Wren Babbler: सुदूर अरुणाचल में अध्ययनकर्ताओं को मिला दुर्लभ गवैया पक्षी

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Wren Babbler
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calendar30 Nov 2025 01:53 AM
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एस एन वर्मा Wren Babbler: : नई दिल्ली : भारतीय बर्डवॉचर्स ने अरुणाचल प्रदेश के सुदूर क्षेत्र में गाने वाले एक पक्षी का पता लगाया है। यह गवैया पक्षी रेन बैबलर (Wren Babbler) की संभावित रूप से एक एक नई प्रजाति है। पक्षियों को खोजने वाले अभियान में शामिल अध्ययनकर्ताओं ने गाने वाले इस पक्षी का नाम लिसु रेन बैबलर रखा है।

Wren Babbler

इस अभियान दल में बेंगलुरु, चेन्नई और तिरुवनंतपुरम के बर्डवॉचर्स और अरुणाचल प्रदेश के उनके दो गाइड शामिल थे। अभियान के सदस्य धूसर रंग के पेट (Grey-bellied Wren Babbler) वाले दुर्लभ और चालाक रेन बैबलर की तलाश में उत्तर-पूर्वी अरुणाचल प्रदेश की मुगाफी चोटी की यात्रा पर निकले थे। जब वे वापस आये तो गाने वाले पक्षियों की सूची में एक नये नाम और विज्ञान के लिए नया दस्तावेज साथ लेकर लौटे।

धूसर पेट वाला रेन बैबलर मुख्य रूप से म्यांमार में पाया जाता है। इस प्रजाति के कुछ पक्षी पड़ोसी देश चीन और थाईलैंड में पाए जाते हैं। भारत से धूसर पेट वाले रेन बैबलर की पिछली केवल एक रिपोर्ट रही है, जब 1988 में इन्हीं पहाड़ों से गाने वाले इस पक्षी के दो नमूने एकत्र किए गए थे। एक नमूना अब अमेरिका के स्मिथसोनियन संग्रहालय में रखा गया है। पक्षीविज्ञानी पामेला रासमुसेन ने वर्ष 2005 में प्रकाशित अपनी पुस्तक में इस प्रजाति को शामिल किया और इसकी पहचान धूसर पेट वाले रेन बैबलर के रूप में की गई।

अध्ययनकर्ताओं का दल अरुणाचल प्रदेश के मियाओ से लगभग 82 किलोमीटर दूर लिसु समुदाय के दूरस्थ गाँव विजयनगर पहुँचा था। विजयनगर से दो दिन की पैदल चढ़ाई करके अध्ययनकर्ता हिमालय के उस स्थान पर पहुँचे थे, जहाँ के बारे में माना जा रहा था कि वह रेन बैबलर का घर है। हालांकि, अध्ययनकर्ता यह देखकर आश्चर्यचकित रह गए कि प्रथम दृष्टया धूसर पेट वाले रेन बैबलर जैसे दिखने वाले पक्षी के गाने का स्वर रेन बैबलर के स्वर से भिन्न था। अभियान के सदस्यों में शामिल अध्ययनकर्ता प्रवीण जे. कहते हैं -“हमने जितने भी पक्षियों को पाया उनका गीत बेहद मधुर था, जो लम्बी दुम वाले नागा रेन बैबलर के गीतों के समान था। लेकिन, इन पक्षियों का स्वर धूसर पेट वाले रेन बैबलर के गीतों से बिल्कुल अलग था।”

अभियान के दौरान लगातार हो रही बारिश के बावजूद शोधकर्ता इन पक्षियों की कुछ तस्वीरें लेने और उनके स्वर की रिकॉर्डिंग करने में सफल रहे। वापस लौटकर उन्होंने विभिन्न संग्रहालयों और अन्य साइटों से ली गई तस्वीरों की सहायता से रेन बैबलर की त्वचा का विश्लेषण किया। उन्होंने धूसर पेट वाले रेन बैबलर की मौजूदा रिकॉर्डिंग के साथ उनकी आवाज़ का मिलान करने की कोशिश भी की। उन्हें स्मिथसोनियन संग्रहालय से एकल नमूने की तस्वीरें भी मिलीं।

अभियान के एक अन्य सदस्य दीपू करुथेदाथु कहते हैं - "इसके नाम से ही संकेत मिलता है कि इस पक्षी के उदर का हिस्सा धूसर (Grey) रंग का है। हालांकि, हमें जो तस्वीरें मिली हैं, उनमें सफेद पेट वाले पक्षी दिखाई दिए। आश्चर्यजनक रूप से, इन पहाड़ों से पूर्व मिले एकल स्मिथसोनियन नमूने का भी सफेद पेट था।” अध्ययनकर्ताओं का कहना है कि जब सभी सूचनाओं को समग्र रूप से देखा गया, तो इस नई प्रजाति का पता चला है।

अभियान में मिले पक्षी की किसी भी ज्ञात प्रजाति से इसके पंखों एवं गीतों का संयोजन मेल नहीं खाता। अध्ययनकर्ताओं का मानना है रेन बैबलर पक्षी की यह कम से कम एक उप-प्रजाति या फिर नई प्रजाति हो सकती है। किसी प्रजाति या उप-प्रजाति की स्थापना और नामकरण के लिए वैज्ञानिक रूप से इन पक्षियों से आनुवंशिक सामग्री की आवश्यकता है, जिसकी तुलना अन्य रेन बैबलर प्रजातियों से की जाती है।

खोजे गए पक्षी का नामकरण स्थानीय लिसु समुदाय के नाम पर लिसु रेन बैबलर के रूप में किया गया है। अभियान दल को उम्मीद है कि यह खोज विजयनगर और गांधीग्राम में स्थानीय समुदाय के बीच इस पहाड़ी आवास के संरक्षण के लिए अधिक ध्यान आकर्षित करेगी।

पिछले पांच वर्षों से नामदाफा में पक्षी अभियानों का आयोजन करने वाली अभियान की सदस्य योलिसा योबिन कहती हैं -"मेरा मानना है कि लिसु रेन बैबलर इस पर्वत श्रृंखला में और अधिक जगहों पर मौजूद हो सकते हैं। नामदाफा के करीब और अधिक सुलभ आबादी का पता लगाने की जरूरत है।"

यह अध्ययन दक्षिण एशियाई पक्षीविज्ञान की शोध पत्रिका इंडियन बर्ड्स में प्रकाशित किया गया है। प्रवीण जे., दीपू करुथेदाथु, और योलिसा योबिन के अलावा इस अध्ययन में सुब्रमण्यम शंकर, हेमराज दुरैस्वामी, और राहुल बरुआ शामिल हैं।

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Bageshwar Dham: BJP का मुखोटा है बागेश्वर टाइप बाबा,कईं नेता आए समर्थन में

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locationभारत
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calendar21 Jan 2023 08:35 PM
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Bageshwar Dham: अंशु नैथानी वोट बैंक के लिए है बाबा बागेश्वर पर भाजपा की मेहरबानी Bageshwar Dham: बागेश्वर धाम बाबा अपने चमत्कारों को लेकर पूरे देश में चर्चा का विषय बने हुए हैं । बाबा पर चमत्कार के नाम पर अंधविश्वास फैलाने का आरोप है। अंधविश्वास उन्मूलन समिति जहां उन्हें चैलेंज कर रही है, तो वहीं दूसरी तरफ बाबा के समर्थन में भी कई लोग आ गए हैं, जिसकी फेहरिस्त में बीजेपी के कई नेता भी शामिल हैं। बाबा चमत्कारी हैं या नहीं यह तो अभी साबित नहीं हो पाया। लेकिन जिस तरह से बाबा बागेश्वर धाम (Dhirendra Shastri)और राम रहीम( Gurmeet RamRahim) जैसे बाबाओं को बीजेपी के नेताओं का खुला समर्थन मिल रहा है उससे यह लग रहा है कि यह बाबा बीजेपी के वोट बैंक के लिए चमत्कार जरूर करते हैं ।

Bageshwar Dham

बीजेपी का वोट बैंक है यह बाबा आखिर क्या वजह है कि इन बाबाओं को बीजेपी के नेताओं का इतना समर्थन हासिल है ? वह चमत्कार है इन बाबाओं का वोट बैंक जो अनुयाईयों की बड़ी संख्या के रूप में इनके पास मौजूद है, जो नेताओं और इनकी पार्टी के लिए भी बड़ा वोट बैंक है। बाबा चुनाव के समय जिस पार्टी या प्रत्याशी को वोट देने का इशारा कर देते हैं उसकी तो समझो नैया पार है। अभी चर्चा में चल रहे बाबा बागेश्वर धाम, मध्य प्रदेश के छतरपुर से अपना कार्यक्रम चलाते हैं, बाबा के अनुयायियों की बात करें तो Face Book  में ही इनके लगभग 30 लाख फॉलोअर्स हैं, Instagram  पर करीब डेढ़ लाख फॉलोअर्स और वैसे भी लाखों की संख्या में अनुयाई हैं जो इनके कार्यक्रमों में शिरकत करते हैं। मध्यप्रदेश में एक बड़ा वोट बैंक बाबा से प्रभावित है। बीजेपी के नेताओं को भी अक्सर बाबा के कार्यक्रमों में देखा जाता है, हाल ही में नागपुर में बीजेपी के वरिष्ठ नेता और मंत्री नितिन गडकरी बाबा के कार्यक्रम में शामिल हुए और आशीर्वाद लिया। बाबा पर छाए विवाद के बाद बीजेपी के नेता कैलाश विजयवर्गीय  भी बाबा का समर्थन में सामने आ गए हैं ।

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इन बाबाओं के वोट बैंक का ही चमत्कार है जो इन पर कई तरह के आरोप लगने के बाद भी इनका बाल भी बांका नहीं हो पाता । कुछ ऐसा ही हाल है सिरसा के बाबा राम रहीम का। अपनी दो शिष्याओं के साथ रेप के आरोप में 20 साल की सजा काट रहे राम रहीम अक्सर Parole पर बाहर ही रहते हैं। आपको बता दें पैरोल राज्य सरकार की दया पर मिलता है। पिछले डेढ़ साल में बाबा जेल से 6 बार बाहर आ चुके हैं, उनकी पिछली पैरोल 25 नवंबर को ही खत्म हुई थी, और अब फिर उन्हें 40 दिन की पैरोल दे दी गई है। पैरोल मिलने के बाद राम रहीम ने यूपी के बागपत के आश्रम में कई बार सत्संग आयोजित किए थे, इनमें से कुछ में तो हरियाणा के बीजेपी नेता भी शामिल हुए थे। राम रहीम को पंजाब विधानसभा चुनाव से 2 हफ्ते पहले 3 सप्ताह की फरलौ दी गई थी ताकि वह अपने अनुयायियों को बता सकें कि इलेक्शन में किसको वोट करना है । अब आपको बताते हैं बाबा के पास कितना वोट बैंक है। डेरा सच्चा सौदा का दावा है कि दुनिया भर में उनके 5 करोड़ अनुयाई हैं, जिसमें ज्यादा संख्या भारत में है। अकेले हरियाणा में ही डेरा सच्चा सौदा के 25 लाख अनुयायी हैं। उत्तर प्रदेश के बागपत में भी बाबा का डेरा है जहां लाखों की संख्या में उनके अनुयाई हैं। साल 2021 और 2022 में बाबा 6 बार जेल से बाहर आ चुका है। इन बाबाओं के यह बड़े-बड़े वोट बैंक ही इनको बार-बार संकटों से बचाते हैं। यह वोट बैंक का ही बाबा का चमत्कार है जो  रेप और उत्पीड़न जैसे संगीन आरोपों में दोषी पाए जाने और सजा घोषित होने के बाद भी इनको बेदाग ही बनाकर रखते हैं।

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Article : लंबित मुकदमों के बोझ से बेहाल अदालतें

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calendar18 Jan 2023 07:13 PM
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संजीव रघुवंशी (वरिष्ठ पत्रकार)

Article : '' वीएस मलिमथ समिति ने मार्च, 2003 में दी रिपोर्ट में अदालतों में केसों के बढ़ते अंबार पर चिंता जाहिर करते हुए साफ शब्दों में कहा था कि केस जितना पुराना (Old) हो जाता है, उसमें फैसला आने या सही फैसला (Right Decision) आने की उम्मीद भी उतनी ही कम हो जाती है। समिति ने यह भी उल्लेख किया कि मुकदमों के लंबा खिंचने की वजह से ही दोषसिद्धि का प्रतिशत लगातार गिर रहा है। यह साल 2020 में 59.2 फीसदी था जो 2021 में गिरकर 57 फीसदी पर आ गया। गैर इरादतन हत्या और दुष्कर्म के मामले में तो दोषसिद्धि का आंकड़ा इससे भी ज्यादा खराब है। '' 

मध्य प्रदेश (Madhya Pradesh) के रतलाम (Ratlam) में एक व्यक्ति ने सरकार से 10006 करोड़ का मुआवजा मांगा है। दरअसल, कांतिलाल भील को सामूहिक दुष्कर्म (Gang Rape) के आरोप में दो साल तक जेल में रहना पड़ा। बाद में कोर्ट (Court) ने सबूतों के अभाव में उसे बरी कर दिया। अब कांतिलाल ने अपने दो साल के हर पल का हिसाब बनाकर सरकार से मुआवजे के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया है। सरकार उसके मुआवजे के दावे पर विचार करेगी या उसे बरी किए जाने के फैसले के खिलाफ ऊपरी अदालत का दरवाजा खटखटाएगी, इस बारे में तो अभी कुछ स्पष्ट नहीं, लेकिन एक बात जरूर साफ है कि अदालतों में लंबित मुकदमों का दंश अंतत: पक्षकारों को ही झेलना पड़ता है। फिर, चाहे वह अप्रैल, 2022 में बिहार (Bihar) की एक कोर्ट द्वारा बरी किए गए बीरबल भगत का मामला हो या फिर मध्य प्रदेश हाई कोर्ट (High Court)  द्वारा मई, 2022 में रिहा किए गए चंद्रेश का मुकदमा। बीरबल को जब मर्डर के केस में गिरफ्तार किया गया तो उसकी उम्र 28 साल थी और जब बरी हुआ तो 56 साल। वहीं, चंद्रेश ने मर्डर के केस से बरी होने तक 13 साल जेल में गुजारे।

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ये मामले उन अनगिनत मामलों में से हैं, जिनमें पक्षकारों ने भारतीय न्याय व्यवस्था पर बढ़ते बोझ का खामियाजा भुगता है। 'जस्टिस डिलेड इज जस्टिस डिनाइड' यानी, देरी से मिला न्याय, न्याय न मिलने के बराबर है। यह सूक्ति हमारी न्याय व्यवस्था पर एकदम फिट बैठती है। वर्ष 2020 में न्यायिक सुधारों के लिए गठित की गई जस्टिस वीएस मलिमथ समिति ने मार्च, 2003 में दी रिपोर्ट में अदालतों में केसों के बढ़ते अंबार पर चिंता जाहिर करते हुए साफ शब्दों में कहा था कि केस जितना पुराना हो जाता है, उसमें फैसला आने या सही फैसला आने की उम्मीद भी उतनी ही कम हो जाती है। समिति ने यह भी उल्लेख किया कि मुकदमों के लंबा खिंचने की वजह से ही दोषसिद्धि का प्रतिशत लगातार गिर रहा है। यह साल 2020 में 59.2 फीसदी था जो 2021 में गिरकर 57 फीसदी पर आ गया। गैर इरादतन हत्या और दुष्कर्म के मामले में तो दोषसिद्धि का आंकड़ा इससे भी ज्यादा खराब है।

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साल 2023 आते-आते अदालतों में लंबित मुकदमों का आंकड़ा पांच करोड़ को पार कर गया है। इसमें जिला अदालतों के साथ ही अधीनस्थ अदालत, हाईकोर्ट्स और सुप्रीम कोर्ट में लंबित मुकदमे शामिल हैं। यह आलेख लिखे जाने तक, नेशनल ज्यूडिशियल डाटा ग्रिड के आंकड़ों के मुताबिक कुल 4 करोड़ 32 लाख 70 हजार 666 मुकदमे जिला और अधीनस्थ अदालतों में लंबित हैं। ताज्जुब की बात यह है कि इनमें से .33 फीसदी मामले 30 साल से भी पुराने हैं। वही, 1.08 फीसदी मुकदमे 20 से 30 साल पुराने, 6.50 फीसदी 10 से 20 साल, 18.94 फीसदी 5 से 10 साल और 20.57 फीसदी मामले 3 से 5 साल पुराने हैं। उच्च न्यायालयों में 59 लाख 75 हजार 604 केस पेंडिंग हैं। इनमें से 1.23 फीसदी केस 30 साल से ज्यादा पुराने, 3.71 फीसदी 20 से 30 साल और 19.07 फीसदी केस 10 से 20 साल पुराने हैं। हाईकोर्ट्स में सबसे अधिक लंबित मामले 5 से 10 साल पुराने हैं। कुल लंबित मामलों में इनकी हिस्सेदारी 24.10 फीसदी है। इसके साथ ही, 18.85 फीसदी 3 से 5 साल पुराने और 15.93 फीसदी लंबित मामले 1 से 3 साल पुराने हैं। तकरीबन 69 हजार मामले सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन हैं। चिंता करने वाली बात यह है कि अदालतों में केस कम होने की बजाय लगातार बढ़ रहे हैं। सरकार की ओर से 25 मार्च, 2020 को जारी आंकड़ों पर गौर करें तो तब जिला और अधीनस्थ अदालतों में चार करोड़ 10 लाख 47 हजार 976 मामले लंबित थे। वहीं, देश के 25 उच्च न्यायालयों में कुल 58 लाख 94 हजार 60 और सुप्रीम कोर्ट में 70 हजार 154 मुकदमे अपने निपटारे की बाट जो रहे थे। ये आंकड़े दो मार्च, 2022 तक के हैं। इसके बाद अब तक तकरीबन 10 माह में 22 लाख 22 हजार 690 मुकदमे जिला अदालतों में बढ़ चुके हैं। यानी, निचली अदालतों में हर रोज तकरीबन 7400 मुकदमे बढ़ रहे हैं। दस माह की यह बढ़ोतरी 5.4 फीसदी की है। इसी अवधि में 1.38 फीसदी के साथ उच्च न्यायालयों में मुकदमों के आंकड़े में 81 हजार 544 का इजाफा हो चुका है। मतलब, हाईकोर्ट्स में लंबित मुकदमों के भार में रोजाना 271 मुकदमे जुड़ रहे हैं। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट में लंबित मामलों की संख्या 73 हजार पार करने के बाद अब घटकर 69 हजार के नीचे आ गई है। बीते दिसंबर में पांच से 16 तारीख तक सुप्रीम कोर्ट में मुकदमों के निपटारे की रफ्तार 206 फीसदी तक रही। इसका त्वरित असर लंबित मामलों की संख्या में गिरावट के रूप में सामने आया है।

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अगर सुप्रीम कोर्ट के हालिया प्रदर्शन को छोड़ दिया जाए तो दूर-दूर तक ऐसा कोई कारण नजर नहीं आता जो न्याय व्यवस्था की बेहतरी की तरफ इशारा करता हो। सबसे खराब स्थिति जिला और अधीनस्थ अदालतों की है। कुल लंबित मामलों में से तकरीबन 85 फीसदी इन्हीं अदालतों में हैं। ये हालात ऐसे में हैं, जब 30 दिसंबर को मुख्य न्यायाधीश जस्टिस चंद्रचूड़ ने आंध्र प्रदेश न्यायिक अकादमी के उद्घाटन के मौके पर खुले मंच से जिला अदालतों को न सिर्फ न्याय व्यवस्था की रीढ़ बताया बल्कि लोगों को इन अदालतों को अत्यंत गंभीरता से लेने की नसीहत भी दी। साथ ही, उन्होंने इन अदालतों में मुकदमों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी पर चिंता जाहिर की। लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं है कि इससे ऊपर की अदालतों में लंबित मामलों का ढेर कोई मायने नहीं रखता। न्यायिक व्यवस्था की बदहाली के लिए ये अदालतें भी कानूनविदों के निशाने पर रही हैं। चार अगस्त, 2022 को सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस संजय किशन कौल ने एक मामले की सुनवाई के दौरान टिप्पणी की थी कि अगर हर मामला उच्चतम न्यायालय की चौखट पर आएगा तो अगले पांच सौ साल में भी लंबित मामलों का निपटारा नहीं होगा। इससे पहले, मई, 2022 में जस्टिस एल. नागेश्वर राव और जस्टिस बीआर गवई की पीठ ने हाईकोर्ट्स में लंबित मामलों पर रिपोर्ट तलब की थी। उन्होंने खासतौर पर इलाहाबाद हाई कोर्ट, राजस्थान, मध्य प्रदेश, पटना, ओडिशा और बॉम्बे हाईकोर्ट में लंबित मुकदमों के अंबार को लेकर चिंता जाहिर की थी।

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फिलहाल लंबित मुकदमों के मामले में भारत पहले स्थान पर है। दुनिया में अपनी धाक जमाने की जद्दोजहद के इस दौर में हमारी न्याय व्यवस्था की यह हालत नि:संदेह एक बुरे सपने सरीखी है। समय-समय पर कानून विशेषज्ञ इसके लिए चेताते भी रहे हैं। अपने कार्यकाल के अंतिम दिन, 26 अगस्त, 2022 को चीफ जस्टिस एनवी रमण ने कहा था- लंबित केस भारत के लिए बड़ी चुनौती हैं। वहीं, नीति आयोग ने 2018 में अपनी रिपोर्ट में कहा था- इसी रफ्तार से केस निपटाए गए तो 324 साल लग जाएंगे। नीति आयोग की इस टिप्पणी के समय लंबित केसों की संख्या 2.9 करोड़ थी। ऐसे में समझा जा सकता है कि पांच करोड़ लंबित मुकदमों को निपटाने में कितनी सदियां लगेगीं। ऐसा नहीं है कि कार्यकारी संस्थाएं इस समस्या के कारणों से वाकिफ नहीं हैं। अदालतों, जजों और वकीलों की कमी से लेकर विवेचना में देरी, पक्षकारों की ढिलाई और अदालतों का डिजिटलीकरण न होने के साथ ही अन्य तमाम कारण हैं, जो मुकदमों की सुनवाई में देरी की वजह बनते हैं। विधि मंत्रालय के आंकड़ों की मानें तो वर्तमान में देश में 10 लाख की आबादी पर 19 न्यायाधीश हैं, जो न्याय व्यवस्था की खस्ता हालत का ही नमूना है। निचली अदालतों में जजों के लिए कुल स्वीकृत पद 25042 में से 5850 खाली हैं। वहीं 19 दिसंबर, 2022 तक उच्च न्यायालय में जजों के लिए स्वीकृत 1108 पदों के मुकाबले 775 पर ही नियुक्ति थी। ये आंकड़े बताते हैं कि निचली और उच्च न्याय व्यवस्था का बोझ स्वीकृत पदों के मुकाबले दो तिहाई जज ही अपने कंधों पर उठाए हुए हैं। पिछले दिनों वर्तमान मुख्य न्यायाधीश यह कह चुके हैं कि 63 लाख मुकदमे वकीलों की कमी और 14 लाख से अधिक मुकदमे दस्तावेजों की कमी से अटके पड़े हैं।

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बेहतर न्याय व्यवस्था के लिहाज से तमाम नकारात्मक आंकड़ों के बीच एक खबर थोड़ा सुकून देने वाली भी है। जजों की नियुक्ति की बाबत कॉलेजियम के साथ लंबी खींचतान के बाद आखिरकार सरकार के रुख में नरमी आई है। कॉलेजियम की सिफारिश पर जजों की नियुक्ति पर सकारात्मक रवैये के साथ ही सरकार ने न्यायिक नियुक्तियों को लेकर निर्धारित समय सीमा का पालन करने का भी भरोसा दिया है। अगर सरकार अपने वादे पर खरी उतरी तो इसमें कोई दोराय नहीं कि इससे सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट्स में लंबित मुकदमों को निपटाने में मदद मिलेगी। जिला और अधीनस्थ अदालतों की बेहतरी की बाबत सरकार की ओर से इससे कहीं अधिक गंभीरता दिखाए जाने की जरूरत है। आखिर, ये अदालतें न्याय व्यवस्था की रीढ़ हैं। देशदुनिया की लेटेस्ट खबरों से अपडेट रहने के लिए हमेंफेसबुकपर लाइक करें याट्विटरपर फॉलो करें। News uploaded from Noida