उत्तर प्रदेश CM हिस्ट्री: किस जाति ने कितनी बार संभाली सत्ता की कमान?
उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार ब्राह्मण समाज से 6 मुख्यमंत्री बने, ठाकुर समाज से 5, जबकि ओबीसी में यादव समाज से 3 मुख्यमंत्री सत्ता के शीर्ष तक पहुंचे। इसी तरह वैश्य समाज से 3 मुख्यमंत्री बने और कायस्थ, जाट, लोधी व दलित समाज से एक-एक बार नेतृत्व का अवसर मिला।

UP News : उत्तर प्रदेश की राजनीति में जातीय संतुलन की चर्चा एक बार फिर तेज हो गई है। उत्तर प्रदेश विधानसभा के शीतकालीन सत्र के दौरान राजधानी लखनऊ में भाजपा के ब्राह्मण विधायकों की एक बैठक के बाद यह मुद्दा फिर सियासी बहस के केंद्र में आ गया है। पार्टी नेतृत्व की ओर से ऐसी बैठकों पर आपत्ति जताए जाने और फिर विधायक पंचानंद पाठक के सोशल मीडिया पर दिए जवाब ने प्रतिनिधित्व बनाम संगठनात्मक अनुशासन की बहस को नई धार दे दी है। इसी बीच उत्तर प्रदेश के 75 वर्षों के राजनीतिक इतिहास पर नजर डालें तो साफ दिखता है कि लंबे समय तक सत्ता की कमान ब्राह्मण समाज के नेताओं के हाथ रही, लेकिन पिछले तीन दशक से यह समुदाय मुख्यमंत्री पद से दूर है। ऐसे में सवाल उठता है उत्तर प्रदेश में अब तक किस समाज के कितने मुख्यमंत्री बने और किस वर्ग का प्रतिनिधित्व किस दौर में मजबूत रहा?
लखनऊ की बैठक से क्यों गरमाई राजनीति?
23 दिसंबर को उत्तर प्रदेश के कुशीनगर से भाजपा विधायक पंचानंद पाठक के सरकारी आवास पर हुई ब्राह्मण विधायकों की बैठक ने सियासी हलकों में खासा शोर मचा दिया। चर्चा रही कि इस बैठक में बड़ी संख्या में विधायक शामिल हुए, जिसने लखनऊ से लेकर जिलों तक राजनीतिक संदेशों की गूंज बढ़ा दी। इसके तुरंत बाद उत्तर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष पंकज चौधरी का सार्वजनिक बयान सामने आया, जिसमें उन्होंने इशारों-इशारों में साफ किया कि इस तरह की अलग-अलग सामाजिक समूहों की बैठकें पार्टी के तय संगठनात्मक ढांचे और अनुशासन के अनुरूप नहीं मानी जातीं। जवाब में विधायक पंचानंद पाठक ने सोशल मीडिया के जरिए अपनी बात रखी, और यहीं से यूपी की राजनीति में ब्राह्मण प्रतिनिधित्व बनाम संगठन में भूमिका की बहस ने नया तूल पकड़ लिया।
उत्तर प्रदेश में किस समाज के कितने मुख्यमंत्री?
आजादी के बाद से अब तक उत्तर प्रदेश की सत्ता की कुर्सी पर कुल 21 मुख्यमंत्री बैठे हैं और यह आंकड़े यूपी की राजनीति की प्रतिनिधित्व-यात्रा की पूरी कहानी कह देते हैं। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार ब्राह्मण समाज से 6 मुख्यमंत्री बने, ठाकुर समाज से 5, जबकि ओबीसी में यादव समाज से 3 मुख्यमंत्री सत्ता के शीर्ष तक पहुंचे। इसी तरह वैश्य समाज से 3 मुख्यमंत्री बने और कायस्थ, जाट, लोधी व दलित समाज को एक-एक बार नेतृत्व का अवसर मिला। साफ है कि उत्तर प्रदेश के शुरुआती दशकों में सत्ता की कमान ब्राह्मण नेतृत्व के इर्द-गिर्द घूमती रही, लेकिन समय के साथ राजनीतिक धुरी बदली और उत्तर प्रदेश में ताकत का केंद्र ठाकुर नेतृत्व, ओबीसी (खासतौर पर यादव) तथा अन्य सामाजिक समूहों की ओर धीरे-धीरे शिफ्ट होता चला गया।
ब्राह्मण नेतृत्व का दौर
आजादी के बाद उत्तर प्रदेश की सियासत का शुरुआती लंबा दौर कांग्रेस के वर्चस्व के नाम रहा और इसी समय सत्ता की कमान अक्सर ब्राह्मण नेतृत्व के हाथों में दिखी। गोविंद वल्लभ पंत से लेकर सुचेता कृपलानी, कमलापति त्रिपाठी, हेमवती नंदन बहुगुणा, श्रीपति मिश्र और नारायण दत्त तिवारी तक, कई ऐसे चेहरे रहे जिन्होंने लखनऊ की कुर्सी पर बैठकर प्रदेश की दिशा तय की। खास बात यह कि नारायण दत्त तिवारी ने तीन बार मुख्यमंत्री पद संभाला, जबकि गोविंद वल्लभ पंत ने दो बार नेतृत्व किया। आंकड़ों की भाषा में देखें तो करीब 23 वर्षों तक उत्तर प्रदेश की सत्ता पर ब्राह्मण मुख्यमंत्रियों की मौजूदगी दर्ज हुई।
ठाकुर, यादव और वैश्य समाज का उभार
ब्राह्मण नेतृत्व के लंबे दौर के बाद उत्तर प्रदेश की सत्ता में ठाकुर समाज की भी मजबूत मौजूदगी रही। इस वर्ग से त्रिभुवन नारायण सिंह, विश्वनाथ प्रताप सिंह और कांग्रेस के वीर बहादुर सिंह से लेकर भाजपा के राजनाथ सिंह और वर्तमान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ तक, कई बड़े नाम लखनऊ की गद्दी तक पहुंचे। कुल मिलाकर, उत्तर प्रदेश की राजनीति में ठाकुर मुख्यमंत्रियों का कार्यकाल जोड़ें तो यह अवधि करीब 17 वर्षों के आसपास बैठती है। इधर मंडल राजनीति के उभार के बाद उत्तर प्रदेश में सत्ता की धुरी धीरे-धीरे ओबीसी राजनीति की ओर शिफ्ट हुई और यादव नेतृत्व एक निर्णायक ताकत बनकर सामने आया। राम नरेश यादव से शुरू होकर मुलायम सिंह यादव और फिर अखिलेश यादव तक, इस समाज ने लगभग 13 वर्षों तक शासन की कमान संभाली। वहीं, वैश्य समाज से भी प्रदेश को मुख्यमंत्री मिलेचंद्रभान गुप्ता, बाबू बनारसी दास और राम प्रकाश गुप्ता। इनमें चंद्रभान गुप्ता दो बार मुख्यमंत्री बने, जबकि बाकी नेताओं को एक-एक बार राज्य का नेतृत्व करने का अवसर मिला।
जाट, लोधी, दलित और कायस्थ: एक-एक मुख्यमंत्री
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद तक पहुंचने की कहानी केवल कुछ बड़े सामाजिक समूहों तक सीमित नहीं रही। समय-समय पर अन्य समाजों से भी ऐसे चेहरे उभरे, जिन्होंने उत्तर प्रदेश की सत्ता और राजनीति को नई दिशा दी। कायस्थ समाज से डॉ. सम्पूर्णानंद मुख्यमंत्री बने, जबकि जाट समाज से चौधरी चरण सिंह ने नेतृत्व संभालकर किसान राजनीति को नई धार दी। लोधी समाज से कल्याण सिंह का उभार भी उत्तर प्रदेश की राजनीति का बड़ा मोड़ माना जाता है। इसी क्रम में दलित समाज से मायावती का नाम उत्तर प्रदेश की सियासत में सबसे प्रभावशाली अध्यायों में गिना जाता है। चार बार मुख्यमंत्री रह चुकी मायावती ने न सिर्फ दलित नेतृत्व को निर्णायक मंच दिया, बल्कि लखनऊ की सत्ता में बहुजन राजनीति को लंबे समय तक केंद्र में बनाए रखा।
32 साल से ब्राह्मण समाज मुख्यमंत्री पद से दूर क्यों?
राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो 1989 के बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति में मंडल–कमंडल के उभार ने सत्ता की पूरी दिशा बदल दी। कांग्रेस का प्रभुत्व तेजी से ढला और उसकी जगह समाजवादी धारा, बसपा तथा भाजपा के विस्तार ने नए सामाजिक गठजोड़ गढ़ दिए। इसी राजनीतिक करवट में ब्राह्मण समाज की भूमिका भी बदलती गई जो नेतृत्व कभी सीधे मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचता था, वह धीरे-धीरे रणनीतिक वोटबैंक, संगठन, चुनावी प्रबंधन और सत्ता-तंत्र की दूसरी अहम भूमिकाओं तक सिमटता चला गया। नतीजा यह रहा कि 1989 के बाद उत्तर प्रदेश में सरकारें कई बार बदलीं, सत्ता की धुरी भी कई बार घूमी लेकिन ब्राह्मण समाज से कोई मुख्यमंत्री नहीं बन सका। UP News
UP News : उत्तर प्रदेश की राजनीति में जातीय संतुलन की चर्चा एक बार फिर तेज हो गई है। उत्तर प्रदेश विधानसभा के शीतकालीन सत्र के दौरान राजधानी लखनऊ में भाजपा के ब्राह्मण विधायकों की एक बैठक के बाद यह मुद्दा फिर सियासी बहस के केंद्र में आ गया है। पार्टी नेतृत्व की ओर से ऐसी बैठकों पर आपत्ति जताए जाने और फिर विधायक पंचानंद पाठक के सोशल मीडिया पर दिए जवाब ने प्रतिनिधित्व बनाम संगठनात्मक अनुशासन की बहस को नई धार दे दी है। इसी बीच उत्तर प्रदेश के 75 वर्षों के राजनीतिक इतिहास पर नजर डालें तो साफ दिखता है कि लंबे समय तक सत्ता की कमान ब्राह्मण समाज के नेताओं के हाथ रही, लेकिन पिछले तीन दशक से यह समुदाय मुख्यमंत्री पद से दूर है। ऐसे में सवाल उठता है उत्तर प्रदेश में अब तक किस समाज के कितने मुख्यमंत्री बने और किस वर्ग का प्रतिनिधित्व किस दौर में मजबूत रहा?
लखनऊ की बैठक से क्यों गरमाई राजनीति?
23 दिसंबर को उत्तर प्रदेश के कुशीनगर से भाजपा विधायक पंचानंद पाठक के सरकारी आवास पर हुई ब्राह्मण विधायकों की बैठक ने सियासी हलकों में खासा शोर मचा दिया। चर्चा रही कि इस बैठक में बड़ी संख्या में विधायक शामिल हुए, जिसने लखनऊ से लेकर जिलों तक राजनीतिक संदेशों की गूंज बढ़ा दी। इसके तुरंत बाद उत्तर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष पंकज चौधरी का सार्वजनिक बयान सामने आया, जिसमें उन्होंने इशारों-इशारों में साफ किया कि इस तरह की अलग-अलग सामाजिक समूहों की बैठकें पार्टी के तय संगठनात्मक ढांचे और अनुशासन के अनुरूप नहीं मानी जातीं। जवाब में विधायक पंचानंद पाठक ने सोशल मीडिया के जरिए अपनी बात रखी, और यहीं से यूपी की राजनीति में ब्राह्मण प्रतिनिधित्व बनाम संगठन में भूमिका की बहस ने नया तूल पकड़ लिया।
उत्तर प्रदेश में किस समाज के कितने मुख्यमंत्री?
आजादी के बाद से अब तक उत्तर प्रदेश की सत्ता की कुर्सी पर कुल 21 मुख्यमंत्री बैठे हैं और यह आंकड़े यूपी की राजनीति की प्रतिनिधित्व-यात्रा की पूरी कहानी कह देते हैं। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार ब्राह्मण समाज से 6 मुख्यमंत्री बने, ठाकुर समाज से 5, जबकि ओबीसी में यादव समाज से 3 मुख्यमंत्री सत्ता के शीर्ष तक पहुंचे। इसी तरह वैश्य समाज से 3 मुख्यमंत्री बने और कायस्थ, जाट, लोधी व दलित समाज को एक-एक बार नेतृत्व का अवसर मिला। साफ है कि उत्तर प्रदेश के शुरुआती दशकों में सत्ता की कमान ब्राह्मण नेतृत्व के इर्द-गिर्द घूमती रही, लेकिन समय के साथ राजनीतिक धुरी बदली और उत्तर प्रदेश में ताकत का केंद्र ठाकुर नेतृत्व, ओबीसी (खासतौर पर यादव) तथा अन्य सामाजिक समूहों की ओर धीरे-धीरे शिफ्ट होता चला गया।
ब्राह्मण नेतृत्व का दौर
आजादी के बाद उत्तर प्रदेश की सियासत का शुरुआती लंबा दौर कांग्रेस के वर्चस्व के नाम रहा और इसी समय सत्ता की कमान अक्सर ब्राह्मण नेतृत्व के हाथों में दिखी। गोविंद वल्लभ पंत से लेकर सुचेता कृपलानी, कमलापति त्रिपाठी, हेमवती नंदन बहुगुणा, श्रीपति मिश्र और नारायण दत्त तिवारी तक, कई ऐसे चेहरे रहे जिन्होंने लखनऊ की कुर्सी पर बैठकर प्रदेश की दिशा तय की। खास बात यह कि नारायण दत्त तिवारी ने तीन बार मुख्यमंत्री पद संभाला, जबकि गोविंद वल्लभ पंत ने दो बार नेतृत्व किया। आंकड़ों की भाषा में देखें तो करीब 23 वर्षों तक उत्तर प्रदेश की सत्ता पर ब्राह्मण मुख्यमंत्रियों की मौजूदगी दर्ज हुई।
ठाकुर, यादव और वैश्य समाज का उभार
ब्राह्मण नेतृत्व के लंबे दौर के बाद उत्तर प्रदेश की सत्ता में ठाकुर समाज की भी मजबूत मौजूदगी रही। इस वर्ग से त्रिभुवन नारायण सिंह, विश्वनाथ प्रताप सिंह और कांग्रेस के वीर बहादुर सिंह से लेकर भाजपा के राजनाथ सिंह और वर्तमान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ तक, कई बड़े नाम लखनऊ की गद्दी तक पहुंचे। कुल मिलाकर, उत्तर प्रदेश की राजनीति में ठाकुर मुख्यमंत्रियों का कार्यकाल जोड़ें तो यह अवधि करीब 17 वर्षों के आसपास बैठती है। इधर मंडल राजनीति के उभार के बाद उत्तर प्रदेश में सत्ता की धुरी धीरे-धीरे ओबीसी राजनीति की ओर शिफ्ट हुई और यादव नेतृत्व एक निर्णायक ताकत बनकर सामने आया। राम नरेश यादव से शुरू होकर मुलायम सिंह यादव और फिर अखिलेश यादव तक, इस समाज ने लगभग 13 वर्षों तक शासन की कमान संभाली। वहीं, वैश्य समाज से भी प्रदेश को मुख्यमंत्री मिलेचंद्रभान गुप्ता, बाबू बनारसी दास और राम प्रकाश गुप्ता। इनमें चंद्रभान गुप्ता दो बार मुख्यमंत्री बने, जबकि बाकी नेताओं को एक-एक बार राज्य का नेतृत्व करने का अवसर मिला।
जाट, लोधी, दलित और कायस्थ: एक-एक मुख्यमंत्री
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद तक पहुंचने की कहानी केवल कुछ बड़े सामाजिक समूहों तक सीमित नहीं रही। समय-समय पर अन्य समाजों से भी ऐसे चेहरे उभरे, जिन्होंने उत्तर प्रदेश की सत्ता और राजनीति को नई दिशा दी। कायस्थ समाज से डॉ. सम्पूर्णानंद मुख्यमंत्री बने, जबकि जाट समाज से चौधरी चरण सिंह ने नेतृत्व संभालकर किसान राजनीति को नई धार दी। लोधी समाज से कल्याण सिंह का उभार भी उत्तर प्रदेश की राजनीति का बड़ा मोड़ माना जाता है। इसी क्रम में दलित समाज से मायावती का नाम उत्तर प्रदेश की सियासत में सबसे प्रभावशाली अध्यायों में गिना जाता है। चार बार मुख्यमंत्री रह चुकी मायावती ने न सिर्फ दलित नेतृत्व को निर्णायक मंच दिया, बल्कि लखनऊ की सत्ता में बहुजन राजनीति को लंबे समय तक केंद्र में बनाए रखा।
32 साल से ब्राह्मण समाज मुख्यमंत्री पद से दूर क्यों?
राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो 1989 के बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति में मंडल–कमंडल के उभार ने सत्ता की पूरी दिशा बदल दी। कांग्रेस का प्रभुत्व तेजी से ढला और उसकी जगह समाजवादी धारा, बसपा तथा भाजपा के विस्तार ने नए सामाजिक गठजोड़ गढ़ दिए। इसी राजनीतिक करवट में ब्राह्मण समाज की भूमिका भी बदलती गई जो नेतृत्व कभी सीधे मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचता था, वह धीरे-धीरे रणनीतिक वोटबैंक, संगठन, चुनावी प्रबंधन और सत्ता-तंत्र की दूसरी अहम भूमिकाओं तक सिमटता चला गया। नतीजा यह रहा कि 1989 के बाद उत्तर प्रदेश में सरकारें कई बार बदलीं, सत्ता की धुरी भी कई बार घूमी लेकिन ब्राह्मण समाज से कोई मुख्यमंत्री नहीं बन सका। UP News











