सच्चे उत्पादन खर्च पर आधारित दाम तय किए जाने चाहिए।

सीधा छलावा कर रही है सरकार

इसलिए सिर्फ ए-2 व एफएल को शामिल करते हुए, लेकिन तीसरे प्रकार के खर्च की सारे मदों को छोडक़र हिसाब आंकना सीधा छलावा है। सच में संपूर्ण सर्व- समावेशी लागत खर्च के अलावा आय के लिए उसके ऊपर 50 फीसदी जोडक़र किसान को दाम मिले, तो ही के लिए किसानी का उद्यम करने वाले अन्नदाता किसान को कुछ आय मिलेगी। अनेक सरकारी और अर्ध-सरकारी संस्थाओं, अर्थशास्त्रियों, शोधकर्ताओं और संगठनों ने हिसाब लगाकर सरकार को रिपोर्ट देते हुए साबित किया है कि सरकार उत्पादन खर्च का जो आंकड़ा दिखाती है, उसकी तुलना में वास्तविक उत्पादन लागत खर्च लगभग डेढ़ गुना होता है। MSP में सिर्फ छह फसलों को ही शामिल किया गया है। एमएसपी पर बढ़ोतरी दो से छह फीसदी की गई है, जबकि सरकारी कर्मचारियों के वेतन- भत्ते में सात फीसदी वृद्धि की गई है। इससे सरकार का किसानों के साथ सौतेला व्यवहार समझ आता है। वहीं कृषि क्षेत्र को मिलने वाली सहूलियतें, छूट, अनुदान आदि नाकाफी हैं। गैट एग्रीमेंट, डंकल प्रस्ताव के समय केंद्र सरकार ने लिखकर कबूला था कि भारत का खेती क्षेत्र 70 फीसदी नकारात्मक सब्सिडी का नुकसान बर्दाश्त करके देश को पाल-पोस रहा है। इसी तरह हाल में सरकारी कृषि-लागत व मूल्य-आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष अशोक गुलाटी द्वारा सरकार को सौंपे गए हिसाब के अनुसार, वर्ष 2000 से 2015 के बीच 15 वर्षों में किसानों को 45 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। मौटे तौर पर प्रत्येक किसान प्रतिवर्ष पांच एकड़ खेती पर करीब 50 हजार रुपये का नुकसान बर्दाश्त कर रहा है। इसके समाधान के लिए किसानों को छूट, सब्सिडी और माफी जैसी खैरात नहीं चाहिए, बल्कि खेती में किसान के श्रम, प्रबंधन व उद्यमशीलता का सही दाम चाहिए। खेती विरोधी सारी जुल्मी नीतियों (आयात-निर्यात नीतियों के साथ सभी) को हटाकर न्यायपूर्ण व पोषक नीतियां बनें। कृषि का बजट बढऩा चाहिए। साथ ही जलवायु परिवर्तन का आसमानी जुल्म, बाजार व सरकारी नीतियों के सुलतानी जुल्म से सुरक्षा के लिए खेती की सर्वोत्तम तकनीकें और पद्धतियां अपनानी होंगी।

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