आर.पी. रघुवंशी
नई दिल्ली। सिर्फ 40 से 45 घंटे इंतजार कीजिए। कर्नाटक विधानसभा चुनाव का परिणाम बस आने ही वाला है। एग्जिट पोल के आंकड़ों के आधार पर यह तय माना जा रहा है कि वहां कांग्रेस पूर्ण बहुमत से सरकार बनाने जा रही है। माना जा रहा है कि कर्नाटक की हार के बाद बीजेपी के लिए समूचे दक्षिण भारत के दरवाजे बंद हो जाएंगे। ऐसे में कांग्रेस की ताकत में इजाफे को किसी के लिए भी नजरंदाज करना आसान नहीं होगा। क्षत्रपों को अब अपने अस्तित्व का डर सताने लगा है। शायद यही डर उन्हें एकजुट करने में अहम भूमिका निभाएगा, जो मिशन 2024 में जीत दिलाने में मददगार साबित होगा।
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वो नहीं चाहते विपक्ष
मोदी सरनेम मानहानि मामले में जिस तरह से राहुल गांधी को कोर्ट ने अधिकतम सजा सुनाई और फिर आनन—फानन उनकी लोकसभा सदस्यता रद्द की गई, उसने बिखरे विपक्ष को सावधान कर दिया। यह घटनाक्रम जिस नाटकीय तरीके से सामने आया, उसने यह साफ संदेश दिया कि कांग्रेस मुक्त भारत का नारा देकर साल-2014 में सत्ता में आई बीजेपी अब विपक्ष मुक्त भारत के रास्ते पर चल पड़ी है। यानि केंद्र की भाजपा सरकार के मुखिया नरेंद्र मोदी नहीं चाहते कि उनके सामने कोई विपक्ष हो, जो उनसे सवाल करे।
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धड़ों में बंटे रहे विपक्षी दल
भारतीय जनता पार्टी ने साल 2019 में सिर्फ 37 फीसदी वोट शेयर लेकर प्रचंड बहुमत से केंद्र की सत्ता पर काबिज हुई। दूसरे शब्दों में कहें कि देश की 63 प्रतिशत वोटरों की नापसंदगी के बावजूद बीजेपी पूरे दम से देश पर हुकूमत कर रही है। इसका कारण यही है कि विपक्षी एकजुट नहीं है। सच कहें तो विपक्ष को ‘टुकड़े-टुकड़े…’ कहें तो शायद कुछ गलत नहीं होगा। अपनी करारी शिकस्त के बावजूद विपक्षी दल धड़ों में बंटे रहे। विपक्ष की बात करें तो कांग्रेस को छोड़कर ज्यादातर दलों के मुखिया ‘क्षत्रप’ ही हैं। इसलिए उनका फोकस अपने राज्य में ही सत्ता पर काबिज होने पर रहा। हालांकि वे उसमें भी कामयाब नहीं हुए।
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पीएम की रेस में क्षत्रप
अब से कोई दो महीने पहले तक तो देश के कई क्षत्रप प्रधानमंत्री बनने की रेस में शामिल थे। उनमें पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, बिहार के सीएम नीतीश कुमार, एनसीपी चीफ शरद पवार, तेलंगाना के सीएम के. चंद्रशेखर राव शामिल थे। इतना ही नहीं, इस पद के लिए दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल के मुंह से भी लार टपक रही थी। हालांकि इनमें से कोई भी मुखर होकर अपनी बात सार्वजनिक नहीं कर रहा था, लेकिन सभी अपनी छतरी बनाने की जुगत में लगे रहे। यह बात हास्यास्पद ही था कि इक्का दुक्का को छोड़कर कोई भी क्षत्रप सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस को कोई महत्व नहीं दे रहे थे। कुछ नेताओं ने तो तीसरे मोर्चे के गठन की भी कोशिशें कीं। हालांकि उस कोशिश को कोई संबल नहीं मिला।
रंग नहीं ला रही थीं कोशिशें
बीजेपी से मुकाबले के लिए कांग्रेस हालांकि विपक्षी दलों को एकजुट करने की कोशिश में लगी रही, लेकिन उसे उम्मीद के मुताबिक परिणाम नहीं दिख रहे थे। इस बीच, गुजरात के सूरत की एक अदालत ने 23 मार्च 2023 को राहुल गांधी को ‘मोदी सरनेम’ मानहानि मामले में अधिकतम दो साल की सजा सुना दी। निचली अदालत के इस फैसले से बीजेपी का खुश होना स्वाभाविक था। लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने आनन-फानन फैसले के अगले ही दिन यानि 24 मार्च को ही राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता रद्द कर दी। इतना ही नहीं, उन्हें सरकारी बंगला भी खाली करने के लिए एक महीने का नोटिस दे दिया।
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जब डर गया समूचा विपक्ष
कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी के साथ हुए इस घटनाक्रम ने समूचे विपक्ष को डरा दिया। उन्हें यकीन होने लगा कि अगर अब भी वे एकजुट नहीं हुए तो एक-एक कर उन्हें ठिकाने लगा दिया जाएगा। यानि विपक्ष मुक्त भारत का अघोषित नारा हकीकत बनकर जमीन पर उतर आएगा। अब यहीं से देश की विपक्षी सियासत ने करवट ली। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे की कोशिशें परवान चढ़ने लगीं। नई दिल्ली में नीतीश और तेजस्वी की खरगे और राहुल के साथ ही मुलाकात के बाद इन नेताओं ने पल को ऐतिहासिक करार दे दिया था। हालांकि तब राहुल और खरगे ने आधिकारिक तौर पर कुछ भी नहीं कहा था, लेकिन उनकी कैमिस्ट्री के सकारात्मक सियासी मायने निकाले जाने लगे।
नरम पड़े क्षत्रपों के सुर
उस मुलाकात के बाद नीतीश देश के क्षत्रपों को मनाने और ‘एक छतरी’ के नीचे लाने की कोशिशों में दिलो जान से जुट गए। इस प्रयास में उन्हें काफी कामयाबी भी मिली। रूठी ममता दीदी और नवीन पटनायक सरीखे नेताओं ने एकजुट होने की बात मान ली। शरद पवार, उद्धव ठाकरे और तमिलनाडु के सीएम एमके स्टालिन तो पहले से ही कांग्रेस के हिमायती हैं। नीतीश से मुलाकात के बाद अखिलेश यादव और अरविंद केजरीवाल के भी सुर कांग्रेस के प्रति नरम पड़े हैं।
डर ही बनेगा जीत में मददगार
टेलीविजन स्क्रीन पर आपने एक विज्ञापन देखा होगा, वह एक ठंडे पेय का खतरनाक सीन वाला विज्ञापन था। उसका स्लोगन आज भी हर किसी के जेहन में ताजा है, ‘डर के आगे जीत है।’ दिलचस्प है कि देश की सियासी हालात पर अब इस स्लोगन की छाया दिखने लगी है। क्षत्रपों को अपने अस्तित्व का डर ही उन्हें एकजुट होने पर विवश करेगा और यही उन्हें 2024 में जीत की दहलीज तक ले जाने में अहम भूमिका निभाएगा।
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