Dharma & Spiritual : प्रभु के शरणागत हो जाओ, भवसागर से तर जाओगे!
विनय संकोची अपनी शरण में आए भक्तों को भगवान भवसागर से तार देते हैं। उसे अपना बना लेते हैं। परम…
चेतना मंच | December 13, 2021 11:04 AM
विनय संकोची
अपनी शरण में आए भक्तों को भगवान भवसागर से तार देते हैं। उसे अपना बना लेते हैं। परम शत्रु रावण (Ravan) का भाई विभीषण श्रीराम (Lord Ram) का परम भक्त था। जब वह सच्चे हृदय से श्रीराम की शरणागत हुआ तो भगवान राम ने उसे भी अपने हृदय से लगा लिया। लेकिन शरणागत होने के लिए भक्ति प्रेम और श्रद्धा की आवश्यकता है। संसार की कीमती से कीमती वस्तु, सांसारिक सुख वैभव सभी धन से खरीदे जा सकते हैं लेकिन ईश्वर को कभी धन से नहीं खरीदा जा सकता। उन्हें तो केवल श्रद्धा और प्रेम से ही प्राप्त किया जा सकता है। पूरी भक्ति, पूरे प्रेम और पूरे विश्वास तथा पूरी इच्छा के साथ आप उनकी शरणागत हो जाएं, वे स्वयं उठकर आपको अपने हृदय से लगा लेंगे। भगवान से तुम्हारी निकटता बढ़ती जाएगी। उसके लिए ना तो धन की आवश्यकता है और नहीं ज्ञान-ध्यान और मित्रता की। प्रभु की शरणागति प्राप्त करने के लिए तो बस भक्तों का प्रभु के चरणों में पूर्ण समर्पण चाहिए।
ईश्वर के शरणागत हो जाने पर मनुष्य स्वयं निर्भय हो जाता है और परम सुख तथा आनंद प्राप्त करने लगता है। ‘हरि शरण न एकहू बाधा’। प्रभु के चरणों में स्वयं को समर्पित करने के पश्चात तो तुम्हारी सारी समस्याएं सारे कष्ट भगवान के हो गए। वे स्वयं तुम्हारी चिंता करेंगे। शरणागत की रक्षा करना प्रभु का स्वभाव है। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं – ‘राम भगति मनि डर बसि जाके, दु:ख लवलेस न सपनेहु ताके’! गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है – ‘जो मेरा आश्रय ले लेता है, मैं उसका कभी त्याग नहीं करता हूं।’ भगवान की शरणागति में ही मनुष्य की गति निहित है।
अक्सर हम जीवन में जो दु:ख-सुख झेल रहे होते हैं। उसे भाग्य का लेखा-जोखा मानकर छोड़ बैठते हैं। लेकिन अकेले भाग्य भरोसे बैठने से कुछ नहीं होने वाला। कर्म करना, सत्कर्म करना अनिवार्य है, क्योंकि आपके कर्म ही आप के भाग्य निर्माता होते हैं। आप जैसे कर्म करोगे, आपको वैसे ही फल मिलेंगे। आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों, परसों नहीं तो बरसों में और अगर वर्षों में भी नहीं मिले, तो अगले जन्म में जरूर मिलेंगे अवश्य।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं – ‘कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’- कर्म किए जा फल की इच्छा मत कर। फल तो अवश्य मिलेगा, कर्म ही आप के भाग्य निर्माता होते हैं। अच्छे कर्म करोगे तो उसके सुफल मिलेंगे, बुरे कर्म करोगे तो उसके फल भी बुरे ही होंगे, अरुचिकर और कभी-कभी तो असहनीय। तब आप भाग्य को दोष देते हो लेकिन जो तुमने बोया है, उसे तो तुम्हें ही काटना है। वह अच्छा हो या बुरा, वह सब तुम्हारा बोया हुआ है। इसका अर्थ यह हुआ कि तुम्हारा भाग्य ईश्वर या खुदा नहीं लिखते, तुम स्वयं लिखते हो। तुम स्वयं अपने भाग्य निर्माता हो। फल मिलने में देर सवेर हो सकती है। कई बार देखने में आता है कि किसी मनुष्य ने जीवन भर सत्कर्म किए मगर फिर भी वह कष्टों में रहा, बराबर कष्ट झेलता है, उसे किन कर्मों की सजा मिल रही है। यह सजा उसे पिछले जन्म के कर्मों की मिल रही है, क्योंकि अपने पिछले जन्म में जिन कर्मों का फल आप उसी जन्म में नहीं भुगत पाए थे, वे इस जन्म में आपको भुगतने पड़ते हैं। पहले पुराना बहीखाता क्लियर होगा तभी तो अगला हिसाब शुरू होगा।