Tuesday, 5 November 2024

Big News : प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रही ममता बनर्जी का दोगला चेहरा हुआ उजागर, मचा बवाल

Big News :  यह सर्वविदित तथ्य है कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रही…

Big News : प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रही ममता बनर्जी का दोगला चेहरा हुआ उजागर, मचा बवाल

Big News :  यह सर्वविदित तथ्य है कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रही हैं। सपना देखना भी चाहिए क्योंकि वें एक लोकप्रिय नेता हैं। दुर्भाग्य यह है कि उनके कुछ काम इस सपने के बिल्कुल उलट होते हैं। हाल ही में उन्होंने पश्चिम बंगाल में एक ऐसा फैसला किया है जिससे उनका दोगलापन उजागर हुआ है। इस फैसले पर उनके प्रदेश में खूब बवाल भी हो रहा है। लोग कह रहे हैं कि यह फैसला ममता बनर्जी की संकीर्ण मानसिकता को दर्शाता है।

Big News :

क्या है फैसला ?
आपको बता दें कि पिछले दिनों राज्य की ममता सरकार ने एक अध्यादेश जारी किया था, जिसके अनुसार राज्य लोकसेवा आयोग की परीक्षाओं में हिंदी, उर्दू और संथाली भाषा के विकल्प को खत्म कर दिया गया है। और सभी उम्मीदवारों के लिए तीन सौ अंकों की बांग्ला की परीक्षा देना अनिवार्य कर दिया गया है। राज्य सरकार ने यह अध्यादेश स्थानीयता को बढ़ावा देने के नाम पर जारी किया है।
इससे करीब दो सदी से बंगाल में बसे हिंदी, उर्दू और संथाली भाषी लोगों के लिए राज्य लोकसेवा आयोग की नौकरियों की राह बंद होती नजर आ रही है। यही वजह है कि इन भाषाओं के लोग गुस्से में हैं। वैसे गुस्से में पश्चिम बंगाल का उत्तरी पहाड़ी इलाका भी है, जहां नेपाली भाषी अच्छी-खासी संख्या में हैं।

पश्चिम बंगाल के कई इलाकों में हिंदी, भोजपुरी, मैथिली, मारवाड़ी, नेपाली और भूटिया भाषाभाषी बहुतायत में है। कोलकाता के आसपास के इलाकों में हिंदी भाषी प्रदेशों से लेकर गुजरात से आकर बसे लोगों की अच्छी-खासी संख्या है। वे लोग बांग्ला लिख-पढ़ और बोल लेते हैं, लेकिन मूल निवासियों की तुलना में इनकी बांग्ला पर पकड़ कम है। ऐसे ही लोगों के लिए राज्य लोकसेवा आयोग की परीक्षा में इन भाषाओं का भी विकल्प रखा गया था।

क्षेत्रवाद कहां तक उचित
सवाल यह उठता है कि क्या सिर्फ बांग्ला को अनिवार्य कर देने से राज्य सरकार की ऊंची नौकरियों में बांग्लाभाषियों का एकाधिकार नहीं बढ़ेगा। इसकी वजह से जो हालात बनेंगे, उससे क्या राज्य का विविध रंगी स्वरूप उसकी ए ग्रेड की नौकरियों में दिखेगा? अगर राज्य की ए ग्रेड की नौकरियों में भाषायी विविधता नहीं दिखेगी, तो क्या उससे निकले अधिकारी राज्य की विविध भाषी आबादी के साथ न्याय कर पाएंगे? सदियों से रह रहे हिंदी, उर्दू, संथाली और नेपाली भाषी लोगों को क्या राज्य का मूल निवासी नहीं माना जाएगा?

ध्यान रहे, राज्य में करीब दो हजार विद्यालय ऐसे हैं, जहां हिंदी माध्यम से पढ़ाई होती है। जाहिर है कि ऐसी पढ़ाई से निकली पीढ़ी के लिए सरकार की बेहतर नौकरियों के लिए बांग्ला को अनिवार्य किया जाना कहां तक सही है? जिस राज्य में नलिनी मोहन सान्याल नामक शख्स को हिंदी में पहली एमए की डिग्री मिली, जहां से हिंदी का पहला अखबार उदंत मार्तंड निकला, उस बंगाल में अगर हिंदी को राज्य लोकसेवा आयोग की परीक्षा से बाहर कर दिया जाए तो हैरत होगी ही।

तृणमूल सरकार ने पिछले विधानसभा चुनाव से पहले हिंदी अकादमी का गठन किया, तो लगा कि ममता राज्य की बहुलवादी भाषायी संस्कृति को बढ़ावा देती रहेंगी, लेकिन उनका अब रुख बदल रहा है। शायद उन्हें लगता है कि राज्य के मूल निवासी में मतदाता बांग्ला के प्रति प्यार दिखाने की वजह से उनके प्रति कहीं ज्यादा अनुकूल रहेंगे, जिसका फायदा उन्हें लोकसभा चुनाव में मिल सकता है।

बड़ी संख्या में हिन्दी पढ़ाते हैं बंगाली
जो पश्चिम बंगाल की पढ़ाई व्यवस्था को जानते हैं, उन्हें पता है कि अंग्रेजी माध्यम से पढऩे वाले बांग्लाभाषियों के बहुत सारे बच्चे दूसरी भाषा के नाम पर हिंदी पढ़ते हैं। इसका असर हिंदीभाषी प्रदेशों में पहुंचे बांग्ला मूल के छात्रों में दिखता है। जाहिर है कि ऐसे विद्यार्थी राज्य लोकसेवा आयोग की परीक्षाओं में हिंदी का भी विकल्प रखते थे। नए अध्यादेश की वजह से इन विद्यार्थियों को भी नुकसान होगा। राज्य के मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा भाषा की इस राजनीति को समझ रहा है। शायद यही वजह है कि राज्य के पंचायत चुनावों में, विशेषकर झारखंड से सटे इलाकों, कोलकाता, चितरंजन, कोलकाता के उपनगरों, सिलीगुड़ी, दार्जिलिंग आदि में भाषा का यह किया मुद्दा भी दिख रहा है। इसका कितना असर पड़ेगा, यह तो नतीजों के बाद ही पता चलेगा। लेकिन यह भी सच है कि पंचायत चुनावों में हिंदी भाषियों पर हो रहे हमलों की एक वजह अध्यादेश के विरोध में उपजा मुद्दा भी है।

दोगला चेहरा
अब जनता सवाल पूछ रही है कि क्या हिन्दी, उर्दू और संथाली भारत की भाषा नहीं है? क्या मुख्यमंत्री क्षेत्रवाद में इतनी अंधी हो गयी हैं कि उन्हें सही और गलत में फर्क नजर नहीं आ रहा है? सवाल यह भी पूछा जा रहा है कि क्या प्रधानमंत्री बनकर ममता बनर्जी पूरे देश की नौकरियों में भी बांग्ला भाषा ही अनिवार्य कर देंगी। यह मुददा खूब गर्म हो रहा है।

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