IIT Delhi vs IIT Bombay: बीटेक के लिए कौन बेहतर? जानें प्लेसमेंट से लेकर रैंकिंग तक सबकुछ




लद्दाख की सड़कों पर पिछले दिनों जो हिंसा और आगजनी हुई, उसने एक बार फिर इस क्षेत्र की असल मांगों और चिंताओं को सुर्खियों में ला दिया है। शांतिपूर्ण आंदोलन के बीच भड़की हिंसा में भाजपा कार्यालय और सुरक्षा बलों की गाड़ियां जलाई गईं। हालात बिगड़ने के बाद आंदोलन के अगुवा पर्यावरणविद सोनम वांगचुक ने अपना अनशन समाप्त करते हुए अपील की कि जनता हिंसा का रास्ता छोड़कर आंदोलन को एकजुट रखे। लेकिन असल सवाल यह है कि लद्दाख को अगर छठी अनुसूची का संरक्षण या पूर्ण राज्य का दर्जा मिलता है, तो आखिरकार यहां क्या-क्या बदलेगा? Ladakh protest
भारत के सुदूर उत्तर में बसा लद्दाख सामरिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक दृष्टि से बेहद अहम क्षेत्र है। 2019 में जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम के तहत इसे केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा मिला। इससे स्थानीय लोगों को लगा कि उनकी आवाज सीधे दिल्ली तक पहुंचेगी, लेकिन विधानसभा न होने और निर्णय लेने की सीमित शक्ति के कारण असंतोष लगातार बढ़ा। तेज़ी से बढ़ते पर्यटन, नाज़ुक पारिस्थितिकी और सांस्कृतिक संरक्षण की चुनौतियों ने लद्दाख के लोगों को छठी अनुसूची और राज्य के दर्जे की मांग करने पर मजबूर कर दिया। Ladakh protest
भारतीय संविधान की छठी अनुसूची आदिवासी और सांस्कृतिक रूप से विशिष्ट क्षेत्रों को स्वायत्त शासन का अधिकार देती है। यह वर्तमान में पूर्वोत्तर भारत के कुछ हिस्सों में लागू है। इसके तहत:
स्वायत्त परिषदों का गठन होता है।
जमीन, जंगल और जल स्रोतों पर स्थानीय नियंत्रण मिलता है।
स्थानीय भाषाओं, परंपराओं और धार्मिक स्थलों को संवैधानिक सुरक्षा मिलती है।
रोजगार और शिक्षा में प्राथमिकता मिलती है।
पर्यावरणीय संसाधनों पर स्थानीय स्तर के कानून बनाए जा सकते हैं।
यदि लद्दाख को छठी अनुसूची में शामिल किया गया, तो यहां की जनता को दिल्ली पर निर्भर रहने के बजाय अपने मुद्दों पर खुद फैसले लेने की शक्ति मिलेगी।
अगर लद्दाख को पूर्ण राज्य का दर्जा मिलता है, तो:
यहां की अपनी विधानसभा और मुख्यमंत्री होंगे।
स्थानीय प्रतिनिधि शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और भूमि सुधार जैसे मुद्दों पर निर्णय लेंगे।
प्रशासनिक फैसले दिल्ली से नहीं, बल्कि लेह और कारगिल से होंगे।
राजनीतिक आत्मनिर्णय की मांग पूरी होगी। हालांकि, सामरिक दृष्टि से इतने संवेदनशील इलाके को राज्य का दर्जा देना केंद्र की सुरक्षा चिंताओं को और गहरा सकता है, क्योंकि लद्दाख चीन और पाकिस्तान से सीधी सीमा साझा करता है। Ladakh protest
पर्यावरण और संस्कृति की सुरक्षा को लेकर सोनम वांगचुक लगातार चेतावनी देते रहे हैं। उनका मानना है कि अनियंत्रित पर्यटन, खनन और जल संकट लद्दाख के अस्तित्व पर खतरा है। वे कहते हैं कि केवल केंद्र शासित प्रदेश का ढांचा इन चुनौतियों से निपटने के लिए पर्याप्त नहीं है। लद्दाख का सवाल महज प्रशासनिक नहीं है, बल्कि इसमें तीन बड़े पहलू जुड़े हैं:
सांस्कृतिक पहचान – क्या बौद्ध और मुस्लिम समुदायों की परंपराओं को संवैधानिक सुरक्षा मिलेगी?
पर्यावरणीय संकट – क्या हिमालयी पारिस्थितिकी को बचाते हुए विकास संभव है?
राष्ट्रीय सुरक्षा – क्या इस संवेदनशील सीमा क्षेत्र में अधिक स्वायत्तता सुरक्षित होगी? Ladakh protest
लद्दाख की सड़कों पर पिछले दिनों जो हिंसा और आगजनी हुई, उसने एक बार फिर इस क्षेत्र की असल मांगों और चिंताओं को सुर्खियों में ला दिया है। शांतिपूर्ण आंदोलन के बीच भड़की हिंसा में भाजपा कार्यालय और सुरक्षा बलों की गाड़ियां जलाई गईं। हालात बिगड़ने के बाद आंदोलन के अगुवा पर्यावरणविद सोनम वांगचुक ने अपना अनशन समाप्त करते हुए अपील की कि जनता हिंसा का रास्ता छोड़कर आंदोलन को एकजुट रखे। लेकिन असल सवाल यह है कि लद्दाख को अगर छठी अनुसूची का संरक्षण या पूर्ण राज्य का दर्जा मिलता है, तो आखिरकार यहां क्या-क्या बदलेगा? Ladakh protest
भारत के सुदूर उत्तर में बसा लद्दाख सामरिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक दृष्टि से बेहद अहम क्षेत्र है। 2019 में जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम के तहत इसे केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा मिला। इससे स्थानीय लोगों को लगा कि उनकी आवाज सीधे दिल्ली तक पहुंचेगी, लेकिन विधानसभा न होने और निर्णय लेने की सीमित शक्ति के कारण असंतोष लगातार बढ़ा। तेज़ी से बढ़ते पर्यटन, नाज़ुक पारिस्थितिकी और सांस्कृतिक संरक्षण की चुनौतियों ने लद्दाख के लोगों को छठी अनुसूची और राज्य के दर्जे की मांग करने पर मजबूर कर दिया। Ladakh protest
भारतीय संविधान की छठी अनुसूची आदिवासी और सांस्कृतिक रूप से विशिष्ट क्षेत्रों को स्वायत्त शासन का अधिकार देती है। यह वर्तमान में पूर्वोत्तर भारत के कुछ हिस्सों में लागू है। इसके तहत:
स्वायत्त परिषदों का गठन होता है।
जमीन, जंगल और जल स्रोतों पर स्थानीय नियंत्रण मिलता है।
स्थानीय भाषाओं, परंपराओं और धार्मिक स्थलों को संवैधानिक सुरक्षा मिलती है।
रोजगार और शिक्षा में प्राथमिकता मिलती है।
पर्यावरणीय संसाधनों पर स्थानीय स्तर के कानून बनाए जा सकते हैं।
यदि लद्दाख को छठी अनुसूची में शामिल किया गया, तो यहां की जनता को दिल्ली पर निर्भर रहने के बजाय अपने मुद्दों पर खुद फैसले लेने की शक्ति मिलेगी।
अगर लद्दाख को पूर्ण राज्य का दर्जा मिलता है, तो:
यहां की अपनी विधानसभा और मुख्यमंत्री होंगे।
स्थानीय प्रतिनिधि शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और भूमि सुधार जैसे मुद्दों पर निर्णय लेंगे।
प्रशासनिक फैसले दिल्ली से नहीं, बल्कि लेह और कारगिल से होंगे।
राजनीतिक आत्मनिर्णय की मांग पूरी होगी। हालांकि, सामरिक दृष्टि से इतने संवेदनशील इलाके को राज्य का दर्जा देना केंद्र की सुरक्षा चिंताओं को और गहरा सकता है, क्योंकि लद्दाख चीन और पाकिस्तान से सीधी सीमा साझा करता है। Ladakh protest
पर्यावरण और संस्कृति की सुरक्षा को लेकर सोनम वांगचुक लगातार चेतावनी देते रहे हैं। उनका मानना है कि अनियंत्रित पर्यटन, खनन और जल संकट लद्दाख के अस्तित्व पर खतरा है। वे कहते हैं कि केवल केंद्र शासित प्रदेश का ढांचा इन चुनौतियों से निपटने के लिए पर्याप्त नहीं है। लद्दाख का सवाल महज प्रशासनिक नहीं है, बल्कि इसमें तीन बड़े पहलू जुड़े हैं:
सांस्कृतिक पहचान – क्या बौद्ध और मुस्लिम समुदायों की परंपराओं को संवैधानिक सुरक्षा मिलेगी?
पर्यावरणीय संकट – क्या हिमालयी पारिस्थितिकी को बचाते हुए विकास संभव है?
राष्ट्रीय सुरक्षा – क्या इस संवेदनशील सीमा क्षेत्र में अधिक स्वायत्तता सुरक्षित होगी? Ladakh protest
