Friday, 20 September 2024

Birthday Special:पूर्व प्रधानमंत्री चौ. चरण सिंह की जयंती पर विशेष

        चोबसिंह वर्मा (पूर्व ब्यूरो क्रेट व स्तंभ लेखक) हाल ही में एक साल से चली आ…

Birthday Special:पूर्व प्रधानमंत्री चौ. चरण सिंह की जयंती पर विशेष

        चोबसिंह वर्मा

(पूर्व ब्यूरो क्रेट व स्तंभ लेखक)

हाल ही में एक साल से चली आ रही दिल्ली(Delhi) की नाकाबंदी किसानों (Farmers)ने उठा ली है। किसान अपने घरों और खेतों की ओर चले गए हैं, वहीं सरकारें अपने रूटीन के काम काज में जुट गयी हैं। देखा जाये तो ये इतना लंबा चलने वाला पहला आन्दोलन है जिसमें कोई विजेता नहीं है। सभी पक्ष नुकसान में रहे। सरकार को ‘लॉस और फेस हुआ, किसान आमजन की सद्भावना खोये और देश की इमेज अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर हानि में रही। साथ ही देश की अर्थव्यवस्था अरबों खरबों रुपये गवां बैठी।

ईश्वर करे फिर कभी इसकी पुनरावृत्ति ना हो। इस पृष्टिभूमि में आज एक राजनेता बरबस याद आता है, वह है – चौधरी चरण सिंह(Ch.Charan Singh)। वह न केवल अकेले, निहायत तन्हा, 1937 में अंतरिम सरकार में एम.एल. ए. बनते ही खेती व किसानों के हित में कानून बनवाने की जुगत में जुट गये थे वरन् उन्होंने मंत्री बनते ही समस्त भारत वर्ष में सबसे क्रांतिकारी भूमि सुधार कानून बनवाने में सफलता हासिल की।

वे अपने सतत संघर्ष, लगन व मेहनत के बल पर एम. एल. ए. से प्रधान मंत्री के पद तक पहुँचे जरूर लेकिन वे सोते जागते, खाते पीते, सोचते किसानी व कृषक हित के बारे में ही थे। इस लेख के माध्यम से हम चौधरी चरण सिंह द्वारा किए गये श्रृंखलाब( विभिन्न कृषि सुधारों का सूक्ष्म विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं। याद रहे ये चौधरी चरण सिंह ही थे जिन्होंने किसानों, दबे कुचलों, पिछडों व राजनीति के पायदान के छोर पर खड़े असंख्य लोगों को हल खुरपी छोड़ कर न केवल सत्तासीन होने का सपना दिखाया वरन् शीर्ष कुर्सियों पर बिठा भी दिया था।

1. तरह-तरह के करों, कटौतियों और शुल्कों की वसूली कर स्थानीय प्रशासन और मंडी में बिचौलिया वर्ग किसानों का किस तरह शोषण करते थे और तोल में गडबड़ी, कर्दा, धर्मादा, और बट्टा आदि की आड़ में उसकी किस तरह खुली लूट की जाती थी, चौधरी चरण सिंह ने व्यावहारिक रूप से स्वयं देखा और महसूस किया था। एक विस्तृत सर्वेक्षण के आधार पर किसान की लूट की जाहिर करते हुए। उन्होंने इस लूट पर रोक लगाने तथा इन करों, कटौतियों और शुल्कों को कम करने अथवा समाप्त करने के लिए कानून बनाने की जरूरत की वकालत शुरू कर दी।

दिल्ली से प्रकाशित अँग्रेजी दैनिक ‘हिन्दुस्तान टाइम्स'(Hindustan times) के 31 मार्च, 1938 और 1 अप्रैल 1938 के अंकों में उपरोक्त विषय से संबंधित दो लेख प्रकाशित कराये:- ‘कल्टीवेटर लूजेज 15 परसेंट थू्र लेवीज’ तथा ‘प्रपोज्ड़ लेजिस्लेशन फॉर रेगूलेशन’। इन लेखों को पढ़ कर संयुक्त पंजाब प्रांत के तत्कालीन राजस्व मंत्री सर छोटूराम ने लाहौर से अपने निजी सचिव टीका राम को चौधरी चरण सिंह के पास भेजा था। विचार-विमर्श के बाद पंजाब में इन्हीं विचारों के आधार पर कुछ माह बाद कृषि विपणन संबंधी कानून बना दिया गया था। विडंबना देखिए अपने दल में इसका विरोध हो जाने के कारण यू. पी. में ये कानून पास कराने में चौधरी साहब को 1964 तक इंतजार करना पड़ा। जब वे 1964 में कृषि मंत्री थे तब उन्होंने ‘उ.प्र. कृषि उत्पाद न मंडी अधिनियम 1964ÓÓ नाम से मंडी व्यवस्था संबंधी कानून बनवाया था। चौधरी साहब ने ही महाजनों और स्थानीय सूदखोरों के कर्ज-बंधन में जकड़े लाखों गरीब कृषकों को) निर्मोचन अधिनियम’ पारित कराकर कर्जा मुक्त करा दिया था।

2. 1945 में आचार्य नरेन्द्र देव की अध्यक्षता में बनारस में किसानों का बड़ा सम्मेलन आयोजित हुआ था। वहाँ चौधरी साहब ने काँग्रेस का घोषणा पत्र ड्राफ्ट किया था जिसका मकसद था। उ.प्र. में जमींदारी प्रथा का विनाश करना। इसे ऑल इंडिया काँग्रेस वखकंग कमेटी से रेजोल्यूशन के रूप में पारित तो करा लिया लेकिन इसे कांग्रेस दल या सरकार से उस समय समर्थन नहीं मिल सका। चौधरी साहब रूके नहीं, थके नहीं और न निराश हुए। उन्होंने 1947 में ‘हाउ टू अबॉलिश जमींदारी – व्हिच अल्टरनेटिव सिस्टम टू अडॉप्ट, नाम से पुस्तक छपवा कर इसका व्यापक प्रचार प्रसार करा दिया। समालोचनाएं व विरोधी प्रतिक्रियायें प्राप्त हुयीं। इनके जवाब में उन्होंने 1948 में दूसरी पुस्तक लिख डाली – अबोलिशन ऑफ जमींदारी इन यू. पी.: क्रिटिक्स आन्सर्डÓ। अंतत: चरणसिंह जीते। 1952 में राजस्व व कृषि मंत्री रहते उन्होंने ‘उ.प्र. जमींदारी विनाश अधिनियम 1952 पास करा कर खेतिहरों (टिलर्स) को भूमि पर मालिकाना अधिकार दिला दिए। उस समय निर्धन, भूमिहीन, सदियों से उस जमीन के टुकडे को जोतते बोते आ रहे किसानों के हित में यह एक बहुत बड़ा क्रांतिकारी कदम था।

3. बिखरी हुयी कृषि जोतें अन्न उत्पादन की वृद्घि की दृष्टि से कितनी अनुपयुक्त होती हैं चौधरी साहब इस जमीनी हकीकत से वाकिफ थे। उन्होंने 1953 में ‘कृषि जोत चकबंदी अधिनियम’ पारित कराया। स्वयं इंटरव्यू लेकर तहसीलदार व उपजिलाधिकारियों को ईमानदारी व गाँव में काम कर सकने की शौहरत व समर्पण की भावना जान कर सी.ओ. व एस.ओ. सी. के पद पर तैनाती दी थी। इस व्यवस्था के लागू होने के तीन-चार साल बाद ही धनात्मक परिणाम नजर आने लगे। चकबंदी से जमीन एक या दो जगह इक_ी हो जाने से किसानों के श्रम और लागत में कमी आने के साथ ही अन्न उत्पादन में खासी वृद्घि हुयी थी। मिट्टी के वैज्ञानिक परीक्षण की योजना उन्होंने ही शुरू करायी थी। भूमि हदबंदी कानून (यूपी.लैंड सीलिंग एक्ट) भी चौधरी चरण सिंह की देन था। प्रदेश में लाखों एकड़ भूमि बड़े भू-मालिकान से मुक्त करा कर गरीब, कमजोर, खेती पर निर्भर रहने वाले भूमिहीनों को पट्टे पर दे कर उन्हें भी भू-मालिक बनवा दिया था।

4. किसानों के हितों की रक्षा हेतु चौधरी साहब ने ए.आई.सी.सी. के 1959 में नागपुर में आयोजित अधिवेशन में तत्कालीन भारत के प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू द्वारा कॉपरेटिव फार्मिंग के पक्ष में पेश किए गये प्रस्ताव का मुखर विरोध किया था। उनके साहस की जहाँ तारीफ की जानी चाहिए वहीं नेहरू जी की विरोध के प्रति सहशीलता व सहिष्णुता भी प्रशंसनीय है। एक राज्य का मंत्री नेहरू जैसे लोकप्रिय व ऊँचे कद व पद वाले व्यक्ति का विरोध सार्वजनिक रूप से कर पाया यह जरा हैरत वाला वाकया लगता है। आश्चर्यजनक परिणाम भी देखिए- यह प्रस्ताव मृत-पत्र ही रह गया। चरण सिंह अपने जमीनी अनुभव से जानते थे कि अपनी जमीन से किसान का कितना भावनात्मक रूप से गहरा रिश्ता व लगाव होता है। वे मानते थे कि सामूहिक या सहकारिता वाली खेती मानवीय स्वभाव के विरुद्घ है। उन्हें विश्वास था कि सहकारी खेती से उत्पादन पर बुरा असर होगा और मुल्क दरिद्रता व अन्न संकट की ओर अग्रसर हो जायेगा।

बाद में पोलैंड, यूगोस्लोवाकिया, चीन और सोवियत संघ जैसे साम्यवादी देशों की सहकारी खेती के दुष्परिणाम बनाते हैं कि चौधरी-चरण सिंह का मत व विचार सही था! गाँव के परिवेश में पलते-बढ़ते हुए उन्होंने किसानों की परेशानियों, दुश्वारियों, समस्याओं और ग्राम्य जीवन की दुरुहताओं को बहुत करीब से जिया व देखा था। साथ ही देखा था उस शोषण को जिसके चलते देश का अन्नदाता भूखा-नंगा रहने को विवश था। इन्हीं हालात ने उनके मन में एक संकल्प-बीज का रोपण कर दिया- यह संकल्प था समाज के सबसे पिछड़े और उपेक्षितों के अधिकारों की बहाली के लिए सतत प्रयास करते रहना। सत्ता के पक्ष या विपक्ष में रहना उनके आड़े कभी नहीं आया।

चौधरी साहब ने शुरू में ही यह निष्कर्ष निकाल लिया था कि सत्ता में शामिल हुए बगैर कुछ हासिल नहीं हो सकता। इसीलिए वे सत्ता चाहते थे और उसे पाने के लिए उन्होंने विरोधाभाषी गठबंधन भी किए। गैर-काँग्रेसी पार्टियों (1967) व काँग्रेस पार्टी (1970) के साथ मिलजुल कर उन्होंने सरकारें बनायी थीं। फिर भी आम राजनेता की तरह निजी स्वार्थ की पूर्ति हेतु वह खालिस रूप से सत्ता के पीछे भागने वाले राजनीतिज्ञ नहीं थे। उनके लिए सत्ता लक्ष्य नहीं व्यापक जन -सेवा का माध्यम था। चूँकि वह अपनी किसान-परस्त आस्थाओं, मान्यताओं व कार्य योजनाओं से गहरे जुड़े रहते थे इसलिए सत्ता में आने पर उन्हें लागू करने में वह न कभी विलंब किए, न कभी झुके, न मुकरे और इस प्रक्रिया में हमेशा पदच्युत होने का खतरा मोल लेते रहे। यही कारण है कि 1937 से 1987 तक बड़े मार्जिन से अपने निर्वाचन क्षेत्र से एम.एल.ए. व एम.पी. तो अनवरत निर्वाचित होते रहे किन्तु किसी मंत्री, मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री पद पर अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाये थे। उन्होंने अपने जनोपकारी सिद्घान्तों, ईमानदारी व निष्ठा से कभी समझौता नहीं किया जो कि इस दौर की भ्रष्ट व स्वार्थपरत राजनीति में आवश्यक होता है। वह जब भी जहाँ भी किसी पद पर आसीन रहे, अल्प अवधि के लिए ही सही, एक सख्त व ईमानदार प्रशासक के रूप में उनकी ख्याति अक्षुण्ण बनी रही। वह कामचोर व भ्रष्ट अधिकारियों व कर्मचारियों के लिए सरदर्द व दु:स्वप्न की तरह बने रहे थे।

चौधरी चरण सिंह ने 1970 में मुख्यमंत्री में बनते ही कृषि उत्पादन बढ़ाने की नीति को प्रोत्साहित करने हेतु उर्वरकों से बिक्री कर हटा दिया था। साढ़े तीन एकड़ तक की जोतों का लगान माफ कर दिया था। छोटी जोत वाले किसानों को कुएं व रहट लगाने हेतु वे साठ के दशक में कृषि मंत्री रहते ही तकाबी के रूप में अनुदान व मामूली ब्याज पर कर्ज मंजूर करने का कानून बनवा चुके थे। बाद में सहकारी बैंक व भूमि विकास बैंक से कृषक ऋण के प्राविधान उन्होंने करा लिए थे। केन्द्र में अल्प अवधि के लिए वित्त मंत्री रहते चौधरी साहब ने ग्रामीण विकास की योजनाओं के वित्त पोषण हेतु ‘नाबार्ड’ की स्थापना कर दी थी।

आजादी की प्राप्ति से पहले ही चौधरी साहब ने सरकारी सेवाओं में ग्रामीण पृष्ठभूमिवालों के 50 फीसदी आरक्षण की वकालत इसलिए की थी कि ऐसे अधिकारी ग्रामीणों की दुस्वारियों के अनुभवी होने के कारण उनका त्वरित व सही निदान कर सकें। आज मंडल आयोग की संस्तुतियों के आधार पर जो लाखों ओ.बी.सी. कैटेगरी के लोग प्रान्तीय व केन्द्रीय सेवाओं में नौकरी पाकर सेवारत हैं वे चौधरी चरण सिंह के चिरऋणी रहेंगे जिन्होंने केन्द्र में गृहमंत्री रहते बी.पी. मंडल कमीशन इस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु गठित किया था। आचार्य नरेन्द्र देव व राम मनोहर लोहिया राजनीति के दार्शनिक थे। उस राजनीतिक दर्शन को अमलीजामा पहनाने का काम चौधरी चरण सिंह किए थे। चौधरी चरण सिंह की पिछड़ों व उपेक्षितों के सामाजिक उत्थान वाली सोच का ही नतीजा था। रामनरेश यादव व कर्पूरी ठाकुर जैसे अनाम चेहरों का यू.पी. व बिहार जैसे परंपरागत सामंती सोच वाले राज्यों की शीर्ष कुर्सी पर आसीन होना। ये दोनों महानुभाव चौधरी साहब के कोटे से जनता पार्टी के टिकट पर क्रमश: आजमगढ़ व समस्तीपुर से एम.पी. बने थे। तीन महीने बाद जून 1977 में विद्यानसभा चुनाव सम्पन्न हुए तो मुख्यमंत्री चुनना पड़ा। चौधरी साहब ने इन दोनों की सादगी व ईमानदारी देखते हुए इन्हें मुख्यमंत्री बनवा दिया था। इन्हें एम.पी. पद छोड़ कर विधानसभा का उप चुनाव जीतने हेतु चुनाव लडऩा पड़ा। फिर क्या था दिल्ली में बैठे चौधरी साहब के विरोधियों ने इन्हें हराने की मुकम्मल व्यवस्था कर ली थी। चौधरी साहब इसे भांप गये। वे केन्द्रीय गृह मंत्री रहते इन दोनों के चुनाव प्रचार हेतु गये और साठ सत्तर हजार लोगों की भारी भीड़ से सीधा संवाद करते हुए अपने लिए वोट मांग लिए। ये दोनों प्रत्याशी हारने जा रहे थे लेकिन चौधरी साहब ने मार्मिक अपील कर भीड़ को इनके पक्ष में मतदान हेतु प्रेरित कर दिया। दोनों पचास साठ हजार मतों के मार्जिन से अपने-अपने क्षेत्र में चुनाव जीत गये। चौधरी साहब अपने भक्तों को कभी मझधार में बेसहारा नहीं छोड़ते थे। शुरू से आखिर तक आमजन की उनसे कभी निष्ठा व आस्था नहीं डिगी थी। अपने स्वयं के निर्वाचन के दौरान भी चरण सिंह जी अपने निर्वाचन क्षेत्र में केवल एक बार चुनाव प्रचार के आखिरी दिन जाया करते थे। उस दिन सारे क्षेत्र की जनता सड़कों पर निकल कर उनका स्वागत करते हुए जिताने का भरोसा दे देती थी।

चौधरी चरण सिंह के व्यक्तित्व व कृतित्व का उनके जीते जी या बाद में आज तक वास्तविक व वस्तुपरक मूल्यांकन हुआ ही नहीं। वे एक गंभीर अध्येता, चिंतक व अर्थशास्त्री थे जिन्होंने दर्जनों पुस्तकें लिखी थीं: ‘हाउ टू अबोलिश जमीदारी: व्हिच आल्टरनेटिव सिस्टम टू अडोप्ट (1947), अबोलिशन ऑफ जमींदारी इन यू.पी.: क्रिटिक्स आन्सर्ड (1948), ज्वाईट फार्मिंग एक्सरेड: द प्राब्लम एंड इट्स सोल्यूशन (1964), इंडियाज इकनोमिक पालिसी: द गाँधिंयन ब्लूप्रिंट (1978), इकोनोमिक नाइटमेअर ऑफ इंडिया: इट्स काजेज एंड क्योर (1981), लैंड रिफाम्र्स इन यू.पी. एंड द कुलक्स (1986) प्रमुख पुस्तकें हैं। इनमें से ‘इकोनोमिक नाइटमेअर ऑफ इंडियाÓ देश-विदेश में भी चर्चित रही है। अमेरिका के प्रमुख विश्वविद्यालय हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्र के पाठ्यक्रम में भी यह पुस्तक शामिल है।

उल्लेखनीय है कि यह गौरव किसी अन्य हिन्दुस्तानी राजनेता को हासिल नहीं हुआ है। जमींदारी प्रथा की सामंती परंपरा का एक महत्वपूर्ण पुर्जा राजस्व विभाग का ‘पटवारीÓ होता था। अंग्रेजी काल से वह वंशानुगत पद बना चला आ रहा था। उसके घर के चबूतरे पर ग्राम प्रधान से भी ज्यादा बड़ा दरबार प्राय: लगा रहता था। चौधरी साहब ने भूमि सुधारों की श्रंृखला की एक कड़ी के रूप में पटवारी व्यवस्था भी एक झटके में खत्म कर दी थी। उसकी जगह लेखपाल सिलेक्शन के जरिए नियुक्त होने लगे थे।

केरल के पहले कम्युनिस्ट मुख्यमंत्री ई.एम.एस. नंबूदरीपाद ने नब्बे ने दशक में अपनी लंबी आयु के सांध्यकाल में कहा था कि ‘जो भूमि सुधार कार्य हम कम्युनिस्ट होते हुए आज तक लागू नहीं कर पाए उन्हें चौधरी साहब यू.पी. में आजादी के चार पांच साल बाद ही लागू करा गये थे। आज कल के तथाकथित लोकप्रिय राजनेता अपनी निजी सुरक्षा हेतु जैड-कैटेगरी प्राप्त करने हेतु न्यायालय तक जा रहे हैं। इसे पाने हेतु अल्पमत सरकार को गिराने की धमकी और नयी सरकार बनवाने का लालच तक दे डालते हैं। चौधरी साहब राज्य के मंत्री, मुख्यमंत्री (Chief Minister)व देश के प्रधानमंत्री (Prime Minister)तक के पदों को सुशोधित किए थे फिर भी एक ही पी.एस.ओ. करतार सिंह 1960 से उनकी अंतिम सांस निकलने के वक्त (1987) तक उनकी सुरक्षा संभालते रहे थे। यह चौधरी साहब की निडरता व आमजन में अटूट विश्वास का परिणाम(Result) था।

चौधरी साहब ने अपने सम्पूर्ण राजनैतिक जीवन में कभी भी अपनी बातें या मांगे मनवाने हेतु सड़कें जाम नहीं की, न सरकारी सम्पत्ति की तोडफोड करने दी, और न कभी लोक व्यवस्था भंग की। वे उच्च शिक्षित थे, गुणी थे, सबकी लक्ष्मण रेखाएं समझते थे और उन्हीं लक्ष्मण रेखाओं की अंदर रहकर पॉवर में बैठे सामने वाले से अपनी बातें / मांगें सलीके से तर्क पूर्वक रख कर अधिकांश मांगें मनवा भी लेते थे। आज के किसानों में जो जज्बा, जोश, सीने में आग व एकता नजर आ रही है वो चौधरी साहब की ही देन है। किसानों व उनके नेताओं को चौधरी चरण सिंह द्वारा उनके हित में पूरे जीवनभर किए गए कार्यों को स्मरण करने के साथ ही उनकी राजनैतिक जीवन यात्रा के आदर्श मंत्र को गांठ बाँध कर याद रखना चाहिए कि लोक व्यवस्था व अनुशासन बना कर किए गये आंदोलन ज्यादा फलदायक व सफल होते हैं। वह किसानों के हित में तमाम प्रतिमान कायम कर गये हैं। एक मशाल जला गए हैं। देश में ऐसा किसान हितैषी राजनेता न तो कभी हुआ, न वर्तमान में है और न भविष्य मैं पैदा होने की कोई संभावना है। ऐसे युग पुरूष व किसानों के मसीहा को उनके 119वें जन्मदिवस के अवसर पर शत् शत् नमन!

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