Friday, 26 April 2024

Death Anniversary : सिर्फ 8 वर्ष की उम्र में अहमदाबाद कांग्रेस अधिवेशन में पहली बार शामिल हुए राम मनोहर

Death Anniversary :  भारत के इतिहास पुरुष डॉ. राम मनोहर लोहिया ने कहा था, ‘जब सड़क सुनसान हो गई तो…

Death Anniversary : सिर्फ 8 वर्ष की उम्र में अहमदाबाद कांग्रेस अधिवेशन में पहली बार शामिल हुए राम मनोहर

Death Anniversary :  भारत के इतिहास पुरुष डॉ. राम मनोहर लोहिया ने कहा था, ‘जब सड़क सुनसान हो गई तो संसद आवारा हो जाएगी। भारत की आजादी के सेनानी, प्रखर चिंतक और प्रख्यात समाजवादी राजनेता डॉ. राम मनोहर लोहिया की आज पुण्यतिथि है। भारत में लोहिया जी के नाम से प्रसिद्ध डॉ. राम मनोहर लोहिया ने अपने सार्वजनिक जीवन में समाजवादी राजनीति में एक ऐसी लकीर खींची, जिसे आज लोहियावाद के नाम से जाना जाता है।

Death Anniversary :

कहते हैं, पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं। डॉ. राम मनोहर लोहिया भी उनमें से ही एक थे। सिर्फ ढाई वर्ष की उम्र में ही मां चन्दा देवी के आंचल से वंचित रहने वाले राम मनोहर की परवरिश उनकी दादी और सरयूदेई (परिवार की नाईन) ने की। 23 मार्च 1910 को उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जनपद में अकबरपुर नामक स्थान में उनका जन्म हुआ था। उनके पिता हीरालाल पेशे से अध्यापक व हृदय से सच्चे राष्ट्रभक्त थे। उनके पिताजी गांधीजी के अनुयायी थे। जब वे गांधीजी से मिलने जाते तो राम मनोहर को भी अपने साथ ले जाया करते थे। इसके कारण गांधीजी के विराट व्यक्तित्व का उन पर गहरा असर हुआ। पिताजी के साथ 1918 में सिर्फ आठ साल की उम्र में वह अहमदाबाद कांग्रेस अधिवेशन में पहली बार शामिल हुए।

वर्ष-1921 में वे पंडित जवाहर लाल नेहरू  (Pandit Jawaharlal Nehru) से पहली बार मिले और कुछ वर्षों तक उनकी देखरेख में कार्य करते रहे। लेकिन बाद में उन दोनों के बीच विभिन्न मुद्दों और राजनीतिक सिद्धांतों को लेकर टकराव हो गया। 18 साल की उम्र में वर्ष 1928 में युवा लोहिया ने ब्रिटिश सरकार द्वारा गठित ‘साइमन कमीशन’ का विरोध करने के लिए प्रदर्शन का आयोजन किया। उन्होंने अपनी मैट्रिक परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास करने के बाद इंटरमीडिएट में दाखिला बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में कराया। उसके बाद उन्होंने वर्ष 1929 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से अपनी स्नातक की पढ़ाई पूरी की और पीएच.डी. करने के लिए बर्लिन विश्वविद्यालय, जर्मनी, चले गए।

Death Anniversary :

वर्ष-1930 जुलाई को लोहिया अग्रवाल समाज के कोष से पढ़ाई के लिए इंग्लैंड रवाना हुए। वहां से वे बर्लिन गए। विश्वविद्यालय के नियम के अनुसार उन्होंने प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रो. बर्नर जेम्बार्ट को अपना प्राध्यापक चुना। 3 महीने में जर्मन भाषा सीखी। 12 मार्च 1930 को गांधी जी ने दाण्डी यात्रा प्रारंभ की। जब नमक कानून तोड़ा गया, तब पुलिस अत्याचार से पीड़ित होकर पिता हीरालाल जी ने लोहिया को विस्तृत पत्र लिखा। 23 मार्च को लाहौर में भगत सिंह को फांसी दिए जाने के विरोध में लीग ऑफ नेशन्स की बैठक में बर्लिन में पहुंचकर सीटी बजाकर दर्शक दीर्घा से विरोध प्रकट किया। सभागृह से उन्हें निकाल दिया गया। भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे बीकानेर के महाराजा द्वारा प्रतिनिधित्व किए जाने पर लोहिया ने रूमानिया की प्रतिनिधि को खुली चिट्ठी लिखकर उसे अखबारों में छपवाकर उसकी कॉपी बैठक में बंटवाई।

डॉ. लोहिया के मन में स्वतंत्र देश का स्वाभिमान जाग उठा था। वे शिक्षा प्राप्त करने की अपेक्षा सम्मान के प्रति ज्यादा सजग हो उठे थे। उनमें इसके साथ अपने देश को आजाद कराने की बात गहरे पैठती गई थी। वे देश की आजादी के प्रतिबद्ध हो चुके थे। इन्हीं कारणों से लोहिया बर्लिन के लिए रवाना हो गए। वहां उन्होंने बर्लिन के हुम्बोल्ट विश्वविद्यालय में प्रवेश ले लिया। विश्वविख्यात अर्थशास्त्री प्रोफेसर बर्नर जोम्बार्ट उसी विश्वविद्यालय में थे। लोहिया ने उनको ही अपना निर्देशक तथा परीक्षक चुना।

Birth Anniversary : ‘सिंहासन खाली करो, जनता आती है’ के नारे ने जेपी को बना दिया लोकनायक

समाजवादी आन्दोलन का यह दुर्भाग्य रहा कि जय प्रकाश नारायण और राम लोहिया के बीच मतभेदों के कारण दोनों का व्यक्तित्व व गुण परस्पर पूरक होते हुये भी आपसी सहयोग का सिलसिला टूट गया। कई लोग मानते थे कि राम मनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण की विचारधारा तो एक थी, लेकिन उनके बीच जोड़ने वाली कड़ी गुम थी। आजादी से पहले इस कड़ी का रोल गांधीजी ने अच्छी तरह निभाया, लेकिन उनकी मौत के बाद दूसरा कोई ना था। जिस काम को राम मनोहर लोहिया जेपी के कंधों पर डालना चाहते थे, उसी काम को बाद में खुद जेपी ने ही शुरू किया। अगर राम मनोहर लोहिया के साथ जयप्रकाश नारायण ने सही दिशा में कार्य किया होता तो कांग्रेस की सत्ता 1967 में ही उलट जाती, लेकिन जब जय प्रकाश ने यह काम संभाला, तब तक समाजवादी आंदोलन बेहद कमजोर हो चुका था।

राजनीतिक कर्मयोगी के रूप में उनकी देन का मूल्याकन अभी सम्भव नहीं है। शायद उसका अभी समय भी नहीं आया है, परन्तु जहां तक उनके विचारों व सिद्धान्तों की बात है, उनके साथ भी वही हुआ, जो विश्व की लगभग सभी महान प्रतिभाओं के साथ होता चला आया है। ऐसे लोग, जो भी विचार और कल्पनाएं पेश करते हैं, साधारण लोगों में उनके महत्त्व का प्रचार व ज्ञान होने में समय लगता ही है, परन्तु आश्चर्य होता है, जब समकालीन राजनीतिक व विचारक भी बहुधा उनके विचारों का सही मूल्यांकन सही समय पर नहीं कर पाते और बाद में पछतावे की बारी आती है।.

Death Anniversary :

उदाहरण के रूप में यदि सन् 1954 में लोहिया के कहने पर केरल के समाजवादी मन्त्रिमण्डल ने इस्तीफा दे दिया होता तो आज इस देश में समाजवादी आन्दोलन तो आदर्श बनता ही, दुनिया में भी एक नए आदर्श का निर्माण हुआ होता। इस तरह के अनेक अवसर आए, जब लोहिया के बहुतेरे निकटतम साथी भी लोहिया द्वारा उठाए गए महत्त्वपूर्ण सवालों का मर्म नहीं समझ सके और चूके और पछताए।

1942 में ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन के दौरान वे भूमिगत हो गये और उन्होंने ‘कांग्रेस रेडियो’ नामक गुप्त रेडियो की स्थापना और संचालन भी किया, जिसे उन्होंने कलकत्ता और बम्बई से गुप्त रूप से चालू रखा। 94 दिनों तक उन्होंने इसके द्वारा उत्तेजक भाषणों का प्रसारण भी किया। अंग्रेज सरकार उन्हें पकड़ना चाहती थी, इसके पहले ही वे नेपाल भाग गये, जहां जय प्रकाश जी के साथ उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया। वहां से फरार होकर वे भारत वापस आ गये।

20 मई 1944 को अंग्रेज सरकार ने उन पर अमानवीय अत्याचार किये। बाद में अंग्रेज सरकार ने उन्हें आगरा जेल में डाल दिया। 11 अप्रैल 1946 को अंग्रेज सरकार ने लोहिया और जयप्रकाश को छोड़ दिया। इसके बाद उन्होंने गोवा की आजादी के लिए आन्दोलन छेड़ा। 28 सितम्बर से 8 अक्टूबर 1946 तक गोवा सरकार ने उन्हें कैद में रखा। उनकी समाजवादी विचारधारा ऐसी थी कि नेहरू जी से मतभेद होने पर उन्होंने कांग्रेस की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया।

राम मनोहर लोहिया और जय प्रकाश नारायण का व्यक्तित्व भी बेहद विचारणीय है। इतिहासकारों का मानना है कि जय प्रकाश अति सद्भाव से ओत-प्रोत थे और बोलचाल में बेहद नरम थे। यूं तो लोहिया की तरह उनमें भी सत्ता-पिपासा लेशमात्र नहीं थी, मगर उनके विचारों में स्पष्टता की कमी थी। वह अपने आसपास के लोगों से बड़ी जल्दी प्रभावित हो जाते थे। विवादस्पद प्रश्न पर स्पष्ट राय देने तथा उस पर अड़े रहने में जय प्रकाश को हिचक होती थी। इतिहास भी साक्षी है कि किसान मजदूर प्रजा पार्टी के साथ विलीनीकरण की समस्या हो या कांग्रेस के साथ सहयोग का विवाद, जय प्रकाश अक्सर ढुलमुल नीति अपनाते थे और यही वजह रही कि लोहिया को उनसे नाराजगी थी।

30 सितम्बर, 1967 को लोहिया को नई दिल्ली के विलिंग्डन अस्पताल, अब जिसे लोहिया अस्पताल कहा जाता है, में पौरुष ग्रंथि के आपरेशन के लिए भर्ती किया गया, जहां 12 अक्टूबर 1967 को उनका 57 वर्ष की आयु में देहांत हो गया। कश्मीर समस्या हो, गरीबी, असमानता अथवा आर्थिक मंदी, इन तमाम मुद्दों पर राम मनोहर लोहिया का चिंतन और सोच स्पष्ट थी। कई लोग राम मनोहर लोहिया को राजनीतिज्ञ, धर्मगुरु, दार्शनिक और राजनीतिक कार्यकर्ता मानते हैं। डॉ. लोहिया की विरासत और विचारधारा अत्यंत प्रखर और प्रभावशाली होने के बावजूद आज के राजनीतिक दौर में देश के जनजीवन पर अपना अपेक्षित प्रभाव कायम रखने में नाकाम साबित हुई। उनके अनुयायी उनकी तरह विचार और आचरण के अद्वैत को कदापि कायम नहीं रख सके।

Related Post