अंशु नैथानी
संसद के कामकाज के दिन कम करने के पीछे की मंशा क्या है? लगातार आठ बार से संसद (Parliament of India) के सत्रों की समय अवधि को घटाया जा रहा है। 2020 से ही यह सिलसिला जारी है। संसद के शीतकालीन सत्र को एक हफ्ता पहले ही खत्म कर दिया गया। कारण बताया गया क्रिसमस और नए साल की छुट्टियों के मद्देनजर सदस्यों की यही भावना थी। 7 दिसंबर को शुरू हुए संसद के शीतकालीन सत्र में 9 बिल पेश किए गए, लोकसभा में 7 विधेयक पास हुए और राज्यसभा में 9 विधेयक पास किए गए । संसद (Parliament of India) का शीतकालीन सत्र केवल 13 दिन ही चल पाया। इससे पहले 2020 का मॉनसून सत्र सबसे कम दिनों के लिए मात्र 10 दिन ही चल पाया था ।पिछले आठ संसद सत्रों में 36 दिनों के काम का नुकसान हो चुका है। पिछले 50 साल की बात करें तो संसद की बैठको की संख्या निरंतर घटती जा रही है जो अब घटकर लगभग आधी रह गई है। 2020 के बजट सत्र के बाद 8 बार सत्र को समय से पहले खत्म कर दिया गया , इसमें करोना भी एक कारण रहा। लेकिन यह कारण सरकार के बाकी कार्यक्रमों या चुनावों पर उतनी उतावली से लागू होता नजर नहीं आया। जाहिर है सरकार उन मुद्दों पर चर्चा कराने से बच रही है जिन पर वह असहज है। संसद के शीतकालीन सत्र में दोनों ही सदनों में जब विपक्ष ने तवांग मामले पर चर्चा की मांग की, तो इस गंभीर मुद्दे पर चर्चा नहीं करवाई गई। इससे पहले तवांग की घटना पर रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने सदन में केवल 3 मिनट का बयान दिया था। क्या इस मुद्दे पर जनता को संसद में सरकार से सवाल का हक नहीं है? क्या यह इतना गंभीर मुद्दा नहीं है कि इस पर एक सार्थक बहस करवाई जाती?
आरजेडी सांसद मनोज झा ने संसद में महंगाई और गरीबी का मुद्दा उठाया था। उनका सवाल था देश में न्यूनतम मजदूरी इतनी कम क्यों है। महंगाई पर चर्चा की भी मांग की गई लेकिन यह विषय भी चर्चा के लायक नहीं समझा गया । केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल ने तो सांसद मनोज झा के भाषण के जवाब में बिहार पर ऐसी टिप्पणी कर दी, जो देश भर में चर्चा का विषय बन गई।और उस टिप्पणी को उन्हें वापस भी लेना पड़ा। बात साफ है, सामाजिक – आर्थिक और देश की सुरक्षा से जुड़े मुद्दे सरकार को अहम नहीं दिखाई देते। तमाम ऐसे मुद्दों पर चर्चा कराने से सरकार बचती रही है। पिछले कुछ समय में संसद (Parliament of India) में बहस कराने की परंपरा कम हुई है। लोकतंत्र में इस सर्वोच्च पंचायत में जनता प्रतिनिधियों को अपने सवाल उठाने के लिए भेजती है और सरकार से उन मुद्दों पर जवाब सुनना चाहती है और समस्याओं के समाधान का पुख्ता आश्वासन भी। लोकतंत्र में अगर यह परंपरा कमजोर पड़ेगी तो जवाबदेही के सवाल ऐसे ही टाल दिए जाएंगे। सत्तारूढ़ दल के पास विशाल बहुमत है, जो धीरे-धीरे एक किस्म के दंभ में परिवर्तित होता जा रहा है। किसी बिल को पास कराने के लिए अब सरकार को ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती ।विपक्ष के पास दबाव बनाने के लिए संख्या बल नहीं है। ऐसे में संसद में बहस की कमजोर धार और कामकाजी दिनों की कमी एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए यह कोई अच्छे संकेत नहीं है।
{इन पंक्तियों की लेखिका जानी मानी पत्रकार व एंकर हैं }
बिहार को लेकर ऐसा क्या बोल गए केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल जो मच गया बवाल, अब वापस लिए अपने शब्द