Women’s Reservation Bill: 21वीं सदी चल रही है पर कुछ मर्दों की प्रवृति, महिला को अधिकार के पद पर अब भी सहन नहीं कर पा रही है? लेकिन इनमें कम पढ़े, अनपढ़ तथा नाम को पढे पुरुषों का वर्ग अधिक शामिल है। उन महिलाओं की दास्तान जिन्होंने बड़ी मेहनत से कोई पद प्राप्त किया, लेकिन उन्हें किस तरह मर्दों की दुनिया पद से हटाने के लिए कुचक्र चलाने लगती है। विशेषकर यदि पद कहीं अर्थ लाभ का हो तो यहाँ तक कि उनके घर की महिलाएं भी उस महिला के पक्ष में बोलने से डरती हैं और चुप्पी साधे रहती हैं।
महिला आरक्षण कानून का इतिहास
पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने मई 1989 में ग्रामीण और शहरी स्थानीय समूहों में महिलाओं के लिए एक तिहाई आरक्षण होना चाहिए के लिए संविधान संशोधन कानून पेश करके निर्वाचित समूहों में महिला आरक्षण का बीज बोया था। यह विधेयक लोकसभा में तो पारित हो गया, लेकिन सितंबर 1989 में राज्यसभा में यह पारित नहीं हो पाया। 1992 और 1993 में, उस समय के प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने संविधान संशोधन विधेयक 72 और 73 में फिर से पेश किया, जिसके फलस्वरूप ग्रामीण और शहरी स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए एक तिहाई (33 प्रतिशत) सीटें और अध्यक्ष पद आरक्षित किए गए। इस बार विधेयक दोनों सदनों द्वारा पारित किए गए और देश का कानून बन गए। अब देश भर में पंचायतों और नगरपालिकाओं में लगभग 15 लाख निर्वाचित महिला प्रतिनिधि हैं।
12 सितंबर 1996 को जिस समय एच.डी. देवगौड़ा के नेतृत्व वाली संयुक्त मोर्चा सरकार थी। तो पहली बार संसद में महिलाओं के आरक्षण के लिए 81वां संविधान संशोधन विधेयक लोकसभा में पेश किया। लेकिन उस समय विधेयक को लोकसभा में मंजूरी नहीं मिली और उसके बाद इसे गीता मुखर्जी की अध्यक्षता वाली संयुक्त संसदीय समिति को भेज दिया गया। जब मुखर्जी समिति ने दिसंबर 1996 में अपनी रिपोर्ट पेश की। तब लोकसभा भंग होने के साथ ही विधेयक भी निरस्त हो गया। दो साल बाद, अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने फिर 1998 में 12वीं लोकसभा में महिला आरक्षण विधेयक को आगे बढ़ाया।, देखने वाली बात है कि इस बार भी विधेयक को समर्थन नहीं मिला और यह विधेयक फिर से समाप्त हो गया। इसके बाद इसे 1999, 2002 और 2003 में वाजपेयी सरकार के तहत फिर से पेश किया गया, पर फिर भी कोई सफलता नहीं मिली।
पांच साल बाद डा. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार-1 के दौरान भी महिला आरक्षण विधेयक बिल को फिर से कुछ समर्थन मिला। 2004 में, सरकार ने इसे अपने कॉमन मिनिमम प्रोग्राम में शामिल किया और आखिरकार 6 मई 2008 को इसे राज्यसभा में फिर पेश किया, ताकि इसे फिर से समाप्त होने से बचाया जा सके। 1996 की गीता मुखर्जी समिति द्वारा की गई सात सिफारिशों में से पांच को बिल के इस संस्करण में शामिल किया गया था। 9 मई, 2008 को यह कानून स्थायी समिति को भेजा गया था। स्थायी समिति ने 17 दिसंबर, 2009 को अपनी रिपोर्ट पेश की। फरवरी 2010 में इसे केंद्रीय मंत्रिमंडल से मंजूरी मिल ही गई। अंतत: 9 मार्च, 2010 को यह बिल 186-1 वोटों के साथ राज्य सभा में पारित हो गया। लेकिन इस विधेयक पर कभी भी लोकसभा में विचार किया ही नहीं गया और अंतत: 2014 में लोकसभा के भंग होने के साथ ही यह विधेयक भी समाप्त हो गया।
यूं, इस बिल का इतिहास इतना लम्बा रहा। लेकिन नरेंद्र मोदी सरकार ने जब नई संसद में महिलाओं से जुड़ा ये ऐतिहासिक बिल पेश किया। तो केंद्रीय कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने लोकसभा में महिला आरक्षण बिल पेश किया और 20 सितंबर को लोकसभा में करीब सात घंटे की चर्चा के बाद यह बिल पास हो ही गया। इसके पक्ष में 454 मत पड़े, फिर भी दो सांसदों ने इसके विरोध में ही वोट दिया। यूं 21 सितंबर, गुरुवार को ‘नारी शक्ति वंदन विधेयक’ राज्यसभा से पारित हुआ, और वहां 215 सांसदों ने इसके समर्थन में वोट डाले। यहां विशेषता यह थी कि एक वोट भी इसके विरोध में नहीं पड़ा। हालांकि इस विधेयक के कानून में बदलने के बाद सदन में महिलाओं की 33 प्रतिशत अनिवार्यता हो जाएगी यानि लोकसभा में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीटें आरक्षित की गई है और128वें संविधान में महिलाओं की एक तिहाई भागीदारी होगी ही इस विधेयक से महिला सशक्तिकरण को मजबूती मिलने के साथ ही देश की आधी आबादी द्वारा प्रतिनिधित्व को भी बढ़ावा मिलेगा।
कागज पर तो यह इतिहास सही है, लेकिन महिलाओं को अधिकार मिले हैं क्या? देखा तो यह गया है कि महिलाओं के लिए आरक्षित सीट होती है। उनके पति पंच बने बैठे होते है कुछ ही महिलाएं हैं जिन्होंने अपने अधिकार लिए हैं। वह भी बहुत संघर्ष के बाद उनके हर कदम पर कांटे बिछाए जाते हैं। यहाँ तक की यूपी की विंडो कहे जाने वाले नोएडा शहर में महिला का पद छीनने वाले उसके कार्यस्थल तक को ताला बंद कर देते हैं। क्योंकि संकुचित, अविकसित मस्तिष्क वाले पुरुषों द्वारा आज भी अक्सर चूल्हा-चौका ही महिला का कार्य क्षेत्र है उसे समझाने बल्कि उधर ही खदेडऩे की कोशिश भी की जाती है। यहाँ तक की सशक्त कमाऊ महिला भी चौंके चूल्हे तक ही रहे। साथ ही बच्चे भी लायक बनाए यहीं तक उसकी जिम्मेदारी हो इस पर चलने वाली महिला को सराहना भी पुरुषों द्वारा अधिक मिलती है। राजनैतिक परिवार की महिलाओं को छोड़ दें।
अधिकांशतया मर्दों की प्रवृति महिलाओं के अधिकार को सहन करने की आज भी नहीं हैं और इसमें हर आयु वर्ग के पुरुष शामिल हैं। यदि वह लाभ का पद है तब तो बिलकुल भी इच्छा नहीं रहती है। अधिकार हमने आपने यदि जनमत से पा भी लिया तो आप केवल हस्ताक्षर तक ही सीमित रहें यहाँ तक तो मंजूर है। यहीं कारण है महिला आरक्षण बिल का लम्बा इतिहास है किसी भी तरह उस पर अडंगे लगते ही रहे हैं।
रेजिडेंशियल वेलफेयर एसोसिएशन में तो और भी बुरा हाल है। आज तो महिलाओं के बैंकों में खाते भी हो गए वरना पत्नी की कमाई पर तो पुरुष का वर्चस्व ही रहता था। गरीब कामगर औरतों की तो और भी बुरी हालात थी। लेकिन समाज के इस परिवर्तन में मानसिक रूप से सुलझे हुए तथा ज्ञानी पुरुषों का बहुत ही बड़ा हाथ है। आज जब पिता अपनी बेटियों को पढ़ाते हैं। अपने बेटे के लिए सशक्त बहु तलाशते हैं तो महिला पीछे क्यूँ रहें वे ही महिला के साथ खड़े होते हैं तथा अपनी बेटियों से प्यार करने वाली महिलायें भी इस समूह से जुड़ती हैं अन्यथा समझती सब हैं पर चुप रह जाती हैं यही कारण है कि महिला आरक्षण बिल का इतना लंबा इतिहास है।