पहले रत्न थे अब हैं काँच के टुकड़े
विनय संकोची
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एक समय था जब भारतीय राजनीति में ‘बहुमूल्य रत्नों’ की भरमार थी, आज तो हर दल में कृत्रिम आभा वाले काँच के टुकड़े ही दिखाई देते हैं। जैसे रत्न हैं, वैसे ही पारखी हैं। रत्न भी आर्टिफिशल और पारखी भी ऐसे, जो नकली रत्नों के कहने पर ही उन्हें अनमोल बता देते हैं। आज उत्तर प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री और देश के चौथे गृहमंत्री भारत रत्न पं. गोविन्द वल्लभ पंत जी का जन्म दिवस है। पंत जी का भारत के स्वतंत्रता संघर्ष में विशेष योगदान रहा। पंत जी गांधी जी के आह्वान पर असहयोग आंदोलन के रास्ते खुली राजनीति में उतरे थे। साइमन कमीशन के बहिष्कार और नमक सत्याग्रह में भी उन्होंने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। जेल की हवा भी खायी।
पंत जी महाराष्ट्रीयन ब्राह्मण थे और उनका जन्म वर्तमान उत्तराखंड के अलमोड़ा जिले के गांव खूंट में हुआ था। इलाहाबाद से कानून की डिग्री सर्वोच्च अंकों में हासिल कर पंत जी ने अलमोड़ा आकर वकालत शुरू की। वकालत के सिलसिले में वे पहले रानीखेत गये फिर काशीपुर। काशीपुर में पंत जी ने प्रेम सभा नाम की संस्था बनाई जिसका उद्देश्य शिक्षा और साहित्य के प्रति जनता में जागरूकता उत्पन्न करना था। पंत जी की इस संस्था का कार्य इतना व्यापक था कि ब्रिटिश स्कूलों को काशीपुर से बोरिया बिस्तर समेटकर भागना पड़ा।
पंत जी का मुकदमा लडऩे का ढंग भी निराला ही था, जो मुवक्किल अपने मुकदमों के बारे में सही जानकारी नहीं देते थे, पंत जी उनका मुकदमा नहीं लेते थे। काशीपुर में एक बार वे धोती, कुर्ता और गांधी टोपी पहनकर कोर्ट में चले गये। वहां मजिस्टे्रट ने आपत्ति जताई, तो पंत जी यह कहकर लौट आये कि- ‘तुम्हारे कोर्ट में पैर नहीं रखूंगा’- और उन्होंने ऐसा किया भी।
आधुनिक उत्तर भारत के निर्माता पं. गोविन्द बल्लभ पंत जी अपने समय देश भर में सबसे अधिक हिंदी प्रेमी के रूप में पहचाने जाते थे। उन्होंने ही 4 मार्च, 1925 को जनभाषा के रूप में हिंदी को शिक्षा और और कामकाज का माध्यम बनाने की मांग उठाई थी। पंत जी के ही प्रयासों से हिंदी को राजभाषा का दर्जा मिला। हिंदी के बारे में पंत जी का कहना था- ‘हिंदी भाषा नहीं भावों की अभिव्यक्ति है।’
पंत जी प्रखर वक्ता, नैतिक तथा चारित्रिक मूल्यों के उत्कृष्ट राजनेता, प्रभावी सांसद, कुशल प्रशासक और सिद्घांतों के प्रहरी थे। जमींदारी उन्मूलन पंत जी की सरकार का ही ऐतिहासिक और साहसिक निर्णय था, जिसने लाखों किसानों का भाग्य बदल दिया।
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के संस्थापक पं. मदनमोहन मालवीय को अपना गुरु मानने वाले पंत जी ने काकोरी कांड, मेरठ षडय़ंत्र के क्रांतिकारियों के अलावा प्रताप समाचार पत्र के सम्पादक श्री गणेश शंकर विद्यार्थी के उत्पीडऩ के विरोध में अदालतों में प्रभावशाली ढंग से पैरवी की थी। उन्होंने कुली बेगारी के विरोध में सफल आंदोलन चलाया था।
1932 में पंत जी, पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ बरेली और देहरादून की जेलों में बंद रहे। नेहरू इनसे बहुत प्रभावित हुए। जब कांग्रेस ने 1937 में सरकार बनाने का निर्णय लिया तो बहुत सारे नामों के बीच पंत जी का नाम ही नेहरू जी ने चुना।
पंत जी की पुस्तक ‘फॉरेस्ट प्रॉब्लम इन कुमाऊं’ से अंग्रेज इतने भयभीत हो गये थे कि इस पर प्रतिबंध लगा दिया था। गोविंद बल्लभ पंत के डर से ब्रिटिश सरकार काशीपुर को गोविन्द गढ़ कहती थी।
एक बार पंत जी ने सरकारी बैठक की। चाय-नाश्ते का प्रबंध किया गया। जब उसका बिल पास होने आया तो उसमें छह रुपये बारह आने लिखे हुए थे। पंत जी ने यह कहते हुए बिल पास करने से मना कर दिया कि- ‘सरकारी बैठकों में सरकारी खर्च से केवल चाय मंगवाने का ही नियम है। ऐसे में नाश्ते का बिल नाश्ता मंगवाने वाले व्यक्ति को खुद पे करना चाहिए। सरकारी खजाने पर जनता और देश का हक है, मंत्रियों का नहीं। बाद में नाश्ते के बिल का पंत जी ने अपनी जेब से भुगतान किया।’
पंत जी भारत के बहुमूल्य रत्न थे, ऐसे रत्न जिनकी आभा में राजनीति में स्वयं को महान् कहने और कहलवाने वाले कांच के टुकड़ों की कोई हैसियत नहीं है। पंत जी बड़े साहित्यकार भी थे, उन्होंने अपनी कलम को आजादी की लड़ाई में हथियार के रूप में बखूबी इस्तेमाल किया था। पंत जी का व्यक्तित्व इतना विराट और कृतित्व इतना महान् था जिन्हें चंद पंक्तियों में समेटना मुश्किल नहीं असंभव है। महामानव पंत जी को सादर नमन्!