जाने पंजाब का ढोलबाहा, क्यों कहलाता है ‘फ़ौजियों का गाँव’?
ढोलबाहा केवल एक गाँव नहीं, बल्कि वीरता, त्याग, राष्ट्रप्रेम और ऐतिहासिक धरोहर का जीवंत प्रतीक है। यह परंपरा पीढ़ियों से चली आ रही है और आज भी उतनी ही मज़बूत है, जितनी प्रथम विश्व युद्ध के समय थी। इसीलिए ढोलबाहा को गर्व से कहा जाता है कि “फ़ौजियों का गाँव।”

पंजाब के होशियारपुर ज़िले में स्थित ऐतिहासिक गाँव ढोलबाहा अपनी बहादुरी, त्याग और वीरता की अनोखी परंपरा के लिए पूरे देश में जाना जाता है। प्रथम विश्व युद्ध से लेकर आज तक इस गाँव के सैकड़ों युवा भारतीय सेना और सुरक्षा बलों में सेवाएं देते आए हैं। इसी अद्वितीय सैन्य योगदान की वजह से इसे ‘फ़ौजियों का गाँव’ कहा जाता है।
पहले विश्व युद्ध से जुड़ी वीरता की विरासत
ढोलबाहा के 73 युवा पहले विश्व युद्ध में ब्रिटिश इंडियन आर्मी की ओर से युद्ध में शामिल हुए थे। इनमें से 8 सैनिक शहीद हो गए। इन वीरों में हवलदार धीरज सिंह भी शामिल थे, जिनकी तीसरी पीढ़ी आज भी गाँव में रहती है। परिवार के सदस्यों के अनुसार धीरज सिंह का व्यक्तित्व बेहद प्रभावशाली था। उनकी एक तस्वीर—जो आग लगने से नष्ट हो गई—उन्हें सुभाष चंद्र बोस जैसी वर्दी में दिखाती थी।
युद्ध स्मारक गाँव की शान
गाँव में प्रथम विश्व युद्ध के सैनिकों की याद में बना युद्ध स्मारक आज भी उनकी शहादत को जीवित रखता है। स्मारक की देखरेख वॉर मेमोरियल कमेटी करती है, जिसके अध्यक्ष रिटायर्ड सूबेदार मेजर शक्ति सिंह हैं। सैन्य इतिहासकार मंदीप बाजवा के अनुसार, युद्ध के बाद ब्रिटिश सरकार ने वीरता के लिए प्रसिद्ध गाँवों में ऐसी स्मारक-तख्तियां लगवाई थीं—ढोलबाहा उन्हीं में से एक है।
हर घर में एक फ़ौजी
गाँव के सरपंच मंगत राम के मुताबिक, ढोलबाहा के 623 घरों में से 317 में रिटायर्ड सैनिक रहते हैं, जबकि 306 युवा वर्तमान में सेना में सेवाएं दे रहे हैं। यानी लगभग हर घर में एक फ़ौजी मौजूद है। उनके पिता भी ड्यूटी के दौरान शहीद हुए थे। मंगत राम कहते हैं कि गाँव का नाम फ़ौजियों का गाँव कहलाता है, यह हमारे लिए गर्व की बात है। लेकिन शहीद के परिवार का दर्द वही समझ सकता है जिस पर बीतती है।
पीढ़ी दर पीढ़ी सेना में सेवा
हवलदार धीरज सिंह की तीसरी और चौथी पीढ़ी के अनेक सदस्य आज भी विभिन्न बलों में कार्यरत हैं पोते निर्मल सिंह बताते हैं कि उनका बड़ा भाई लांस नायक, भतीजा सूबेदार और दूसरा भतीजा बीएसएफ में हवलदार है।
क्यों चुनते हैं गाँव के युवा सेना?
गाँव में रोज़गार के सीमित साधनों और खेती की कम संभावनाओं के कारण यहाँ के युवा लंबे समय से सेना में भर्ती होते आए हैं। शक्ति सिंह का कहना है कि देशभक्ति का जज़्बा और रोजगार का भरोसा युवाओं को फ़ौज की ओर खींचता है। उच्च शिक्षा की सुविधाएं दूर होने से अधिकतर युवा दसवीं के बाद सेना का रुख करते हैं। सेना में आर्थिक सुरक्षा और समाज में सम्मान मिलता है।
इतिहास और पुरातत्व की धरोहर भी
ढोलबाहा केवल वीरों का ही नहीं, बल्कि प्राचीन सभ्यताओं का भी गाँव है। पुरातत्व विभाग की खुदाई में यहाँ से सैकड़ों वर्ष पुराने मूर्तियां, अवशेष और प्लाइस्टोसीन युग से संबंधित धरोहरें मिली हैं। गाँव में एक म्यूज़ियम भी है, जिसमें इन अवशेषों को संरक्षित किया गया है।
पंजाब के होशियारपुर ज़िले में स्थित ऐतिहासिक गाँव ढोलबाहा अपनी बहादुरी, त्याग और वीरता की अनोखी परंपरा के लिए पूरे देश में जाना जाता है। प्रथम विश्व युद्ध से लेकर आज तक इस गाँव के सैकड़ों युवा भारतीय सेना और सुरक्षा बलों में सेवाएं देते आए हैं। इसी अद्वितीय सैन्य योगदान की वजह से इसे ‘फ़ौजियों का गाँव’ कहा जाता है।
पहले विश्व युद्ध से जुड़ी वीरता की विरासत
ढोलबाहा के 73 युवा पहले विश्व युद्ध में ब्रिटिश इंडियन आर्मी की ओर से युद्ध में शामिल हुए थे। इनमें से 8 सैनिक शहीद हो गए। इन वीरों में हवलदार धीरज सिंह भी शामिल थे, जिनकी तीसरी पीढ़ी आज भी गाँव में रहती है। परिवार के सदस्यों के अनुसार धीरज सिंह का व्यक्तित्व बेहद प्रभावशाली था। उनकी एक तस्वीर—जो आग लगने से नष्ट हो गई—उन्हें सुभाष चंद्र बोस जैसी वर्दी में दिखाती थी।
युद्ध स्मारक गाँव की शान
गाँव में प्रथम विश्व युद्ध के सैनिकों की याद में बना युद्ध स्मारक आज भी उनकी शहादत को जीवित रखता है। स्मारक की देखरेख वॉर मेमोरियल कमेटी करती है, जिसके अध्यक्ष रिटायर्ड सूबेदार मेजर शक्ति सिंह हैं। सैन्य इतिहासकार मंदीप बाजवा के अनुसार, युद्ध के बाद ब्रिटिश सरकार ने वीरता के लिए प्रसिद्ध गाँवों में ऐसी स्मारक-तख्तियां लगवाई थीं—ढोलबाहा उन्हीं में से एक है।
हर घर में एक फ़ौजी
गाँव के सरपंच मंगत राम के मुताबिक, ढोलबाहा के 623 घरों में से 317 में रिटायर्ड सैनिक रहते हैं, जबकि 306 युवा वर्तमान में सेना में सेवाएं दे रहे हैं। यानी लगभग हर घर में एक फ़ौजी मौजूद है। उनके पिता भी ड्यूटी के दौरान शहीद हुए थे। मंगत राम कहते हैं कि गाँव का नाम फ़ौजियों का गाँव कहलाता है, यह हमारे लिए गर्व की बात है। लेकिन शहीद के परिवार का दर्द वही समझ सकता है जिस पर बीतती है।
पीढ़ी दर पीढ़ी सेना में सेवा
हवलदार धीरज सिंह की तीसरी और चौथी पीढ़ी के अनेक सदस्य आज भी विभिन्न बलों में कार्यरत हैं पोते निर्मल सिंह बताते हैं कि उनका बड़ा भाई लांस नायक, भतीजा सूबेदार और दूसरा भतीजा बीएसएफ में हवलदार है।
क्यों चुनते हैं गाँव के युवा सेना?
गाँव में रोज़गार के सीमित साधनों और खेती की कम संभावनाओं के कारण यहाँ के युवा लंबे समय से सेना में भर्ती होते आए हैं। शक्ति सिंह का कहना है कि देशभक्ति का जज़्बा और रोजगार का भरोसा युवाओं को फ़ौज की ओर खींचता है। उच्च शिक्षा की सुविधाएं दूर होने से अधिकतर युवा दसवीं के बाद सेना का रुख करते हैं। सेना में आर्थिक सुरक्षा और समाज में सम्मान मिलता है।
इतिहास और पुरातत्व की धरोहर भी
ढोलबाहा केवल वीरों का ही नहीं, बल्कि प्राचीन सभ्यताओं का भी गाँव है। पुरातत्व विभाग की खुदाई में यहाँ से सैकड़ों वर्ष पुराने मूर्तियां, अवशेष और प्लाइस्टोसीन युग से संबंधित धरोहरें मिली हैं। गाँव में एक म्यूज़ियम भी है, जिसमें इन अवशेषों को संरक्षित किया गया है।












