जाने 1857 का दिल्ली की वह सुबह जिसने इतिहास बदल दिया
शहर ने विद्रोहियों का खुले दिल से स्वागत नहीं किया। महमूद फ़ारूक़ी बताते हैं कि लोग अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ थे, लेकिन अपने घरों पर बोझ नहीं चाहते थे। विद्रोहियों का अनुशासनहीन व्यवहार—जूते पहनकर दरबार में घुसना, हथियार लेकर जाना—भी दिल्लीवालों को नागवार गुज़रता था।

11 मई 1857, सोमवार – रमज़ान का 16वाँ दिन दिल्ली की उस सुबह बहादुरशाह ज़फ़र सामान्य दिनचर्या के तहत लाल किले के तस्बीहख़ाने में फ़ज्र की नमाज़ पढ़ चुके थे। लेकिन यमुना पुल के पास उठता धुआँ दिल्ली और पूरे हिंदुस्तान के इतिहास को बदलने वाला था।
विद्रोह की पहली आहट: यमुना पुल से उठता धुआँ
सुबह बादशाह ने देखा कि टोल हाउस की दिशा से धुआँ उठ रहा है। हरकारा भेजा गया, और जल्द ही पता चला कि अंग्रेज़ी वर्दी पहनकर भारतीय सिपाही तलवारें लहराते दिल्ली में दाख़िल हो चुके हैं। इन बाग़ियों ने टोल हाउस में आग लगा दी और लूटपाट की। इसके बाद शहर के सभी दरवाज़े बंद कर दिए गए—but विद्रोही रुके नहीं। शाम होते-होते उन्होंने बादशाह से मिलने का संदेश भेज दिया।
बादशाह की बेबसी और बाग़ियों का दबाव
दीवाने-ख़ास में जमा हुए सिपाही हवा में गोलियाँ दागने लगे। दिल्ली के रईस अब्दुल लतीफ़ के अनुसार “बादशाह की हालत वही थी, जैसे शतरंज में शह दिए राजा की होती है… हमारी ज़िंदगी का सूरज डूब चुका है।” बाग़ियों ने बादशाह से नेतृत्व सँभालने की गुहार की, जबकि प्रधानमंत्री अहसानुल्लाह ख़ाँ ने उन्हें आगाह किया कि बादशाह के पास न फ़ौज है न पैसे। लेकिन सिपाहियों का जवाब था कि हम पूरे मुल्क का पैसा आपके ख़ज़ाने में डाल देंगे… बस रहमत चाहिए और बहादुरशाह ज़फ़र ने अंततः विद्रोह का नेतृत्व स्वीकार कर लिया।
लाल किले में विद्रोहियों का कब्ज़ासिपाहियों ने किले के कमरों में डेरा डाल लिया। अगले दिन पुराना चाँदी का सिंहासन निकाला गया, खिताब वितरित हुए और ज़फ़र के नाम से नए सिक्के ढाले गए।
विद्रोह की असल चिंगारी: कारतूसों की चर्बी
इतिहासकार राना सफ़वी के अनुसार, इनफ़ील्ड राइफल के कारतूसों में गाय और सुअर की चर्बी होने की अफ़वाह ने हिंदू और मुस्लिम दोनों सैनिकों में आक्रोश भरा। इसके साथ
- विदेशी युद्धों में भेजना
- प्रमोशन न मिलना
- सूबेदार से ऊपर न बढ़ पाना
इन सबने बग़ावत को जन्म दिया। 10 मई को मेरठ में बग़ावत भड़की और सिपाही दिल्ली की तरफ़ कूच कर गए।
दिल्लीवासियों की ठंडी प्रतिक्रिया
शहर ने विद्रोहियों का खुले दिल से स्वागत नहीं किया। महमूद फ़ारूक़ी बताते हैं कि लोग अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ थे, लेकिन अपने घरों पर बोझ नहीं चाहते थे। विद्रोहियों का अनुशासनहीन व्यवहार—जूते पहनकर दरबार में घुसना, हथियार लेकर जाना—भी दिल्लीवालों को नागवार गुज़रता था।
अराजकता के बीच भी व्यवस्था
हालात उथल–पुथल के थे, लेकिन फ़ारूक़ी के मुताबिक व्यवस्था पूरी तरह ढही नहीं थी। रोज़मर्रा की ज़रूरतें—चारपाइयाँ, मिट्टी, मज़दूर—सब किसी न किसी ढाँचे से जुटाए जा रहे थे।
56 अंग्रेज़ महिलाओं व बच्चों का नरसंहार
12 मई तक दिल्ली अंग्रेज़ों से खाली हो चुकी थी। लेकिन लाल किले के पास पनाह लिए 56 अंग्रेज़ महिलाओं व बच्चों को बाग़ियों ने मार डाला, जबकि बहादुरशाह ज़फ़र ने रोकने की कोशिश की थी।
अंग्रेज़ों की वापसी और क़त्ले-आम
कुछ ही दिनों में अंग्रेज़ सैनिकों ने पलटवार किया और दिल्ली में दोबारा दाख़िल हो गए। कच्चा चलाँ मोहल्ले में ही 1400 लोग मारे गए।
19 वर्षीय सैनिक एडवर्ड विबार्ड ने लिखा है कि ईश्वर करे ऐसा दृश्य फिर कभी न देखूं...
ग़ालिब का दर्द और दिल्ली का उजड़ना
पूरे शहर को खाली कराया गया। छह महीने तक लोग बारिश और ठंड में खुले आसमान के नीचे रहे। ग़ालिब तक सदमे में आ गए—1857 के बाद उन्होंने सिर्फ़ 11 ग़ज़लें लिखीं।
बहादुरशाह ज़फ़र का आत्मसमर्पण
18 सितंबर 1857 को हुमायूँ के मक़बरे में कैप्टन हॉडसन ने बादशाह को गिरफ़्तार किया। हॉडसन ने वादा किया कि आपकी जान बख़्शी जाएगी, बशर्ते आपको बचाने की कोशिश न हो।
तीन शहज़ादों की हत्या
ज़फ़र की जान तो बची, लेकिन उनके बेटे मिर्ज़ा मुग़ल, ख़िज़्र सुल्तान और अबू बक्र को हॉडसन ने प्वॉइंट ब्लैंक शॉट से मार डाला।
कैद, अपमान और निर्वासन
बादशाह को लाल किले की एक कोठरी में जानवरों की तरह रखा जाता था। अंग्रेज़ “सैलानी” आकर उन्हें देखते थे। आख़िरकार उन्हें रंगून (बर्मा) भेज दिया गया।
बहादुरशाह ज़फ़र का आख़िरी सफ़र
7 नवंबर 1862— 87 वर्षीय बूढ़े बादशाह का अंतिम जनाज़ा चंद लोगों की मौजूदगी में उठाया गया। कब्र पर चूना छिड़ककर उसे मिटने के लिए छोड़ दिया गया ताकि कोई पहचान न सके और उनके अपने ही शब्द इतिहास की तल्ख़ सच्चाई बन गए कितना बदनसीब है ज़फ़र दफ़्न के लिए दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में…”
11 मई 1857, सोमवार – रमज़ान का 16वाँ दिन दिल्ली की उस सुबह बहादुरशाह ज़फ़र सामान्य दिनचर्या के तहत लाल किले के तस्बीहख़ाने में फ़ज्र की नमाज़ पढ़ चुके थे। लेकिन यमुना पुल के पास उठता धुआँ दिल्ली और पूरे हिंदुस्तान के इतिहास को बदलने वाला था।
विद्रोह की पहली आहट: यमुना पुल से उठता धुआँ
सुबह बादशाह ने देखा कि टोल हाउस की दिशा से धुआँ उठ रहा है। हरकारा भेजा गया, और जल्द ही पता चला कि अंग्रेज़ी वर्दी पहनकर भारतीय सिपाही तलवारें लहराते दिल्ली में दाख़िल हो चुके हैं। इन बाग़ियों ने टोल हाउस में आग लगा दी और लूटपाट की। इसके बाद शहर के सभी दरवाज़े बंद कर दिए गए—but विद्रोही रुके नहीं। शाम होते-होते उन्होंने बादशाह से मिलने का संदेश भेज दिया।
बादशाह की बेबसी और बाग़ियों का दबाव
दीवाने-ख़ास में जमा हुए सिपाही हवा में गोलियाँ दागने लगे। दिल्ली के रईस अब्दुल लतीफ़ के अनुसार “बादशाह की हालत वही थी, जैसे शतरंज में शह दिए राजा की होती है… हमारी ज़िंदगी का सूरज डूब चुका है।” बाग़ियों ने बादशाह से नेतृत्व सँभालने की गुहार की, जबकि प्रधानमंत्री अहसानुल्लाह ख़ाँ ने उन्हें आगाह किया कि बादशाह के पास न फ़ौज है न पैसे। लेकिन सिपाहियों का जवाब था कि हम पूरे मुल्क का पैसा आपके ख़ज़ाने में डाल देंगे… बस रहमत चाहिए और बहादुरशाह ज़फ़र ने अंततः विद्रोह का नेतृत्व स्वीकार कर लिया।
लाल किले में विद्रोहियों का कब्ज़ासिपाहियों ने किले के कमरों में डेरा डाल लिया। अगले दिन पुराना चाँदी का सिंहासन निकाला गया, खिताब वितरित हुए और ज़फ़र के नाम से नए सिक्के ढाले गए।
विद्रोह की असल चिंगारी: कारतूसों की चर्बी
इतिहासकार राना सफ़वी के अनुसार, इनफ़ील्ड राइफल के कारतूसों में गाय और सुअर की चर्बी होने की अफ़वाह ने हिंदू और मुस्लिम दोनों सैनिकों में आक्रोश भरा। इसके साथ
- विदेशी युद्धों में भेजना
- प्रमोशन न मिलना
- सूबेदार से ऊपर न बढ़ पाना
इन सबने बग़ावत को जन्म दिया। 10 मई को मेरठ में बग़ावत भड़की और सिपाही दिल्ली की तरफ़ कूच कर गए।
दिल्लीवासियों की ठंडी प्रतिक्रिया
शहर ने विद्रोहियों का खुले दिल से स्वागत नहीं किया। महमूद फ़ारूक़ी बताते हैं कि लोग अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ थे, लेकिन अपने घरों पर बोझ नहीं चाहते थे। विद्रोहियों का अनुशासनहीन व्यवहार—जूते पहनकर दरबार में घुसना, हथियार लेकर जाना—भी दिल्लीवालों को नागवार गुज़रता था।
अराजकता के बीच भी व्यवस्था
हालात उथल–पुथल के थे, लेकिन फ़ारूक़ी के मुताबिक व्यवस्था पूरी तरह ढही नहीं थी। रोज़मर्रा की ज़रूरतें—चारपाइयाँ, मिट्टी, मज़दूर—सब किसी न किसी ढाँचे से जुटाए जा रहे थे।
56 अंग्रेज़ महिलाओं व बच्चों का नरसंहार
12 मई तक दिल्ली अंग्रेज़ों से खाली हो चुकी थी। लेकिन लाल किले के पास पनाह लिए 56 अंग्रेज़ महिलाओं व बच्चों को बाग़ियों ने मार डाला, जबकि बहादुरशाह ज़फ़र ने रोकने की कोशिश की थी।
अंग्रेज़ों की वापसी और क़त्ले-आम
कुछ ही दिनों में अंग्रेज़ सैनिकों ने पलटवार किया और दिल्ली में दोबारा दाख़िल हो गए। कच्चा चलाँ मोहल्ले में ही 1400 लोग मारे गए।
19 वर्षीय सैनिक एडवर्ड विबार्ड ने लिखा है कि ईश्वर करे ऐसा दृश्य फिर कभी न देखूं...
ग़ालिब का दर्द और दिल्ली का उजड़ना
पूरे शहर को खाली कराया गया। छह महीने तक लोग बारिश और ठंड में खुले आसमान के नीचे रहे। ग़ालिब तक सदमे में आ गए—1857 के बाद उन्होंने सिर्फ़ 11 ग़ज़लें लिखीं।
बहादुरशाह ज़फ़र का आत्मसमर्पण
18 सितंबर 1857 को हुमायूँ के मक़बरे में कैप्टन हॉडसन ने बादशाह को गिरफ़्तार किया। हॉडसन ने वादा किया कि आपकी जान बख़्शी जाएगी, बशर्ते आपको बचाने की कोशिश न हो।
तीन शहज़ादों की हत्या
ज़फ़र की जान तो बची, लेकिन उनके बेटे मिर्ज़ा मुग़ल, ख़िज़्र सुल्तान और अबू बक्र को हॉडसन ने प्वॉइंट ब्लैंक शॉट से मार डाला।
कैद, अपमान और निर्वासन
बादशाह को लाल किले की एक कोठरी में जानवरों की तरह रखा जाता था। अंग्रेज़ “सैलानी” आकर उन्हें देखते थे। आख़िरकार उन्हें रंगून (बर्मा) भेज दिया गया।
बहादुरशाह ज़फ़र का आख़िरी सफ़र
7 नवंबर 1862— 87 वर्षीय बूढ़े बादशाह का अंतिम जनाज़ा चंद लोगों की मौजूदगी में उठाया गया। कब्र पर चूना छिड़ककर उसे मिटने के लिए छोड़ दिया गया ताकि कोई पहचान न सके और उनके अपने ही शब्द इतिहास की तल्ख़ सच्चाई बन गए कितना बदनसीब है ज़फ़र दफ़्न के लिए दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में…”







