UP News : उत्तर प्रदेश भारत (India) का सबसे बड़ा प्रदेश है। हाल ही में जारी हुई एक सर्र्वे रिपोर्ट में उत्तर प्रदेश को लेकर बड़ा दावा किया गया है। सर्वे रिपोर्ट में किए गए बड़े दावे में उत्तर प्रदेश की पॉजिटिव छवि की बजाय नेगेटिव छवि दर्ज की गर्ई है। सर्वे रिपोर्ट में यह बड़ा दावा किया गया है कि अपने नागरिकों को इंसाफ देने के मामले में उत्तर प्रदेश फिसड्डी साबित हुआ है। उत्तर प्रदेश की व्यवस्था इस बात पर जरूर संतोष कर सकती है कि इंसाफ देने के मामले में उत्तर भारत के ज्यादातर राज्य फेल साबित हुए हैं।
क्या है पूरा मामला जिसमें फिसड्डी साबित हुआ है उत्तर प्रदेश
आपको बता दें कि हाल ही में वर्ष 2025 की इंडिया जस्टिस रिपोर्ट (IJR ) प्रकाशित हुई है। IJR- 2025 की रिपोर्ट में अपने नागरिकों को इंसाफ देने के मामले में उत्तर प्रदेश जैसा बड़ा प्रदेश फिसड्डी साबित हुआ है। आईजेआर-2025 की रिपोर्ट में पुलिस, जेल, कानूनी सहायता, न्यायपालिका तथा मानवाधिकार के मामलों का पूरा मूल्यांकन किया गया है। IJR- 2025 की इस रिपोर्ट में सुकून की बात यह है कि पिछले सालों के मुकाबले इंसाफ देने के मामले में मामूली सुधार दर्ज हुआ है। रिपोर्ट में एक चिंता का विषय भी है, क्योंकि यह सुधार मुख्य रूप से दक्षिण भारत के राज्यों में देखा गया है. ये सभी राज्य रिपोर्ट में शीर्ष पांच स्थानों पर हैं. ये राज्य हैं कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, केरल और तमिलनाडु दूसरी ओर, लोगों को न्याय मुहैया कराने के मामले में कई उत्तर भारतीय राज्यों में बहुत मामूली सा सुधार हुआ है जबकि कई राज्यों का प्रदर्शन तो इस मामले में औसत से नीचे रहा है. पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, झारखंड और राजस्थान का प्रदर्शन इस मामले में ख़राब रहा है. लखनऊ स्थित एसोसिएशन फॉर एडवोकेसी एंड लीगल इनिशिएटिव (एएएलआई) की निदेशक और अधिवक्ता रेणु मिश्रा ने बीबीसी हिंदी से कहा, “उत्तरी राज्यों और दक्षिणी राज्यों के लोगों की मानसिकता में अंतर है. उत्तर भारत के सामाजिक ढांचे में कुछ ग़लत करने पर दंड देने जैसा माहौल ही नहीं है. “
उत्तर प्रदेश में IPS रहे अधिकारी ने बताया पूरा कारण
कर्नाटक के रिटायर्ड DGP और भारत के सतर्कता आयुक्त आर श्रीकुमार IJR- 2025 की रिपोर्ट में उत्तरी राज्यों और दक्षिणी राज्यों के बीच के अंतर को अलग तरह से देखते हैं. उनका कहना है, “दक्षिणी राज्यों ने पुलिस आधुनिकीकरण, न्याय प्रणाली के डिजिटलीकरण, पुलिस और न्यायपालिका में लैंगिक प्रतिनिधित्व जैसी पहलों के ज़रिए जनता की ज़रूरतों के प्रति संवेदनशीलता दिखाई है.” कर्नाटक में सेवा देने से पहले श्रीकुमार ने उत्तर प्रदेश से अपना आईपीएस करियर शुरू किया था. इसके बाद उन्होंने दिल्ली और तमिलनाडु में 11 साल तक सीबीआई में काम किया और फिर कर्नाटक में अपनी सेवा दी.
श्रीकुमार कहते हैं, “मैंने देखा कि उत्तर भारतीय राज्यों में आपको लगातार फ़ायर-फ़ायटिंग मोड में रहना होता है. वहां प्राथमिकताओं पर विचार करने, योजना बनाने और उन्हें लागू करने के लिए बहुत कम समय था.” इंडिया जस्टिस रिपोर्ट पूरी तरह से सरकारी आंकड़ों पर आधारित है. इसका मक़सद है कि इस रिपोर्ट की फ़ाइंडिंग का इस्तेमाल करके नीति निर्माता न्याय प्रदान करने में परिवर्तन या सुधार करने के लिए एक व्यापक योजना बना सकें. इस रिपोर्ट को टाटा ट्रस्ट ने आधा दर्जन से अधिक अन्य संगठनों के सहयोग से तैयार किया है. IJR-2025 की रिपोर्ट में कहा गया है, “हर राज्य ने अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए वैधानिक रूप से अनिवार्य कोटा निर्धारित किया है. लेकिन कर्नाटक को छोड़कर कोई भी राज्य इन आरक्षणों को पूरा नहीं कर पाया है.”
“महिलाओं के लिए भी कोई राज्य या केंद्र शासित प्रदेश अपने आरक्षित कोटे को पूरा नहीं करता है. पुलिस बल में महिलाओं की हिस्सेदारी 11.8 फ़ीसदी है और इसे 33 फ़ीसदी तक ले जाना है.” आईजेआर के अनुसार, “राष्ट्रीय स्तर पर पुलिस में महिला कर्मियों की हिस्सेदारी 3.31 फ़ीसदी से बढ़ाकर 11.8 फ़ीसदी तक ले जाने में जनवरी 2007 से जनवरी 2022 तक 15 साल लग गए.” कई राज्यों ने पुलिस स्टेशनों में महिला डेस्क बनाने के मामले में सुधार किया है. आंध्र प्रदेश और बिहार जैसे कुछ राज्य तीन साल में सामान्य रिक्तियों का बैकलॉग पूरा कर सकते हैं. लेकिन झारखंड, त्रिपुरा जैसे कुछ राज्य और अंडमान एवं निकोबार जैसे केंद्र शासित प्रदेश भी हैं, जिन्हें महिलाओं के पदों को भरने में कई पीढ़ियां लग सकती हैं.
उत्तर प्रदेश की अधिवक्ता ने किया विश्लेषण
उत्तर प्रदेश की प्रसिद्घ अधिवक्ता रेणु मिश्रा ने बताया कि पुलिस स्टेशन के स्तर पर महिलाओं से जुड़ी शिकायतों का निपटारा किस तरह से होता है. वो कहती हैं, “हाल ही में नियुक्त एक जज ने मुझे बताया कि बिहार के एक ज़िले में घरेलू हिंसा का कोई मामला दर्ज नहीं किया गया. यह चौंकाने वाली बात थी क्योंकि वहां समुदाय में हर कोई जानता है कि घरेलू हिंसा होती है.” “लेकिन, फिर मुझे याद आया कि मुझे ख़ुद एक शिकायत दर्ज करवाने के लिए पूरे दिन पुलिस स्टेशन में इंतज़ार करना पड़ा, क्योंकि कांस्टेबल शिकायत न लेने के कई कारण बता रहा था.”
रेणु मिश्रा ने एक और घटना का ज़िक्र किया. वो बताती हैं, “एक महिला पर अपनी बेटी के मंगेतर के साथ चले जाने का आरोप लगाया गया था. इसे दो वयस्कों के बीच के रिश्ते के रूप में नहीं देखा गया.” “महिला इसलिए चली गई क्योंकि वो घरेलू हिंसा की शिकार थी. इस पहलू को नहीं दिखाया जाता और पुलिस स्टेशन में भी कोई इस पहलू पर ध्यान नहीं देता, क्योंकि यह पुरुषवादी व्यवस्था है.” वो कहती हैं, “जो लोग अपराध करते हैं उन्हें भरोसा होता है कि उनके साथ कुछ नहीं होगा. सबसे पहले तो शिकायत दर्ज ही नहीं की जाती. और अगर दर्ज हो भी गई तो कोई कार्रवाई नहीं की जाती.”
भूतपूर्व IPS अधिकारी किरण बेदी का नजरिया
इस मामले में देश की पहली महिला आईपीएस अधिकारी किरण बेदी का कहना है कि “असली बदलाव तब आता है जब महिलाएं नेतृत्व करें, निर्णय लें और व्यवस्था को आकार दें, ना कि केवल कोटा भरें.” उन्होंने कहा, “इसके लिए इकोसिस्टम अभी भी नहीं है. यह अब भी एक सामंती संस्कृति और मर्दों की दुनिया है.” लेकिन पटना हाई कोर्ट की पूर्व न्यायाधीश अंजना प्रकाश इस राय से सहमत नहीं हैं कि कुछ अहम पदों पर ही महिलाएं होंगी तभी बदलाव होगा. उन्होंने बीबीसी हिंदी से कहा, “हम महिलाओं को उनके काम में महारत हासिल करते हुए देख रहे हैं, चाहे वे किसी भी पद पर हों, चाहे उस रोल को अहम माना जाए या नहीं.” आईजेआर रिपोर्ट बताती है कि कॉन्स्टेबल स्तर पर 21 फ़ीसदी और अधिकारी स्तर पर 28 फ़ीसदी पद खाली हैं.
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न्याय प्रणाली के अगले स्तर पर देखें तो 140 करोड़ की आबादी के लिए न्यायपालिका में 21,285 जज हैं. विधि आयोग हर 10 लाख आबादी पर 50 जजों की सिफ़ारिश करता है. उच्च न्यायालयों में 33 फ़ीसदी पद खाली हैं. वहीं ज़िला न्यायपालिका में 21 फ़ीसदी पद खाली हैं. उदाहरण के तौर पर देखें तो उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में हर एक जज पर 15 हज़ार मामलों का भार है. राष्ट्रीय स्तर पर अगर बात करें तो ज़िला न्यायालय के एक जज के पास 2,200 मामलों का बोझ है. हमारे देश की आधी से ज़्यादा जेलों में क्षमता से अधिक क़ैदी हैं. इनमें से 76 फ़ीसदी क़ैदी ऐसे हैं जिनके मामले अभी विचाराधीन यानी अंडर ट्रायल हैं. उत्तर प्रदेश की मुरादाबाद और ज्ञानपुर जेल, पश्चिम बंगाल की कोंडी उप जेल और दिल्ली में तिहाड़ की केंद्रीय जेल नंबर एक और चार; जैसी जेलों में इनकी क्षमता से 400 फ़ीसदी अधिक क़ैदी हैं. UP News :
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