एक दुश्मन, दो राहें: यमन युद्ध में सऊदी-UAE की दोस्ती कैसे टूटी?
वहीं UAE ने हथियार भेजने के आरोप से इनकार करते हुए इसे “सिर्फ वाहनों की आवाजाही” बताया और तनाव बढ़ने के बीच अपनी फोर्सेज वापस बुलाने की बात भी कही। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही है जब दोनों देश सुन्नी हैं, दोनों ने मिलकर हूतियों के खिलाफ जंग लड़ी, तो फिर किसी तीसरे देश की जमीन पर आमने-सामने कैसे हो गए?

Yemen War Saudi UAE Conflict : यमन की धरती पर एक बार फिर भू-राजनीति की परतें खुल गई हैं। मुकल्ला (Mukalla) बंदरगाह शहर पर सऊदी अरब के हवाई हमले ने मध्य-पूर्व की उस जटिल तस्वीर को सामने ला दिया है, जिसमें दोस्त और दुश्मन की रेखाएं वक्त के साथ बदलती रहती हैं। सऊदी अरब का दावा है कि मुकल्ला में संयुक्त अरब अमीरात (UAE) समर्थित अलगाववादी गुटों के लिए हथियारों की खेप पहुंची थी, जिसे रोकने के लिए कार्रवाई की गई। वहीं UAE ने हथियार भेजने के आरोप से इनकार करते हुए इसे “सिर्फ वाहनों की आवाजाही” बताया और तनाव बढ़ने के बीच अपनी फोर्सेज वापस बुलाने की बात भी कही। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही है जब दोनों देश सुन्नी हैं, दोनों ने मिलकर हूतियों के खिलाफ जंग लड़ी, तो फिर किसी तीसरे देश की जमीन पर आमने-सामने कैसे हो गए?
पहले यमन को समझिए
यमन अरब दुनिया के सबसे गरीब मुल्कों में भले गिना जाता हो, लेकिन उसकी लोकेशन उसे ‘गेम-चेंजर’ बना देती है। लाल सागर और अरब सागर को जोड़ने वाले समुद्री गलियारों के करीब होने की वजह से यहां से गुजरने वाला रास्ता वैश्विक कारोबार की धड़कन माना जाता है। यही कारण है कि यमन सिर्फ एक देश नहीं रहा यह क्षेत्रीय ताकतों की रणनीति, सुरक्षा और वर्चस्व की जंग का फ्रंटलाइन बन चुका है। आज की हकीकत यह है कि यमन जमीन पर दो अलग-अलग सत्ता-परिधियों में बंटा दिखता है। उत्तर यमन (राजधानी सना समेत) पर हूतियों का प्रभाव है, जबकि दक्षिणी इलाकों में कई स्थानीय गुट सक्रिय हैं जिनमें अलगाववादी ताकतें भी शामिल हैं। हूती न सिर्फ यमन की अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त सरकार के लिए चुनौती हैं, बल्कि सऊदी अरब के लिए भी सीधी सुरक्षा चिंता बन गए हैं। वजह साफ है हूतियों को ईरान का समर्थन मिलना सऊदी को यह संदेश देता है कि यमन में हूतियों की मजबूती के साथ ईरान की परछाईं सऊदी सरहदों के और करीब आती जा रही है। इसी डर और रणनीतिक दबाव के बीच 2015 में सऊदी अरब ने यमन में सैन्य अभियान छेड़ा घोषणा यह थी कि “वैध सरकार” को वापस स्थापित किया जाएगा, लेकिन जंग ने धीरे-धीरे पूरे क्षेत्र की राजनीति को और उलझा दिया।
एक मोर्चा, एक दुश्मन… फिर दरार कैसे पड़ी?
यमन की जंग जब शुरू हुई, तब UAE सऊदी अरब के कंधे से कंधा मिलाकर मैदान में उतरा था। दोनों की रणनीति साफ थी—हूतियों की बढ़ती ताकत पर लगाम लगाना और मान्यता प्राप्त सरकार के ढांचे को दोबारा खड़ा करना। शुरुआती वर्षों में यह गठबंधन एक ही धुन पर चलता दिखा; एक साझा दुश्मन, एक साझा मोर्चा और एक जैसी भाषा। लेकिन युद्ध जैसे-जैसे लंबा और जटिल होता गया, वैसे-वैसे इस “दोस्ती” के भीतर हितों की खामोश खींचतान भी बढ़ने लगी। जमीन पर हालात बदले, प्राथमिकताएं बदलीं और लक्ष्य भी। नतीजा यह हुआ कि जो दो देश कल तक एक ही लड़ाई लड़ रहे थे, वे धीरे-धीरे एक ही युद्ध में दो अलग एजेंडे लेकर आगे बढ़ने लगे और यही दूरी आगे चलकर टकराव की वजह बन गई।
क्यों UAE की नजरें दक्षिण यमन पर टिक गईं?
वक्त गुजरने के साथ UAE ने यमन को सिर्फ युद्ध के मैदान के तौर पर नहीं, बल्कि रणनीतिक निवेश की तरह देखना शुरू किया। अब उसकी सोच यह बन गई कि पूरे यमन पर नियंत्रण न तो व्यावहारिक है और न ही फायदेमंद, लेकिन दक्षिण यमन ऐसा इलाका है जहां पकड़ मजबूत कर लंबे समय का लाभ साधा जा सकता है। वजह भी साफ थी यहीं बड़े बंदरगाह, ऊर्जा और तेल से जुड़ी संभावनाएं और अंतरराष्ट्रीय समुद्री रास्तों पर प्रभाव मौजूद है। इसी रणनीतिक गणित के तहत UAE का झुकाव धीरे-धीरे STC (सदर्न ट्रांजिशनल काउंसिल) की ओर बढ़ा। STC को दक्षिण यमन की एक ताकतवर अलगाववादी शक्ति माना जाता है, जो यमन के विभाजन और दक्षिण के लिए अलग राजनीतिक ढांचे की मांग करता रहा है। अंतरराष्ट्रीय हलकों में यह चर्चा तेज हुई कि UAE ने STC को सिर्फ राजनीतिक समर्थन ही नहीं, बल्कि संसाधन, प्रशिक्षण और जमीनी मदद भी मुहैया कराई। यहीं से यमन की लड़ाई ने नया मोड़ लिया जहां युद्ध सिर्फ हूतियों के खिलाफ नहीं रहा, बल्कि भविष्य के यमन की तस्वीर को लेकर टकराव का रूप लेने लगा।
सऊदी की आपत्ति
यहीं से सऊदी अरब की असल बेचैनी शुरू होती है। रियाद की प्राथमिकता किसी एक मोर्चे पर जीत भर नहीं, बल्कि पूरे यमन को एक इकाई के रूप में टिकाए रखना है। सऊदी नहीं चाहता कि यमन का नक्शा टुकड़ों में बंटे, क्योंकि ऐसा होते ही उसकी सीमा सुरक्षा पर सीधा दबाव बढ़ेगा और दक्षिण में अगर कोई नया “दक्षिणी राज्य” उभरता है तो वह भविष्य में किस खेमे में जाएगा यह पूरी तरह अनिश्चित रहेगा। सऊदी की नजर में यह स्थिति एक नए फ्रंट की शुरुआत भी बन सकती है, जहां अस्थिरता स्थायी चुनौती बन जाए। इसी वजह से सऊदी “एकीकृत यमन” के एजेंडे पर डटा रहा, जबकि UAE की रणनीति “दक्षिण-केंद्रित” नजर आती रही और यहीं से गठबंधन में दरार गहरी हुई दुश्मन दोनों का एक था, लेकिन युद्ध के बीच मंजिलें अलग हो गईं।
पर्दे के पीछे की खींचतान हुई सार्वजनिक
मुकल्ला में हुई बमबारी के बाद परदे के पीछे चल रही यह रस्साकशी अचानक खुली बहस में बदल गई। सऊदी अरब की आशंका है कि UAE जिन स्थानीय गुटों को ताकत दे रहा है, वही जमीन पर रियाद की रणनीति को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं और यमन में “एकीकृत सत्ता” की उसकी योजना को कमजोर कर रहे हैं। दूसरी तरफ UAE ने हथियारों की खेप भेजने के आरोपों को सिरे से खारिज करते हुए अपना अलग नैरेटिव पेश किया। इसी तनातनी के बीच जब UAE ने फोर्सेज वापस बुलाने का संकेत दिया, तो यह महज एक सैन्य फैसला नहीं लगा बल्कि गठबंधन के भीतर बढ़ती दरार का सबसे बड़ा संकेत माना गया। संदेश साफ था: यमन की जंग में अब दोनों की साझेदारी उतनी मजबूत नहीं रही, जितनी शुरुआती दौर में दिखती थी।
इस पूरी कहानी की बैकग्राउंड स्क्रिप्ट
यमन की लड़ाई को अगर सिर्फ “यमन का गृहयुद्ध” मानकर देखा जाए, तो तस्वीर अधूरी रह जाएगी। असल में यह जंग मध्य-पूर्व की सबसे बड़ी राइवलरी सऊदी अरब बनाम ईरानकी परछाईं में लड़ी जा रही है। सऊदी अरब खुद को सुन्नी दुनिया की अगुवाई करने वाली ताकत के रूप में देखता है, जबकि ईरान शिया प्रभाव का केंद्रीय स्तंभ माना जाता है। मगर टकराव की जड़ें केवल मजहब तक सीमित नहीं हैं यह क्षेत्रीय वर्चस्व, रणनीतिक नियंत्रण और प्रभाव-क्षेत्र की लड़ाई है। रियाद की चिंता यह है कि ईरान उसके आसपास अपने समर्थक नेटवर्क को मजबूत कर सुरक्षा घेरा बना रहा है, जबकि तेहरान की रणनीति यह रही है कि मध्य-पूर्व में अपने असर को बढ़ाकर राजनीतिक और सामरिक दबाव कायम रखा जाए। यही वजह है कि यमन का मोर्चा दोनों के लिए सिर्फ एक जंग नहीं, बल्कि पूरे इलाके की ताकत-संतुलन की लड़ाई बन गया है।
ईरान का ‘प्रॉक्सी मॉडल
ईरान अक्सर सीधे मैदान में उतरने के बजाय स्थानीय समूहों के सहारे प्रभाव बढ़ाता है। इसी रणनीति को “प्रॉक्सी वॉर” कहा जाता है मतलब, अपने हित दूसरे के कंधे पर रखकर साधना। उदाहरण के तौर पर लेबनान में हिजबुल्लाह, इराक में शिया मिलिशिया और यमन में हूती। सऊदी की बड़ी चिंता यही है कि यमन में हूतियों का मजबूत होना उसे रणनीतिक तौर पर दबाव में रख सकता है। इसलिए यमन, सऊदी के लिए सिर्फ पड़ोसी देश नहीं सीमा सुरक्षा और क्षेत्रीय संतुलन का बड़ा मोर्चा है। Yemen War Saudi UAE Conflict
Yemen War Saudi UAE Conflict : यमन की धरती पर एक बार फिर भू-राजनीति की परतें खुल गई हैं। मुकल्ला (Mukalla) बंदरगाह शहर पर सऊदी अरब के हवाई हमले ने मध्य-पूर्व की उस जटिल तस्वीर को सामने ला दिया है, जिसमें दोस्त और दुश्मन की रेखाएं वक्त के साथ बदलती रहती हैं। सऊदी अरब का दावा है कि मुकल्ला में संयुक्त अरब अमीरात (UAE) समर्थित अलगाववादी गुटों के लिए हथियारों की खेप पहुंची थी, जिसे रोकने के लिए कार्रवाई की गई। वहीं UAE ने हथियार भेजने के आरोप से इनकार करते हुए इसे “सिर्फ वाहनों की आवाजाही” बताया और तनाव बढ़ने के बीच अपनी फोर्सेज वापस बुलाने की बात भी कही। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही है जब दोनों देश सुन्नी हैं, दोनों ने मिलकर हूतियों के खिलाफ जंग लड़ी, तो फिर किसी तीसरे देश की जमीन पर आमने-सामने कैसे हो गए?
पहले यमन को समझिए
यमन अरब दुनिया के सबसे गरीब मुल्कों में भले गिना जाता हो, लेकिन उसकी लोकेशन उसे ‘गेम-चेंजर’ बना देती है। लाल सागर और अरब सागर को जोड़ने वाले समुद्री गलियारों के करीब होने की वजह से यहां से गुजरने वाला रास्ता वैश्विक कारोबार की धड़कन माना जाता है। यही कारण है कि यमन सिर्फ एक देश नहीं रहा यह क्षेत्रीय ताकतों की रणनीति, सुरक्षा और वर्चस्व की जंग का फ्रंटलाइन बन चुका है। आज की हकीकत यह है कि यमन जमीन पर दो अलग-अलग सत्ता-परिधियों में बंटा दिखता है। उत्तर यमन (राजधानी सना समेत) पर हूतियों का प्रभाव है, जबकि दक्षिणी इलाकों में कई स्थानीय गुट सक्रिय हैं जिनमें अलगाववादी ताकतें भी शामिल हैं। हूती न सिर्फ यमन की अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त सरकार के लिए चुनौती हैं, बल्कि सऊदी अरब के लिए भी सीधी सुरक्षा चिंता बन गए हैं। वजह साफ है हूतियों को ईरान का समर्थन मिलना सऊदी को यह संदेश देता है कि यमन में हूतियों की मजबूती के साथ ईरान की परछाईं सऊदी सरहदों के और करीब आती जा रही है। इसी डर और रणनीतिक दबाव के बीच 2015 में सऊदी अरब ने यमन में सैन्य अभियान छेड़ा घोषणा यह थी कि “वैध सरकार” को वापस स्थापित किया जाएगा, लेकिन जंग ने धीरे-धीरे पूरे क्षेत्र की राजनीति को और उलझा दिया।
एक मोर्चा, एक दुश्मन… फिर दरार कैसे पड़ी?
यमन की जंग जब शुरू हुई, तब UAE सऊदी अरब के कंधे से कंधा मिलाकर मैदान में उतरा था। दोनों की रणनीति साफ थी—हूतियों की बढ़ती ताकत पर लगाम लगाना और मान्यता प्राप्त सरकार के ढांचे को दोबारा खड़ा करना। शुरुआती वर्षों में यह गठबंधन एक ही धुन पर चलता दिखा; एक साझा दुश्मन, एक साझा मोर्चा और एक जैसी भाषा। लेकिन युद्ध जैसे-जैसे लंबा और जटिल होता गया, वैसे-वैसे इस “दोस्ती” के भीतर हितों की खामोश खींचतान भी बढ़ने लगी। जमीन पर हालात बदले, प्राथमिकताएं बदलीं और लक्ष्य भी। नतीजा यह हुआ कि जो दो देश कल तक एक ही लड़ाई लड़ रहे थे, वे धीरे-धीरे एक ही युद्ध में दो अलग एजेंडे लेकर आगे बढ़ने लगे और यही दूरी आगे चलकर टकराव की वजह बन गई।
क्यों UAE की नजरें दक्षिण यमन पर टिक गईं?
वक्त गुजरने के साथ UAE ने यमन को सिर्फ युद्ध के मैदान के तौर पर नहीं, बल्कि रणनीतिक निवेश की तरह देखना शुरू किया। अब उसकी सोच यह बन गई कि पूरे यमन पर नियंत्रण न तो व्यावहारिक है और न ही फायदेमंद, लेकिन दक्षिण यमन ऐसा इलाका है जहां पकड़ मजबूत कर लंबे समय का लाभ साधा जा सकता है। वजह भी साफ थी यहीं बड़े बंदरगाह, ऊर्जा और तेल से जुड़ी संभावनाएं और अंतरराष्ट्रीय समुद्री रास्तों पर प्रभाव मौजूद है। इसी रणनीतिक गणित के तहत UAE का झुकाव धीरे-धीरे STC (सदर्न ट्रांजिशनल काउंसिल) की ओर बढ़ा। STC को दक्षिण यमन की एक ताकतवर अलगाववादी शक्ति माना जाता है, जो यमन के विभाजन और दक्षिण के लिए अलग राजनीतिक ढांचे की मांग करता रहा है। अंतरराष्ट्रीय हलकों में यह चर्चा तेज हुई कि UAE ने STC को सिर्फ राजनीतिक समर्थन ही नहीं, बल्कि संसाधन, प्रशिक्षण और जमीनी मदद भी मुहैया कराई। यहीं से यमन की लड़ाई ने नया मोड़ लिया जहां युद्ध सिर्फ हूतियों के खिलाफ नहीं रहा, बल्कि भविष्य के यमन की तस्वीर को लेकर टकराव का रूप लेने लगा।
सऊदी की आपत्ति
यहीं से सऊदी अरब की असल बेचैनी शुरू होती है। रियाद की प्राथमिकता किसी एक मोर्चे पर जीत भर नहीं, बल्कि पूरे यमन को एक इकाई के रूप में टिकाए रखना है। सऊदी नहीं चाहता कि यमन का नक्शा टुकड़ों में बंटे, क्योंकि ऐसा होते ही उसकी सीमा सुरक्षा पर सीधा दबाव बढ़ेगा और दक्षिण में अगर कोई नया “दक्षिणी राज्य” उभरता है तो वह भविष्य में किस खेमे में जाएगा यह पूरी तरह अनिश्चित रहेगा। सऊदी की नजर में यह स्थिति एक नए फ्रंट की शुरुआत भी बन सकती है, जहां अस्थिरता स्थायी चुनौती बन जाए। इसी वजह से सऊदी “एकीकृत यमन” के एजेंडे पर डटा रहा, जबकि UAE की रणनीति “दक्षिण-केंद्रित” नजर आती रही और यहीं से गठबंधन में दरार गहरी हुई दुश्मन दोनों का एक था, लेकिन युद्ध के बीच मंजिलें अलग हो गईं।
पर्दे के पीछे की खींचतान हुई सार्वजनिक
मुकल्ला में हुई बमबारी के बाद परदे के पीछे चल रही यह रस्साकशी अचानक खुली बहस में बदल गई। सऊदी अरब की आशंका है कि UAE जिन स्थानीय गुटों को ताकत दे रहा है, वही जमीन पर रियाद की रणनीति को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं और यमन में “एकीकृत सत्ता” की उसकी योजना को कमजोर कर रहे हैं। दूसरी तरफ UAE ने हथियारों की खेप भेजने के आरोपों को सिरे से खारिज करते हुए अपना अलग नैरेटिव पेश किया। इसी तनातनी के बीच जब UAE ने फोर्सेज वापस बुलाने का संकेत दिया, तो यह महज एक सैन्य फैसला नहीं लगा बल्कि गठबंधन के भीतर बढ़ती दरार का सबसे बड़ा संकेत माना गया। संदेश साफ था: यमन की जंग में अब दोनों की साझेदारी उतनी मजबूत नहीं रही, जितनी शुरुआती दौर में दिखती थी।
इस पूरी कहानी की बैकग्राउंड स्क्रिप्ट
यमन की लड़ाई को अगर सिर्फ “यमन का गृहयुद्ध” मानकर देखा जाए, तो तस्वीर अधूरी रह जाएगी। असल में यह जंग मध्य-पूर्व की सबसे बड़ी राइवलरी सऊदी अरब बनाम ईरानकी परछाईं में लड़ी जा रही है। सऊदी अरब खुद को सुन्नी दुनिया की अगुवाई करने वाली ताकत के रूप में देखता है, जबकि ईरान शिया प्रभाव का केंद्रीय स्तंभ माना जाता है। मगर टकराव की जड़ें केवल मजहब तक सीमित नहीं हैं यह क्षेत्रीय वर्चस्व, रणनीतिक नियंत्रण और प्रभाव-क्षेत्र की लड़ाई है। रियाद की चिंता यह है कि ईरान उसके आसपास अपने समर्थक नेटवर्क को मजबूत कर सुरक्षा घेरा बना रहा है, जबकि तेहरान की रणनीति यह रही है कि मध्य-पूर्व में अपने असर को बढ़ाकर राजनीतिक और सामरिक दबाव कायम रखा जाए। यही वजह है कि यमन का मोर्चा दोनों के लिए सिर्फ एक जंग नहीं, बल्कि पूरे इलाके की ताकत-संतुलन की लड़ाई बन गया है।
ईरान का ‘प्रॉक्सी मॉडल
ईरान अक्सर सीधे मैदान में उतरने के बजाय स्थानीय समूहों के सहारे प्रभाव बढ़ाता है। इसी रणनीति को “प्रॉक्सी वॉर” कहा जाता है मतलब, अपने हित दूसरे के कंधे पर रखकर साधना। उदाहरण के तौर पर लेबनान में हिजबुल्लाह, इराक में शिया मिलिशिया और यमन में हूती। सऊदी की बड़ी चिंता यही है कि यमन में हूतियों का मजबूत होना उसे रणनीतिक तौर पर दबाव में रख सकता है। इसलिए यमन, सऊदी के लिए सिर्फ पड़ोसी देश नहीं सीमा सुरक्षा और क्षेत्रीय संतुलन का बड़ा मोर्चा है। Yemen War Saudi UAE Conflict












