Rahi Masoom Raza: “मैं समय हूं, और आज ‘महाभारत’ की अमर कथा सुनाने जा रहा हूं।…. और यह कथा मेरे सिवाय दूसरा कोई सुना भी नहीं सकता… और जब तक मैं हूं, यह महायुद्ध चलता ही रहेगा… और मेरा कोई अंत नहीं.. मैं अनंत हूं… “
युगों -युगों तक जीवंत रहने वाली इन पंक्तियों को कलम की जादूगरी से अनंत काल तक समय के क्षितिज पर शब्द देने वाला कोई और नहीं, बल्कि महान लेखक,कथाकार, संवाद- शिल्पी, राही मासूम रज़ा ने महाभारत महाकाव्य को सिनेमाई परंपरा में ढालने के बावजूद सभ्यता और संस्कृति की चाशनी से सराबोर कर दिया था।
Rahi Masoom Raza एक ऐसा नाम, एक ऐसी शख्सियत जिनकी लेखनी ने आम जन से लेकर सिनेमा और भारतीय टीवी की दुनिया को एक खास पहचान दी। उनकी लेखनी में पटकथा, संवाद कहानी और कविता लेखन के साथ शायरी और गीतों में न सिर्फ वर्तमान बल्कि आने वाली पीढ़ी के लिए कभी ना भूलने वाली कलात्मक विरासत भी है।
प्रारंभिक जीवन
टीवी सीरियल महाभारत की पटकथा और संवाद से ख़ासे लोकप्रिय बने राही मासूम रजा का जन्म 1 सितंबर 1927 को उत्तर प्रदेश के गाजीपुर में हुआ था। अलीगढ़ के एक मोहल्ले, बदर बाग में रहते हुए राही ने अपनी सृजनात्मक कला को एक खास मुकाम पर पहुंचाया। गाजीपुर जिले के गंगौली गांव में पैदा हुए राही की स्कूली शिक्षा गाजीपुर में ही हुई । इंटरमीडिएट करने के बाद वे अलीगढ़ आ गए और यही से एम ए करने के बाद उर्दू में ‘तिलिस्म -ए -होशरूबा’ पर पीएचडी की । पीएचडी करने के बाद उन्हें अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़ के उर्दू विभाग में प्राध्यापक बनने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ।
निर्माण काल
अलीगढ़ में रहते हुए उनका झुकाव साम्यवादी विचारधारा के प्रति बढ़ने लगा और साम्यवादी दृष्टिकोण के प्रति बढ़ते लगाव के कारण ही उन्हें भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता भी मिल गई । उनके जीवन का यह कालखंड जो उनके व्यक्तित्व निर्माण का काल भी है। वक्त के इसी पड़ाव ने उन्हें बड़े ही शिद्दत और उत्साह से साम्यवादी विचारधारा की ओर आकर्षित किया। समाज में व्याप्त विसंगतियों, विषमताओं और पिछड़ेपन को दूर करने की प्रेरणा उन्हें इन्ही प्रगतिशील विचाराधाराओं से मिली।
रचना संसार (राही की कलम से)
महज 19 वर्ष की उम्र में 1946 में राही ने लिखना शुरू कर दिया था और उनका पहला उपन्यास ‘मोहब्बत के सिवा’ 1950 में उर्दू में प्रकाशित हुआ। कवि के तौर पर उनकी कविताएं ‘नया साल मौजे गुल में मौजे सबा‘, उर्दू में 1954 में प्रकाशित हुई। उनकी कविताओं का पहला संग्रह ‘रक्स ए मैं‘ उर्दू में प्रकाशित हुआ । ‘रक्स ए मैं’ के प्रकाशित होने से पहले ही उन्होंने एक महाकाव्य “अठारह सौ सत्तावन “ की रचना कर दी थी, जो बाद में “छोटे आदमी की बड़ी कहानी” नाम से प्रकाशित हुई। लेकिन राही साहब का बहुचर्चित उपन्यास “आधा गांव” 1966 में प्रकाशित हुआ। “आधा गांव” ने राही को उपन्यास कारों की पहली पंक्ति में खड़ा कर दिया ।”आधा गांव” उपन्यास, गाजीपुर के गंगौली गांव में शिक्षा-समाज की कहानी बयां करता है। अपने इस उपन्यास के बारे में राही साहेब कहते हैं “यह उपन्यास वास्तव में मेरा एक सफर था। मैं गाजीपुर की तलाश में निकला हूं लेकिन मैं अपनी गंगौली में ठहरूंगा अगर गंगौली की हकीकत पकड़ में आ गई तो मैं गाजीपुर का एपिक लिखने का साहस करूंगा।”
उनका दूसरा उपन्यास “हिम्मत जौनपुरी” 1969 में प्रकाशित हुआ। यहां खास बात यह है कि हिम्मत जौनपुरी राही के बचपन के मित्र थे। 1969 में ही राही साहब का तीसरा उपन्यास “टोपी शुक्ला” भी प्रकाशित हुआ । राही साहब ने इस उपन्यास में राजनीतिक समस्या के विषय को गांव के लोगों के जीवन के सहारे रेखांकित किया है। इस उपन्यास में सन 1947 में भारत-पाकिस्तान के विभाजन के प्रभाव ने जो जख़्म लोगों के दिलो दिमाग पर छोड़ा, उससे हिंदुओं और मुसलमान का मिलकर रहना दुश्वार हो गया।
” ओस की बूंद” उपन्यास भी हिंदू – मुस्लिम के बिगड़ते रिश्तों और संबंधों में आई दूरियों को दिखलाने का प्रयास है। पाकिस्तान बनने के बाद जो सांप्रदायिक दंगे हुए उसका सजीव चित्रण Rahi Masoom Raza के इस उपन्यास में देखने को मिलता है।
सन 1973 में राही साहेब का पांचवा उपन्यास “दिल एक सादा कागज” आया जिसमें राही साहेब ने विभाजन के कारण उपजे दर्द एवं शून्यता के बाद धीरे-धीरे सामान्य होती जिंदगी का चित्रण किया है। दोनों कौमों के लोगों ने शांतिपूर्ण जीवन के सत्य को समझते हुए समाज में अमन चैन के रास्ते पर चलना ही बेहतर और समझदारी भरा माना। इस उपन्यास में फिल्मी कहानीकारों के जीवन की गतिविधि, आशा-निराशा और सफलता-असफलता का चित्रण बखूबी उभर कर आता है।
सन् 1977 में आया उनका उपन्यास “सीन 75” में उन्होंने मुंबई महानगर की बहुरंगी दुनिया में जिंदगी जीने की जद्दोजहद और एक मुकाम पाने की ज़िद को दिखाया है।
उनके उपन्यास “कटरा बी आर्जू” में इमरजेंसी के समय जहां प्रशासन के रवैये से आम जनता के परेशान होने की घटनाओं का जिक्र है, वहीं समाज पर राजनीतिक नीतियों के कारण जो डर और भय का एक माहौल बनता है उसे राही ने इस उपन्यास में बहुत ही सलीके दिखलाया है।
अन्य कृतियां :
“मैं एक फेरीवाला”, “शीशे का मकां वाले”, “गरीब शहर”, “क्रांति कथा” (काव्य संग्रह), “हिंदी में सिनेमा और संस्कृति”, “लगता है बेकार हो गए हम”, “खुदा हाफिज कहने का मोड़” (निबंध संग्रह) साथ ही उनके उर्दू में सात कविता संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं। इन सबके अलावा राही ने फिल्मों के लिए लगभग 300 पटकथाएं भी लिखीं। साथ ही करीब दर्जन भर कहानियां भी उन्होंने लिख डाले।
“नीम के पेड़ सीरियल” में राही के लिखे कहानी का बुधई का पात्र जाने-माने अभिनेता पंकज कपूर ने निभाया और गजल गायकी की दुनिया के मखमली गायक जगजीत सिंह ने शायर निद़ा फाजली के लिखे ‘मुंह की बात सुने हर कोई दिल के दर्द को जाने कौन आवाजों के बाजारों में खामोशी पहचाने कौन’। उस दौर के टीवी प्रोग्राम की कामयाबी की उड़ान-भर थी। आने वाला समय पूरा आसमान राही का इंतजार कर रहा था जब महाकाव्य महाभारत की पटकथा ने उन्हें पूरे विश्व में एक बार फिर से नई ऊंचाईयों पर पहुंचा दिया।
उनकी लिखी कामयाब फिल्मों की फेहरिस्त में ‘आलाप’, ‘गोलमाल’और ‘कर्ज’ को लोग आज भी याद करते हैं।
अवार्ड
“मैं तुलसी तेरे आंगन की”, “मिली” और “लम्हे” के लिए उन्हें संवाद लेखन का सर्वश्रेष्ठ फिल्म फेयर अवार्ड से नवाजा गया।
उनकी कविताएं न सिर्फ द़िल पर असर छोड़ती है बल्कि दिमाग में भी झनझनाहट पैदा कर देती है।
ऊफ़ और आक्रोश का संप्रेषण उनकी रचनाओं में इस कदर आया है कि गर्म लोहे के दर्प-दमन की ख़ीज की गहरी रेखा हमारे दिमाग पर अमिट छाप छोड़ जाती है। उनकी कविता की एक बानगी देखिए-
“मैं एक फेरीवाला में ” राही किस तरह पाठकों के मन मस्तिष्क में हलचल मचा देता है।
“मेरा नाम मुसलमानो जैसा है मुझको कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो।
लेकिन मेरी रग रग में गंगा का पानी दौड़ रहा है,
मेरे लहु से चुल्लू भरकर
महादेव के मुंह पर फ़ैंको,
और उस योगी से यह कह दो महादेव! अपनी इस गंगा को वापस ले लो,
ये हम ज़लील तुर्कों के बदन में
गाढ़ा, गर्म लहु बन-बन कर दौड़ रही है।”
राही की वसीयत
Rahi Masoom Raza धर्मनिरपेक्षता के पक्के और कट्टर प्रणेता थे। उनके लिए निज़ी मजहब से ऊपर धर्मनिरपेक्षता ज्यादा व्यापक थी। उनके विचार में गंगा सबकी है। अपने नज़्म ‘वसीयत’ में राही लिखते हैं, मैं तीन मांओं का बेटा हूं। नफीसा बेगम, अलीगढ़ यूनिवर्सिटी और गंगा। नफीसा बेगम मर चुकी है, अब साफ़ याद नहीं आतीं। बाकी दोनों माँएं जिंदा है और याद भी हैं।
“मेरा फन तो मर गया यारों
मैं नीला पड़ गया यारों
मुझे ले जा के ग़ाज़ीपुर की गंगा की गोद में सुला देना
अगर शायद वतन से दूर मौत आए
तो मेरी यह वसीयत है
अगर उस शहर में छोटी सी एक नदी भी बहती हो तो मुझको
उसकी गोद में सुलाकर
उनसे कह देना कि गंगा का बेटा आज से तेरे हवाले है।”
15 मार्च 1992 को इस महान लेखक, उपन्यासकार, शायर, कवि, पटकथा लेखक, संवाद लेखक का निधन हो गया। लेकिन वह आज भी हमारे संवाद वाहक के रूप में हमारे बीच जिंदा हैं!
जे॰ पी॰ सिद्धार्थ
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