इमाम बख्श नासिख: जिनकी शायरी ने लखनऊ को अदबी राजधानी बना दिया
कहा जाता है कि अवध के नवाब की सरपरस्ती का प्रस्ताव उन्होंने कठोर अंदाज़ में ठुकरा दिया और यही फैसला उनके लिए लखनऊ से दूरी की वजह बन गया। इसके बाद वे लंबे समय तक लखनऊ और बाहर के बीच आते-जाते रहे; मंत्री हकीम मेहदी के दौर में तो हालात ऐसे बने कि उन्हें शहर से हटना पड़ा।

Imam Bakhsh Nasikh : इमाम बख्श नासिख (1776–1839) उर्दू ग़ज़ल की उस परंपरा का बड़ा नाम हैं, जिसने मुगल दौर के आख़िरी वर्षों में उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ को शायरी की नई राजधानी बनाने में अहम भूमिका निभाई। शुरुआती दिनों में उन्हें मीर काज़िम अली का संरक्षण मिला और इसी संरक्षण के सहारे उनका साहित्यिक कद तेजी से बढ़ा। लेकिन 1830 के दशक में लखनऊ के दूसरे बड़े ग़ज़लकार ख्वाजा हैदर अली ‘आतिश’ से उनकी कड़ी प्रतिद्वंद्विता शुरू हुई, जिसने शहर की अदबी फिज़ा को और तीखा भी किया और चर्चित भी। कहा जाता है कि अवध के नवाब की सरपरस्ती का प्रस्ताव उन्होंने कठोर अंदाज़ में ठुकरा दिया और यही फैसला उनके लिए लखनऊ से दूरी की वजह बन गया। इसके बाद वे लंबे समय तक लखनऊ और बाहर के बीच आते-जाते रहे; मंत्री हकीम मेहदी के दौर में तो हालात ऐसे बने कि उन्हें शहर से हटना पड़ा। मेहदी की मृत्यु के बाद नासिख 1837 में आखिरकार लौटे और दो साल बाद 1839 में लखनऊ में ही उनका इंतकाल हुआ। नासिख के बाद ग़ज़ल की चमक को पुरानी बुलंदी तक पहुंचने में वक्त लगा और फिर यह रौनक बहादुर शाह ज़फ़र के दौर में दिल्ली के अदबी माहौल में जाकर नई तरह से उभरी।
इमाम बख़्श नासिख़ की मशहूर शायरियाँ
1 - ज़िंदगी ज़िंदा-दिली का है नाम,
मुर्दा-दिल ख़ाक जिया करते हैं।
इमाम बख़्श नासिख़ की मशहूर शायरियाँ
2 - जिस क़दर जांघ से तुम रंग नाज़दिक,
हम क़दर दूरी कर दिया जांघ को।
इमाम बख़्श नासिख़ की मशहूर शायरियाँ
3 - काम क्या निकले किसी तदबीर से,
आदमी मजबूर है तकदीर से।
इमाम बख़्श नासिख़ की मशहूर शायरियाँ
4 - आती जाती है जा-बा-जा बदली,
साकिया जल्द आ हवा बदली।
इमाम बख़्श नासिख़ की मशहूर शायरियाँ
5 - वो नहीं भूलता जहाँ जाऊँ,
हाए मैं क्या करूँ कहाँ जाऊँ । Imam Bakhsh Nasikh
Imam Bakhsh Nasikh : इमाम बख्श नासिख (1776–1839) उर्दू ग़ज़ल की उस परंपरा का बड़ा नाम हैं, जिसने मुगल दौर के आख़िरी वर्षों में उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ को शायरी की नई राजधानी बनाने में अहम भूमिका निभाई। शुरुआती दिनों में उन्हें मीर काज़िम अली का संरक्षण मिला और इसी संरक्षण के सहारे उनका साहित्यिक कद तेजी से बढ़ा। लेकिन 1830 के दशक में लखनऊ के दूसरे बड़े ग़ज़लकार ख्वाजा हैदर अली ‘आतिश’ से उनकी कड़ी प्रतिद्वंद्विता शुरू हुई, जिसने शहर की अदबी फिज़ा को और तीखा भी किया और चर्चित भी। कहा जाता है कि अवध के नवाब की सरपरस्ती का प्रस्ताव उन्होंने कठोर अंदाज़ में ठुकरा दिया और यही फैसला उनके लिए लखनऊ से दूरी की वजह बन गया। इसके बाद वे लंबे समय तक लखनऊ और बाहर के बीच आते-जाते रहे; मंत्री हकीम मेहदी के दौर में तो हालात ऐसे बने कि उन्हें शहर से हटना पड़ा। मेहदी की मृत्यु के बाद नासिख 1837 में आखिरकार लौटे और दो साल बाद 1839 में लखनऊ में ही उनका इंतकाल हुआ। नासिख के बाद ग़ज़ल की चमक को पुरानी बुलंदी तक पहुंचने में वक्त लगा और फिर यह रौनक बहादुर शाह ज़फ़र के दौर में दिल्ली के अदबी माहौल में जाकर नई तरह से उभरी।
इमाम बख़्श नासिख़ की मशहूर शायरियाँ
1 - ज़िंदगी ज़िंदा-दिली का है नाम,
मुर्दा-दिल ख़ाक जिया करते हैं।
इमाम बख़्श नासिख़ की मशहूर शायरियाँ
2 - जिस क़दर जांघ से तुम रंग नाज़दिक,
हम क़दर दूरी कर दिया जांघ को।
इमाम बख़्श नासिख़ की मशहूर शायरियाँ
3 - काम क्या निकले किसी तदबीर से,
आदमी मजबूर है तकदीर से।
इमाम बख़्श नासिख़ की मशहूर शायरियाँ
4 - आती जाती है जा-बा-जा बदली,
साकिया जल्द आ हवा बदली।
इमाम बख़्श नासिख़ की मशहूर शायरियाँ
5 - वो नहीं भूलता जहाँ जाऊँ,
हाए मैं क्या करूँ कहाँ जाऊँ । Imam Bakhsh Nasikh












