क्या टेनी की बदसलूकी के पीछे गोदी मीडिया का हाथ है!
टेनी की बदसलूकी से बना एक नया परसेप्शन वर्तमान दौर में या तो आप पक्ष में हैं या विपक्ष में।…
Anjanabhagi | December 17, 2021 1:10 AM
टेनी की बदसलूकी से बना एक नया परसेप्शन
वर्तमान दौर में या तो आप पक्ष में हैं या विपक्ष में। आज के समय में निष्पक्ष कोई नहीं है। सरकार या राजनीति से जुड़ी किसी भी घटना पर राय रखने वाले को इसी परसेप्शन के साथ देखा जाता है। ऐसे में अजय मिश्रा टेनी (Ajay Kumar Mishra Teni) का पत्रकार संग दुर्व्यवहार और उस पर टिप्पणी करने वाले भी इसी परसेप्शन (Perception) में फिट किए जाते हैं।
आमतौर पर कुछ मीडिया समूहों को गोदी मीडिया (Godi Media) की संज्ञा दे दी गई है। अजीब बात यह है कि इसी समूह के एक चैनल से जुड़ा पत्रकार मंत्री जी के इलाके में जाकर उनको मिर्ची लगाने वाला सवाल दाग देता है।
क्या मंत्री जी को यह जानकारी नहीं थी कि सवाल पूछने वाला पत्रकार भी चरणवंदना करने वाले गोदी मीडिया वर्ग से ताल्लुक रखता है? बात यहीं खत्म नहीं होती। इसी चैनल की सबसे तेजतर्रार ऐंकर अपने ट्विटर (twitter) पेज पर इस वीडियो को शेयर भी कर देती हैं। बात जो भी हो लेकिन, यह परसेप्शन (Perception) में फिट नहीं बैठती।
सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग भी परसेप्शन का शिकार
परसेप्शन केवल मीडिया (Media) के खिलाफ ही नहीं बनाया गया। अयोध्या मामले (Ayodhya Dispute) में राम मंदिर के पक्ष में फैसला आने के बाद सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) को भी इसी परसेप्शन में बांधने की कोशिश की गई थी। हालांकि, वही सुप्रीम कोर्ट अपनी निगरानी में लखीमपुर मामले (Lakhimpur Kheri Case) की एसआईटी (SIT) जांच करा रहा है और एसआईटी की रिपोर्ट में ही उस घटना को साजिश बताया गया है।
याद कीजिए 2014 का लोकसभा चुनाव और 2017 का यूपी विधानसभा चुनाव (UP Election) और इनके नतीजे। देश भर में ईवीएम (EVM) और चुनाव आयोग (Election Commission) के बारे में भी ऐसा ही परसेप्शन बनाने की पुरजोर कोशिश की गई थी। लेकिन, उसी ईवीएम (EVM) और चुनाव आयोग ने जब दिल्ली और पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के नतीजे जारी किए तो क्या हुआ? क्या परसेप्शन बनाने वालों ने देश की दो शीर्ष संवैधानिक संस्थाओं से माफी मांगी?
अवसरवादिता का आरोप नेताओं और राजनीतिक दलों पर लगाया जाता है लेकिन, अपने हित के लिए संवैधानिक संस्थाओं को कटघरे में खड़ा करने वाले अवसरवादी नहीं हैं?
आखिर ऐसा क्यों हो रहा है?
आजादी के बाद ऐसा पहली बार हुआ है कि कांग्रेस (Congress) के अलावा किसी पार्टी को लोकसभा में स्पष्ट बहुमत मिला, वो भी एक नहीं, लगातार दो (2014 और 2019) बार। भारत की आजादी के बाद 1947 से 2014 तक लगभग 56 साल (1977-79, 1989-90 और 1996-2004 को छोड़कर) देश में कांग्रेस की ही सरकार रही।
केवल दो लोकसभा चुनाव जीतने के बाद वर्तमान सरकार पर मीडिया सहित संवैधानिक संस्थाओं को अपने प्रभाव में कर लेने का आरोप लग रहा है। सोचिए, जो पार्टी 56 साल तक सत्ता पर काबिज थी उसका प्रभाव कहां तक रहा होगा।
भारत जैसे विशाल देश में किसी एक नेता या राजनीतिक दल के पक्षा में जनमत का निर्माण आसान काम नहीं है। जाहिर सी बात है कि जो पार्टी इतने बड़े देश में प्रभाव पैदा करती है उसके समर्थक केवल वोटर (Voter) नहीं होते। उसे वोट देने वाले देश की लगभग हर संस्था में मौजूद होते हैं क्योंकि, देश के मुख्य न्यायाधीश (Chief Justice of India) से लेकर सेना प्रमुख तक चुनाव के दौरान वोट डालने जाते हैं। स्पष्ट है कि वह भी किसी न किसी पार्टी का समर्थन करते ही होंगे।
क्या हर वोटर पक्षपाती होता है?
तो क्या 56 साल तक जिस पार्टी के समर्थन में लगभर हर संस्थाओं से जुड़े लोग वोट डालते रहे वे सब पक्षपाती थे?
ऐसा पहली बार ऐसा हो रहा है कि देश की लगभग हर महत्वपूर्ण संस्था में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ रही है जो स्थापित वैचारिकीृ को चुनौती दे रहे हैं। वर्तमान भारत के राजनीतिक विमर्श का केंद्र सत्तारूढ़ दल और उसकी विचारधारा है। जबकि, पांच दशक से भी ज्यादा समय तक राज करने वाले दल की न सिर्फ साख कमजोर हुई है बल्कि, उसका वैचारिक आकर्षण भी धूमिल हुआ है।
क्या लोकतंत्र कमजोर हो रहा है?
संभवत: भारत में पहली बार बिना किसी आंदोलन, हिंसा या जनजागरण के सत्ता परिवर्तन हो रहा है। नई व्यवस्था के प्रति शंका, पूर्वाग्रह या सवाल उठना स्वाभाविक है। यह भारतीय लोकतंत्र (Democracy) के मजबूत होने का प्रमाण है कि तमाम विरोधों, शंकाओं और पूर्वाग्रहों के बावजूद नई सत्ता का विरोध भी लोकतांत्रिक ढंग से हो रहा है।
नागरिकता संशोधन कानून (CAA) के खिलाफ चला आंदोलन, कृषि कानून (Farm Laws) विरोधी किसान आंदोलन (Farmers Protest) इस बात का सबूत है कि तंत्र पर अभी भी लोक (जनता) ही भारी है। हमें 1947 और 1977 का वह दौर नहीं भूलना चाहिए जब सत्ता परिवर्तन से पहले देश को किस यातना से गुजरना पड़ा था।
एक से अधिक विचारधाराओं के बीच सत्ता के लिए शांतिपूर्ण संघर्ष ही लोकतंत्र का आधार है। वरना, सत्ता परिवर्तन तो अफगानिस्तान में भी हुआ है।
– संजीव श्रीवास्तव