केरल निकाय चुनाव में शशि थरूर की भूमिका संदिग्ध, भाजपा की जीत से खुश

कांग्रेस सांसद शशि थरूर की भूमिका को लेकर भी नई अटकलों को जन्म दिया है। तिरुवनंतपुरम नगर निगम में भाजपा के अप्रत्याशित प्रदर्शन ने यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या राज्य की राजनीति किसी नए दौर में प्रवेश कर रही है।

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शशि थरूर और पीएम नरेंद्र मोदी
locationभारत
userयोगेन्द्र नाथ झा
calendar13 Dec 2025 07:10 PM
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Kerala Local Body Elections : केरल की राजनीति में हालिया स्थानीय निकाय चुनावों ने ऐसी हलचल पैदा कर दी है, जिसने न सिर्फ पारंपरिक राजनीतिक समीकरणों को चुनौती दी है, बल्कि कांग्रेस सांसद शशि थरूर की भूमिका को लेकर भी नई अटकलों को जन्म दिया है। तिरुवनंतपुरम नगर निगम में भाजपा के अप्रत्याशित प्रदर्शन ने यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या राज्य की राजनीति किसी नए दौर में प्रवेश कर रही है।

तिरुवनंतपुरम में भाजपा की बढ़त : एक संकेत, सिर्फ जीत नहीं

तिरुवनंतपुरम नगर निगम में भाजपा-नीत एनडीए का लगभग बहुमत तक पहुंचना केरल के राजनीतिक इतिहास में एक अहम घटना है। यह वही क्षेत्र है, जिसे लंबे समय से वाम दलों और कांग्रेस का गढ़ माना जाता रहा है। इस प्रदर्शन ने साफ कर दिया है कि शहरी मतदाता अब पारंपरिक विकल्पों से संतुष्ट नहीं हैं और नए राजनीतिक प्रयोग के लिए तैयार दिख रहे हैं। यह बदलाव सिर्फ सीटों की संख्या तक सीमित नहीं है, बल्कि मतदाताओं की सोच में आए परिवर्तन को भी दर्शाता है।

शशि थरूर का बदला हुआ तेवर: संयोग या संकेत?

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और तिरुवनंतपुरम से सांसद शशि थरूर का रुख हाल के दिनों में चर्चा का विषय बना हुआ है। पार्टी नेतृत्व की अहम बैठकों से उनकी अनुपस्थिति और भाजपा की जीत पर सार्वजनिक रूप से बधाई देना सामान्य राजनीतिक व्यवहार से अलग माना जा रहा है। थरूर का बयान लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति सम्मान को दर्शाता है, लेकिन साथ ही यह भी संकेत देता है कि वह कांग्रेस की मौजूदा रणनीति और नेतृत्व से पूरी तरह संतुष्ट नहीं दिख रहे। उनका यह रुख पार्टी के भीतर बढ़ती असहमति की ओर भी इशारा करता है।

कांग्रेस की चुनौती : बाहरी खतरे से ज्यादा अंदरूनी असमंजस

इस पूरे घटनाक्रम में कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी चिंता भाजपा की जीत नहीं, बल्कि अपनी पकड़ का कमजोर होना है। खासकर शहरी और शिक्षित मतदाताओं के बीच पार्टी की अपील लगातार घटती नजर आ रही है। यूडीएफ के भीतर स्पष्ट नेतृत्व, ठोस एजेंडा और भविष्य की दिशा को लेकर भ्रम की स्थिति दिखाई देती है। यही कारण है कि भाजपा जैसे दल को राजनीतिक विस्तार का अवसर मिल रहा है।

भाजपा के लिए अवसर, लेकिन रास्ता आसान नहीं

भाजपा के लिए यह जीत मनोबल बढ़ाने वाली जरूर है, लेकिन केरल जैसे राज्य में दीर्घकालिक सफलता हासिल करना अब भी चुनौतीपूर्ण रहेगा। सामाजिक संरचना, राजनीतिक परंपराएं और मजबूत विपक्ष भाजपा के लिए बड़ी बाधाएं बनी रहेंगी। हालांकि, यह परिणाम 2026 के विधानसभा चुनावों से पहले भाजपा को एक मजबूत आधार जरूर प्रदान करता है। केरल की राजनीति में बदलाव के संकेत स्पष्ट हैं, लेकिन इसे पूर्ण परिवर्तन कहना अभी जल्दबाजी होगी। यह चुनाव परिणाम एक चेतावनी, एक अवसर और एक संभावित नए राजनीतिक अध्याय की शुरूआत जरूर है। शशि थरूर की भूमिका आने वाले समय में और अधिक महत्वपूर्ण हो सकती है, चाहे वह कांग्रेस के भीतर सुधार की आवाज बनें या केरल की राजनीति में किसी नए संतुलन का संकेत दें। फिलहाल इतना तय है कि केरल की सियासत अब पुराने ढर्रे पर चलने को तैयार नहीं दिख रही।

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पश्चिम बंगाल में बाबरी मस्जिद वाले विधायक हुमायूं कबीर पर बड़ा पेंच

TMC से निष्कासित किए गए हुमायूँ कबीर के मुद्दे पर एक बड़ा पेंच फंस गया है। यह पेंच इतना बड़ा है कि विधायक को चिल्ला-चिल्लाकर घोषणा करनी पड़ रही है कि ‘‘मैं बाबरी मस्जिद वाला विधायक हुमायूँ कबीर नहीं हूं।

एक नाम, दो विधायक… बंगाल में ‘हुमायूं कबीर’ को लेकर बड़ा कन्फ्यूजन
एक नाम, दो विधायक… बंगाल में ‘हुमायूं कबीर’ को लेकर बड़ा कन्फ्यूजन
locationभारत
userआरपी रघुवंशी
calendar12 Dec 2025 03:58 PM
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Humayun Kabir : पश्चिम बंगाल में बाबरी मस्जिद बनाने की नींव पड़ गई है। पश्चिम बंगाल में बाबरी मस्जिद की नींव तृणमूल कांग्रेस (TMC) के एक विधायक हुमायूं कबीर ने रखी है। टीएमसी (TMC) ने विधायक हुमायूं कबीर को पार्टी से निष्कासित कर दिया है। TMC से निष्कासित किए गए हुमायूँ कबीर के मुद्दे पर एक बड़ा पेंच फंस गया है। यह पेंच इतना बड़ा है कि विधायक को चिल्ला-चिल्लाकर घोषणा करनी पड़ रही है कि ‘‘मैं बाबरी मस्जिद वाला विधायक हुमायूँ कबीर नहीं हूं। 

नाम के संकट ने उलझा दिया हुमायूं कबीर का मामला

दुनिया के प्रसिद्ध लेखक तथा दार्शनिक शेक्सपियर ने कहा था कि 'नाम में क्यों रखा है' और कई मायने में यह कथन सच लगता है, लेकिन पश्चिम बंगाल में, इन दिनों यह उक्ति मिथ्या साचित हो रही है। यहां नाम को लेकर राजनीति गरमा गई है। पश्चिम बंगाल में दो-दो हुमायूं कबीर को लेकर अफरा-तफरी मची है। मजे की बात है कि दोनों ही हुमायूं कबीर तृणमूल कांग्रेस के नेता हैं और दोनों ही विधायक भी। एक हुमायूं कबीर हैं भरतपुर के विधायक, जो जो मुर्शिदाबाद जिले के बेलडांगा में बीते 6 दिसंबर को बाबरी मस्जिद की नींव रखने के बाद चर्चा में बने हुए हैं और दूसरे हुमायूं कबीर हैं डेबरा के विधायक, जो पहले भारतीय पुलिस सेवा (IPS) में थे। डेबरा वाले पुलिस सेवा से राजनीति में आए और तृणमूल कांग्रेस में शामिल हुए। भरतपुर वाले ने कांग्रेस की टिकट पर विधानसभा पहुंचने के बाद तृणमूल का दामन थामा था।

मैं बाबरी मजिस्द वाला हुमायूं कबीर नहीं हूं

एक ही नाम होने के कारण डेबरा वाले हुमायूं कबीर को बीते दो-तीन दिनों से परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। उनकी फोन की घंटी लगातार बज रही है और वह यह बताते बताते थक से गए हैं कि मैं बाबरी मस्जिद वाला हुमायूं कबीर नहीं हूं। दरअसल, भरतपुर के विधायक ने छह दिसंबर को बेलडांगा में बाबरी मस्जिद की नींव रखी थी और इसके निर्माण के लिए लोगों से 'क्यूआर कोड' के जरिये आर्थिक मदद देने का आग्रह किया था। जिन्हें नहीं मालूम कि बंगाल में हुमायूं कबीर नाम के दो-दो विधायक हैं, वे मस्जिद निर्माण में आर्थिक सहयोग देने के लिए लगातार डेबरा वाले विधायक को फोन कर 'क्यूआर कोड' या 'गूगल-पे नंबर' या 'बैंक अकाउंट नंबर' मांग रहे हैं। डेबरा विधायक ने बताया कि एक जैसा नाम होने के कारण बीते तीन दिनों में 300 से अधिक लोगों ने चंदा देने की इच्छा से उन्हें फोन किया। ये फोन बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, मुंबई, हरियाणा, राजस्थान और विदेशों से भी आ रहे हैं। अब भी अजनबियों के फोन आ रहे हैं। पूर्व आईपीएस और मौजूदा विधायक हुमायूं कबीर ने बताया कि लगातार फोन और संदेश का जवाब देने में बहुत मुश्किल हो रही है। उन्हें बार-बार समझाना पड़ रहा है कि वह मुर्शिदाबाद वाले हुमायूं कबीर नहीं हैं। वह सफाई देते फिर रहे हैं कि उनका नाम भी हुमायूं कंबीर है, लेकिन उन्हें तृणमूल कांग्रेस से निलंबित नहीं किया गया है

सोशल मीडिया पर देनी पड़ रही है सफाई

डेबरा वाले हुमायूं कबीर को सोशल मीडिया पर पोस्ट लिखकर भी सफाई देनी पड़ रही है। डेबरा वाले हुमायूं कबीर ने कहा कि स्थिति थोड़ी अजीब हो गई है, लेकिन वह विनम्रतापूर्वक लोगों को सही नंबर ढूंढने और भरतपुर वाले हुमायूं कबीर से संपर्क करने की सलाह दे रहे हैं। उन्होंने फेसबुक पर पोस्ट भी लिखा कि मंदिर और मस्जिद राजनीतिक अखाड़ा नहीं, बल्कि प्रार्थना व पूजा के स्थल हैं। Humayun Kabir

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पूर्व गृह मंत्री शिवराज पाटील का मंत्रालय सबसे ज्यादा चर्चा में क्यों रहा?

हालांकि विरोधियों ने इसे लेकर सवाल उठाए। दावा किया गया कि चुनाव हारने के बावजूद पार्टी नेतृत्व से नजदीकी के चलते उन्हें इतना अहम मंत्रालय मिला। बाद में वही कार्यकाल उनके राजनीतिक जीवन का सबसे ज्यादा चर्चा और बहस वाला अध्याय बन गया।

पूर्व केंद्रीय गृह मंत्री शिवराज विश्वनाथ पाटील
पूर्व केंद्रीय गृह मंत्री शिवराज विश्वनाथ पाटील
locationभारत
userअभिजीत यादव
calendar12 Dec 2025 10:39 AM
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Shivraj Patil : भारतीय राजनीति में कुछ नेता अपने दशकों लंबे अनुभव से पहचाने जाते हैं, लेकिन कुछ की सार्वजनिक छवि किसी एक विवाद की परछाईं में हमेशा के लिए कैद हो जाती है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रीय गृह मंत्री शिवराज विश्वनाथ पाटील का नाम भी इसी वजह से अक्सर चर्चा में रहा। शुक्रवार सुबह उनके निधन की खबर के साथ एक दौर की यादें फिर ताज़ा हो गईं। मनमोहन सिंह सरकार के पहले कार्यकाल (2004–2008) में देश की आंतरिक सुरक्षा की जिम्मेदारी उनके कंधों पर थी, मगर उसी अवधि में लगातार हुए आतंकी हमलों ने सुरक्षा तंत्र पर तीखे सवाल खड़े किए। और फिर ‘सूट बदलने’ वाला विवाद जिसने उनके प्रशासनिक कामकाज से ज़्यादा, उनकी छवि पर सबसे गहरी छाप छोड़ दी और उन्हें लंबे समय तक सुर्खियों में बनाए रहा।

गृह मंत्रालय बना सबसे विवादित अध्याय

1935 में महाराष्ट्र के लातूर जिले के चाकूर में जन्मे शिवराज विश्वनाथ पाटील ने सियासत में लंबी और असरदार पारी खेली। लातूर की जनता ने उन्हें सात बार लोकसभा पहुंचाया और वे लोकसभा अध्यक्ष जैसे प्रतिष्ठित पद तक भी पहुंचे। इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के दौर में भी वे केंद्र सरकार में मंत्री रहे, यानी सत्ता और संगठन दोनों के गलियारों में उनकी पकड़ रही। 2004 में यूपीए की सरकार बनी तो गृह मंत्रालय की कमान उन्हें सौंपी गई। हालांकि विरोधियों ने इसे लेकर सवाल उठाए दावा किया गया कि चुनाव हारने के बावजूद पार्टी नेतृत्व से नजदीकी के चलते उन्हें इतना अहम मंत्रालय मिला। बाद में वही कार्यकाल उनके राजनीतिक जीवन का सबसे ज्यादा चर्चा और बहस वाला अध्याय बन गया।

2005-2008: हमलों की श्रृंखला और बढ़ता दबाव

उनके गृह मंत्री रहते देश ने एक के बाद एक बड़े आतंकी हमलों और सिलसिलेवार धमाकों का दर्द झेला। हैदराबाद से लेकर मालेगांव, जयपुर, अहमदाबाद, बेंगलुरु और दिल्ली तक फैली इन घटनाओं ने पूरे सुरक्षा तंत्र को कटघरे में खड़ा कर दिया। हर हमले के बाद यही सवाल गूंजता रहा कि खुफिया एजेंसियां खतरे के संकेत समय रहते क्यों नहीं पकड़ पाईं और समन्वय में चूक कहां हुई। विपक्ष ने इन हमलों को सरकार की आंतरिक सुरक्षा रणनीति की कमजोरी बताकर गृह मंत्रालय को लगातार निशाने पर रखा, जिससे संसद से लेकर सियासी मंचों तक तीखी बहस छिड़ी रही।

एक घटना जिसने छवि बदल दी

असल विवाद की शुरुआत 13 सितंबर 2008 के दिल्ली सीरियल ब्लास्ट के बाद हुई। धमाकों के बाद जब गृह मंत्री मौके पर पहुंचे, तब टीवी कवरेज में वे अलग-अलग समय पर अलग-अलग पहनावे में नजर आए। मीडिया रिपोर्टों में दावा किया गया कि उस दिन उन्होंने कई बार कपड़े बदले कभी सफेद बंदगला, कभी काला, फिर दोबारा सफेद। आलोचकों ने इसे प्रतीक बना दिया कि जिस समय देश सदमे में था, उसी समय गृह मंत्री इमेज और अपीयरेंस को प्राथमिकता दे रहे थे। यही वह बिंदु था, जिसके बाद उनके लिए ‘सीरियल ड्रेसर’ जैसे तंज चल पड़े और विवाद उनकी राजनीतिक पहचान का हिस्सा बन गया। हालांकि समर्थकों का तर्क रहा कि मौके पर अलग-अलग कार्यक्रम/बैठकों के कारण पहनावे में बदलाव असामान्य नहीं, लेकिन जनभावना पर इसका असर गहरा पड़ा।

‘जवाबदेही’ की मांग और कुर्सी पर संकट

दिल्ली ब्लास्ट के ठीक दो महीने बाद 26 नवंबर 2008 को मुंबई पर भयावह आतंकी हमला हुआ। ताज होटल, ओबेरॉय, नरीमन हाउस और CST सहित कई स्थान निशाने पर रहे। तीन दिन तक चले ऑपरेशन में 166 लोगों की मौत और सैकड़ों के घायल होने की खबरें सामने आईं। इस हमले के बाद केंद्र सरकार और गृह मंत्रालय पर जवाबदेही का दबाव चरम पर पहुंच गया। मीडिया और विपक्ष ने सुरक्षा चूक, खुफिया इनपुट, और त्वरित कार्रवाई/समन्वय पर गंभीर सवाल उठाए। कुछ रिपोर्टों में एनएसजी की तैनाती और निर्णय प्रक्रिया को लेकर भी देरी के आरोप उठे। इस पूरे माहौल में शिवराज पाटील के इस्तीफे की मांग जोर पकड़ने लगी। दबाव बढ़ने के बाद 30 नवंबर 2008 को शिवराज पाटील ने गृह मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। उन्होंने हमले के लिए नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए प्रधानमंत्री को इस्तीफा सौंपा। इसके बाद उनकी जगह पी. चिदंबरम को गृह मंत्री बनाया गया। इस्तीफे के साथ ही उनका सक्रिय राजनीतिक प्रभाव भी धीमा पड़ता चला गया। आगे चलकर वे पंजाब के राज्यपाल भी बने और कुछ समय बाद सार्वजनिक राजनीति के केंद्र से दूर होते गए।

जनता की यादों में क्यों रह गए ‘विवाद’ के साथ?

शिवराज पाटील का करियर उपलब्धियों और बड़े पदों से भरा रहा, लेकिन गृह मंत्रालय का वह दौर जहां एक तरफ देश आतंकी चुनौती से जूझ रहा था और दूसरी तरफ उनके ऊपर नेतृत्व, तैयारी और प्राथमिकताओं को लेकर सवाल उठते रहे उनकी छवि का निर्णायक अध्याय बन गया। समर्थक उन्हें अनुभवी और संयमित नेता मानते रहे, जबकि आलोचकों की नजर में वे संकट के समय कमजोर नेतृत्व और विवादित अपीयरेंस के प्रतीक बन गए। Shivraj Patil

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