Noida News:अंजना भागी / समय को आसान नहीं बस खुद को मजबूत बनाना पड़ता है।
हम किस दिन आवाज उठाएंगे? आखिर क्यों, हम भारतवासी और कब तक हिन्दी के लिए दो दबायेंगे ?
इंडिया अब भारत बन रहा है लेकिन हिंदी के लिए अभी भी दो ही दब रहा है। जबकि सच्चाई यह है की हिंदी ही भाषाओं की जान है। यह एक ऐसी भाषा है जिसमें हमारे बुजुर्गों ने अपने वर्षों के अनुभवों से अजब गजब मुहावरे लोकोक्तियां का तड़का लगाकर इस भाषा को भाषाओं की जान बनाया है। सम्पूर्ण भारत ने 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस मनाया सब ही ने बधाइयों का तांता लगाया । यकीन मानिये इस दिन मैंने कहीं किसी भी कस्टमर केयर या कहीं भी शिकायत करने को कोई बटन नहीं दबाया। क्योंकि हिन्दी मेरा अभिमान है मैं हिन्दी के लिए कृपया दो दबाएँ .. झेल ही नहीं पाती इसीलिए मैं कम से कम हिन्दी दिवस पर किसी को भी मुहँ ही नहीं लगाती।Noida News
इस भाषा की खूबसूरती तो देखिए इसके मुहावरो तथा लोकोक्तियों में जो रस है वह लाजवाब है। इनके इस्तेमाल से हम एक वाक्य से ही गागर में सागर भर सकते हैं। बहुत छोटी छोटी सी बातों से मैं आपको हिंदी भाषा के अजब गजब मुहावरों तथा लोकोक्तियां से वाकिफ करवाती हूं। कौन सी चीज है जिससे यह मुहावरे नहीं भरे हैं । कहीं फल हैं तो कहीं आटा दाल है। कहीं मिठाई तो कहीं पर मसाले हैं। हम फलों से ही शुरुआत करते हैं। अंगूर खट्टे हैं। यहां तो आम और आम की गुठलियों के भी दाम मिलते हैं। भाई खरबूजे को देखकर ही खरबूजा रंग बदलता है। कितना अर्थ भरा है एक एक वाक्य में। दालों की बात लें तो दाल में जरूर कुछ काला है। भाई यहां तो किसी की दाल ही नहीं गलती है। देखा आपने? क्या आपने नहीं सोचा? इतना गुण ज्ञान देने वाली Noida News
अपनी भाषा के लिए आखिर कब तक हम और क्यों नंबर दो दबाएं?
आखिर कब और कैसे हम सब मिलकर अपनी मातृभाषा को नंबर एक पर लाएंगे ? क्या कोई ऐसी भाषा है जिसमें कोई डेढ़ चावल की खिचड़ी पकाता है। इतना ही नहीं यही भाषा है जिसमें व्यक्ति लोहे के चने भी चबाता है। कोई दिन-रात पसीना बहाता है तो कोई घर बैठा रोटियां तोड़ता है। इतना ही नहीं कोई कोई तो दाल भात में मूसरचंद भी बन जाता है। यही वह भाषा है जिसमें गरीबी में भी आटा गीला हो जाता है। तो आटे दाल का भाव भी यही इसी भाषा का ज्ञान करवाता है। सफलता के लिए कई पापड़ बेलने पड़ते हैं। आटे में नमक तो चल जाता है पर गेहूं के साथ घुन भी पिस जाता है का बोध भी हिन्दी से ही आता है। अपना हाल तो बेहाल है। यह मुँह और मसूर की दाल है। गुड कहते हैं और गुलगुले से परहेज करते हैं। और कभी गुड का गोबर कर बैठे हैं। कभी तिल का ताड़ तो कभी राई का पहाड़ बनता है । कभी ऊंट के मुंह में जीरा है। तो कभी कोई जले पर नमक छिड़कता है। किसी के तो अभी दूध के दांत नहीं टूटे हैं। तो कहीं यहां पर दूध के धुले हैं। किसी की चमडी जैसे मैदे की लोई है तो किसी को छठी का दूध याद दिलाती है हमारी यह मातृ भाषा। कहीं दूध का दूध और पानी का पानी भी यही भाषा का गौरव है तो कहीं दूध का जला छाछ को भी फूँक फूँक कर पीता है । शादी तो बुरे के वह लड्डू हैं। जिसने खाए वह पछताए जिसने नहीं खाए वह तो और भी पछताए। फिर भी शादी की बात सुन सबके मन में लड्डू फूटते हैं फिर भी नम्बर दो ही दबाएं ये क्यों नहीं हम फुटते हैं? यही भाषा है जो यह भी ज्ञान करवाती है की शादी के बाद किसी के तो दोनों हाथों में लड्डू होते हैं तो कोई जलेबी की तरह सीधा है। इन्हीं मुहावरों के बल पर कोई टेढ़ी खीर है तो किसी के मुंह में ही घी शक्कर है। यहां सब की अपनी अपनी तकदीर है कभी कोई चाय पानी करवाता है तो अपने मतलब के लिए कोई मक्खन लगाता है तो भी अपने मतलब के लिए। यही भाषा है जो छप्पर फाड़ कर देती है और कभी सभी के मुंह में पानी भी दिला देती है। आखिर तो घी खिचड़ी में ही जाता है। यानी जितने मुंह है उतनी ही बातें हैं यही भाषा सिखाती है कि मुफ्त की मलाई सभी कहते हैं सब अपनी अपनी बीन बजाते हैं । इस भाषा का ही गुमान है कि नक्कार खाने में तूती की आवाज होती। इसलिए कृपया अब हिंदी को नंबर एक पर लाएँ और बड़े अभिमान के साथ कहें हम आपकी समस्या का समाधान अपनी मातृभाषा हिंदी में करेंगे अन्य किसी भाषा के लिए नम्बर दो तीन या चार। दबवाए।.. हिन्दी के जन्म दिवस पर कैसे मैंने अपनी अभिव्यक्ति को दबाया है। अब जब आप इसे बाद में पढ़ेंगे तो नंबर दो का एहसास भी जरूर करेंगे।
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