Thursday, 25 April 2024

Spritual : धर्म – अध्यात्म

विनय संकोची वेदों में सूर्य को जगत की आत्मा कहा गया है। वैदिक काल में आर्य सूर्य को ही जगत…

Spritual : धर्म – अध्यात्म
विनय संकोची

वेदों में सूर्य को जगत की आत्मा कहा गया है। वैदिक काल में आर्य सूर्य को ही जगत का कर्ताधर्ता मानते थे। सर्व प्रकाशक, सर्व प्रवर्तक, सर्व प्रेरक, सर्व कल्याणकारी सूर्य को यजुर्वेद ने भगवान का नेत्र माना है।  ब्रह्मवैवर्त पुराण सूर्य को परमात्मा का स्वरूप मानता है, तो सूर्योपनिषद में सूर्य को ही संपूर्ण जगत की उत्पत्ति का एकमात्र कारण बताया गया है।

सूर्य देव चार रूपों में संसार का मंगल करते हैं, इनको सूर्य की चार मूर्तियां भी कहा जाता है। सूर्य के प्रथम मूर्ति राजसी है, संसार की रचना करने वाला यह रूप ब्राह्मी शक्ति का प्रतीक है। विष्णु रूप को भगवान भास्कर की द्वितीय मूर्ति कहा गया है। सूर्य की तृतीय मूर्ति को शंकर रूप में पूजा जाता है, जो उग्र गुणों वाली है। यह कल्प के अंत में संहार-शक्ति के रूप में प्रसिद्ध है। सूर्य की चतुर्थ मूर्ति अदृश्य रूप में जगत का कल्याण करती है और यह शक्ति  है ॐकार। संसार में दिखाई देने वाले सभी साकार और निराकार में यह शक्ति स्थित है। इसे शास्त्रों में श्रेष्ठ मूर्ति कहा है।

ब्रह्मा, विष्णु, महादेव आदि देवगणों का बिना साधना एवं भगवत कृपा के दर्शन हो पाना संभव नहीं है। किंतु भगवान सूर्य प्रतिदिन सब को प्रत्यक्ष दर्शन देते हैं। इसलिए प्रत्यक्ष देव सूर्य की नित्य उपासना का निर्देश वैदिक सूक्त पुराणों और आगम आदि ग्रंथों में किया गया है।

भगवान भास्कर की उपासना बारह महीनों में बारह नामों से की जाती है। माघ मास में वरुण, फाल्गुन में पूषा चैत्र में अंश, वैशाख में धाता, ज्येष्ठ में इंद्र, आषाढ़ में सविता, श्रावण मास में विवस्वान, भाद्रपद में भग, आश्विन में पर्जन्य, मार्गशीर्ष में मित्र और पौष माह में विष्णु नाम से भगवान सूर्य की पूजा अर्चना की जाती है।

सूर्यदेव दूर होकर भी जगत की प्राण शक्ति हैं। सूर्य के प्रकाश, सूर्य की ऊर्जा के बिना प्रकृति हो या प्राणी किसी का जीवन संभव नहीं है। सूर्य का यह गुण संकेत करता है कि व्यक्ति ऐसा व्यक्तित्व चरित्र और आचरण बनाए कि अपने गुणों से लोगों की आवश्यकता बन जाए। सूर्य का प्रकाश और ताप परोपकार व भलाई की प्रेरणा देते हैं  सूर्य पूर्व से उदित होकर पश्चिम में अस्त होता है, सूर्य का मार्ग और गति संकेत है कि जीवन में नाम पहचान और चमक पाने के लिए सूर्य की भांति ही सही दिशा में निर्धारित मार्ग का अनुसरण करना चाहिए। साथ ही समय व गति का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए।

वैदिक काल से ही सूर्योपासना प्रचलन में थी। पहले सूर्य की उपासना मंत्रों से होती थी बाद में मूर्ति पूजा प्रारंभ हुई और मंदिरों की स्थापना हुई। सूर्य देव परम परोपकारी हैं और मानव मात्र को सहज ही दीर्घायु प्रदान करने वाले हैं। द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र सांब को कोढ़ हो गया था, तब उनका यह रोग सूर्य उपासना से दूर हुआ था।

प्लीनी नामक एक विद्वान के अनुसार रोम में 600 वर्ष तक कोई चिकित्सक ही नहीं था और रोम वासी अपने रोगों की चिकित्सा के लिए केवल सूर्य प्रकाश चिकित्सा पर आश्रित थे।

शास्त्रों का कथन है कि भगवान सूर्य को दंडवत प्रणाम करने वाला सदैव सुख समृद्धि से परिपूर्ण रहता है, क्योंकि सूर्य देव को दंडवत प्रणाम अति प्रिय है। शास्त्र वचन के अनुसार भगवान भास्कर को जितना दंडवत प्रणाम किया जाए उतना ही अच्छा है और मंत्र बोला जाए – ” ॐ घृणि सूर्य आदित्य ॐ”।

Related Post