Wednesday, 1 May 2024

Exclusive : गुर्जर समाज के योद्धाओं ने 1824 में भी रचा था इतिहास, अंग्रेजों को उखाड़ ही दिया था

Exclusive : आप इस समय अत्यंत महत्वपूर्ण जानकारी को पढ़ रहे हैं। आपने अब तक पढ़ा होगा कि हमारे देश…

Exclusive :   गुर्जर समाज के योद्धाओं ने 1824 में भी रचा था इतिहास, अंग्रेजों को उखाड़ ही दिया था

Exclusive : आप इस समय अत्यंत महत्वपूर्ण जानकारी को पढ़ रहे हैं। आपने अब तक पढ़ा होगा कि हमारे देश भारत की आजादी की लड़ाई वर्ष-1857 में शुरू हुई थी। आपकी यह जानकारी आधा सच है। पूरा सच आज हम यहां ‘चेतना मंच’ पर आपको बताएंगे। ध्यान से पढ़ें।

बहादुरी विरासत में मिलती है और शेर का बच्चा शेर ही होता है। भले ही समय की मार के चलते सर्कस में उसे नाचना भी पड़ता है, पर मौका आते ही वह अपनी ताकत दिखा ही देता है। ऐसा ही भारतीयों के साथ भी हुआ। वे गुलामी में नाचे जरूर, मगर जब अति हो गई, उन्होंने बता दिया कि अंग्रेज तो नाम के ही अंग्रेज बहादुर थे, असली शेर तो वे ही हैं। सन्-1857 की क्रांति ने दुनिया को यह दिखा भी दिया और उसे पहले भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का नाम मिला। मगर, बहुत कम लोग ही जानते होंगे कि इससे भी बड़ी लड़ाई तो यहां 33 साल पहले ही लड़ ली और करीब-करीब जीत ली गई थी।

Exclusive :

सब जानते हैं कि वर्ष-1757 ई0 में प्लासी के युद्ध के बाद भारत में अंग्रेंजी राज्य की स्थापना हुई। इस स्थापना के 100 वर्ष बाद 1857 की क्रान्ति ने अंग्रेजों के पतन की इबारत लिखी। वर्ष-1818 में खानदेश के भीलों के संघर्ष में भी भारतीयों ने उन्हें उखाड़-फेंकने का प्रयास किया था। सन्-1857 में हुए सैनिक विद्रोह को भारतीय क्रांति का आरंभ माना जाता है, किन्तु 1824 में हुआ सही अर्थों में पहला विद्रोह था। कुछ इतिहासकारों ने सन-1824 की क्रान्ति को सन्-1857 के स्वतंत्रता संग्राम का पूर्वाभ्यास माना है।

उत्तराखंड प्रदेश के जनपद हरिद्वार की भगवानपुर विधानसभा क्षेत्र में स्थित है एक छोटा सा गांव कुंजा। यह गांव कभी एक छोटा सा राजगढ़ हुआ करता था और यहां के राजा एवं गुर्जर समाज के बहादुर सैनिकों की बहादुरी के किस्सों के साथ जुड़कर यह कुंजा से कुंजा बहादुरपुर हो गया। अब कुंजा ने ऐसा क्या किया कि सारे उत्तराखंड एवं उत्तर प्रदेश में उसे कुंजा बहादुरपुर कहा जाने लगा। आज आपको बता रहे हैं।

3 अक्टूबर-1824 को तत्कालीन जिला सहारनपुर (वर्तमान में जनपद हरिद्वार) के कुंजा क्षेत्र में स्वतन्त्रता-संग्राम की ज्वाला प्रचंड रूप से भड़की थी। आधुनिक हरिद्वार जनपद में रूड़की शहर के पूर्व में लंढौरा नाम का एक कस्बा है, जो वर्ष-1947 तक पंवार वंश के राजाओं की राजधानी था। तब लंढौरा रियासत में 804 गांव थे और यहां के शासकों का प्रभाव समूचे पश्चिम उत्तर प्रदेश में था। हरियाणा के करनाल क्षेत्र और गढ़वाल में भी इस वंश के शासकों का व्यापक प्रभाव था।
वर्ष-1803 में अंग्रेजों ने ग्वालियर के सिंधियाओं को परास्त कर समस्त उत्तर प्रदेश को उनसे युद्ध हर्जाने के रूप में प्राप्त किया था। तब पंवार वंश की लंढौरा, नागर वंश की बहसूमा, भाटी वंश की दादरी व जाटों की कुचेसर आादि ताकतवर रियासतें अंग्रेजांे की आंखों में कांटे की तरह चुभने लगी थीं।

Exclusive :

वर्ष-1813 में लंढौरा के राजा रामदयाल सिंह की मृत्यु होने पर उत्तराधिकारी के प्रश्न पर राज परिवार में गहरे मतभेद उत्पन्न हो गये थे। इस स्थिति का लाभ उठाकर अंग्रेजों ने रियासत को भिन्न दावेदारों में बांट दिया और एक बड़े हिस्से को अपने राज्य में मिला लिया। उस समय लंढौरा रियासत का ही एक ताल्लुका था, सहारनपुर-रूड़की मार्ग पर भगवानपुर के निकट स्थित कुंजा-बहादुरपुर। तब इस ताल्लुके में 44 गांव थे। सन्-1819 में विजय सिंह यहां के ताल्लुकेदार बने।

लंढौरा राज परिवार के निकट सम्बन्धी व साम्राज्यवाद के विरोधी विजय सिंह के मन में अंग्रेजों के खिलाफ बहुत आक्रोश था। वह लंढौरा रियासत के विभाजन को मन से स्वीकार नहीं कर पाए। उधर क्षेत्र के किसानों को अंग्रेजों का शासन कई वर्षों के सूखे के बाद भी बढ़ते राजस्व चुकता करने को सता रहा था, जिसने उन्हें संगठित विद्रोह करने के लिए मजबूर कर दिया। अपने विरूद्व खडे़ इन संगठनों को अंग्रेज डकैतों का गिरोह कहते थे। लेकिन, इन्हें जनता का भरपूर समर्थन प्राप्त था।
इन संगठनों में एक क्रान्तिकारी संगठन का प्रमुख नेता कल्याण सिंह उर्फ कलुआ गुर्जर था। देहरादून क्षेत्र में उसने अंग्रेजी राज्य की चूलें हिला रखी थी। दूसरे संगठन के प्रमुख कुंवर गुर्जर और भूरा गुर्जर थे। जो तब के सहारनपुर क्षेत्र में अंग्रेजों के लिए सिरदर्द बने हुए थे। इस प्रकार सहारनपुर, हरिद्वार तथा देहरादून क्षेत्र प्रथम क्रांति का केन्द्र बन चुके थे।

The warriors of Gurjar society had created history even in 1824, they had overthrown the British.
The warriors of Gurjar society had created history even in 1824, they had overthrown the British.

ताल्लुकेदार विजय सिंह स्थिति पर नजर रखे हुए थे। उन्होंने अपनी पहल पर पश्चिम उत्तर प्रदेश के सभी अंग्रेज विरोधी जमीदारों, ताल्लुकेदारों, मुखियाओं, क्रान्तिकारी संगठनों से सम्पर्क स्थापित किया और एक सशस्त्र क्रान्ति के माध्यम से अंग्रेजों को खदेड़ देने की योजना उनके समक्ष रखी। विजयसिंह के आह्वान पर उस समय किसानों की एक आम सभा सहारनपुर के भगवानपुर में हुई, जिसमें सहारनपुर, हरिद्वार, देहरादून-मुरादाबाद, मेरठ और यमुनापार हरियाणा के किसानों ने भाग लिया। सभा में उपस्थित किसानों ने विजय सिंह की क्रान्तिकारी योजना को स्वीकार कर उनसे ही भावी मुक्ति संग्राम के नेतृत्व का आग्रह किया, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। कल्याण सिंह उर्फ कलुआ गुर्जर ने विजय सिंह के साथ मिलकर अंग्रेजों से दो-दो हाथ करने का फैसला किया। अब वे किसी अच्छे अवसर की ताक में थे।

वर्ष-1824 में बर्मा के युद्व में अंग्रेजों की हार व बैरकपुर में अंग्रेजी सरकार के विरूद्व विद्रोह ने विजय सिंह के मन में उत्साह पैदा किया और समय को अनुकूल मान क्षेत्रीय किसानों ने स्वतन्त्रता की घोषणा भी कर दी। इस स्वतन्त्रता संग्राम के आरम्भिक दौर में देहरादून क्षेत्र में सक्रिय कल्याण सिंह ने शिवालिक की पहाड़ियों में अच्छा प्रभाव स्थापित कर लिया। उसने नवादा गांव के शेखजमां और सैयाजमां (जो अंग्रेजांे के खास मुखबिर थे, और क्रान्तिकारियों की गतिविधियों की गुप्त सूचना अंग्रेजों को देते रहते थे) आक्रमण कर इन गद्दारों की सम्पत्ति जब्त कर ली। इस घटना ने अंग्रजों के लिये चेतावनी का कार्य किया पर वे कुछ न कर पाए। 30 मई 1824 को कल्याण सिंह, रायपुर ग्राम से अंग्रेज परस्त गद्दारों को पकड़कर देहरादून ले गए तथा देहरादून के जिला मुख्यालय के निकट उन्हें कड़ी सजा दी।

कल्याण सिंह के इस चुनौतीपूर्ण व्यवहार से अंग्रेजों का सहायक मजिस्ट्रेट बुरी तरह बौखला गया। स्थिति की गम्भीरता को देखते हुये उसने सिरमोर बटालियन बुला ली। कल्याण सिंह के फौजी दस्ते की ताकत सिरमौर बटालियन से काफी कम थी। अतः कल्याण सिंह ने देहरादून क्षेत्र छोड़ दिया, और उसके स्थान पर सहारनपुर, ज्वालापुर और करतापुर को अपनी क्रान्तिकारी गतिविधियों का केन्द्र बनाया।

उन्होंने 7 सितम्बर सन-1824 को करतापुर पुलिस चौकी को नष्ट कर हथियार लूट लिये। पांच दिन बाद आक्रमण कर भगवानपुर जीत लिया। सहारनपुर के ज्वाइंट मजिस्ट्रेट ग्रिन्डल ने घटना की जांच के आदेश कर दिये। जांच में क्रान्तिकारी गतिविधियों के कुंजा के किले से संचालित होने के तथ्य प्रकाश में आये तो ग्रिन्डल ने विजय सिंह के नाम सम्मन जारी कर दिया, जिसे अनदेखा कर विजयसिंह ने निर्णायक युद्व की तैयारी आरम्भ कर दी।

एक अक्टूबर 1824 को आधुनिक शस्त्रों से सुसज्जित 200 पुलिस रक्षकों की कड़ी सुरक्षा में सरकारी खजाना ज्वालापुर से सहारनपुर जा रहा था। कल्याण सिंह के नेतृत्व में क्रान्तिकारियों ने कालाहाथा नामक स्थान पर इस पुलिस दल पर हमला कर खजाना लूट लिया और विजय सिंह के साथ मिलकर स्वदेशी राज्य की घोषणा कर दी। अपने नये राज्य को स्थिर करने के लिए अनेक फरमान जारी किये। रायपुर सहित बहुत से गांवों ने विजय सिंह को राजस्व देना स्वीकार कर लिया। अब तो चारों ओर आजादी की हवा चलने लगी और अंग्रेजी राज्य इस क्षेत्र से सिमटता प्रतीत होने लगा। कल्याण सिंह ने स्वतन्त्रता संग्राम को नवीन शक्ति प्रदान करने के उद्देश्य से सहारनपुर जेल में बन्द स्वतन्त्रता सेनानियों व सहारनपुर शहर को जेल तोड़कर मुक्त करने की योजना बनायी।

क्रान्तिकारियों की इस कार्य योजना से अंग्रेजी प्रशासन चिन्तित हो उठा, और बाहर से भारी सेना बुला ली गयी। कैप्टन यंग को ब्रिटिश सेना की कमान सौंपी गयी। जल्द ही अंग्रेजी सेना ही कुंजा के निकट सिकन्दरपुर पहुंच गयी। राजा विजय सिंह ने किले के भीतर और कल्याण सिंह ने किले के बाहर मोर्चा सम्भाला। किले में भारतीयों के पास दो तोप थीं। कैप्टन यंग के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना, जिसमें मुख्यतः गोरखे थे, कुंजा के काफी निकट आ चुकी थी।

The warriors of Gurjar society had created history even in 1824, they had overthrown the British.
The warriors of Gurjar society had created history even in 1824, they had overthrown the British.

03 अक्टूबर को ब्रिटिश सेना ने अचानक हमला कर दिया। भारतीयों ने स्थिति पर नियन्त्रण पाते हुए जमीन पर लेटकर मोर्चा संभाल कर जवाबी कार्रवाई शुरू कर दी। भयंकर युद्ध छिड गया। दुर्भाग्यवश इस संघर्ष में लड़ने वाले स्वतन्त्रता सेनानियों का सबसे बहादुर योद्वा कल्याण सिंह अंग्रेजों के इस पहले ही हमले मे शहीद हो गये। पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कुंजा में लडे़ जा रहे स्वतन्त्रता संग्राम का समाचार जंगल की आग की तरह फैल गया।

उधर, बहसूमा और दादरी रियासत के राजा भी अपनी सेनाओं के साथ गुप्त रूप से कुंजा के लिए कूच कर गये। बागपत और मुजफ्फरनगर के आसपास बसे चौहान गोत्र के कल्सियान किसान भी भारी मात्रा में इस स्वतन्त्रता संग्राम में राजा विजय सिंह की मदद के लिये निकल पडे़। अंग्रेजों को जब इस हलचल का पता लगा तो उनके पैरों के नीचे की जमीन खिसक गयी।
उन्होंने बड़ी चालाकी से कार्य किया। अंग्रेजों ने एक झूठी कहानी गढ़ी। उन्होंने कल्याण सिंह के मारे जाने का समाचार पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में फैला दिया। साथ ही कुंजा के किले के पतन और स्वतन्त्रता सेनानियों की हार की झूठी अफवाह भी उड़ा दी। अंग्रेजों की चाल सफल रही। अफवाहों से प्रभावित होकर अन्य क्षेत्रों से आने वाले स्वतन्त्रता सेनानी हतोत्साहित और निराश होकर अपने क्षेत्रों को लौट गये।

तब अंग्रेजों ने बमबारी से किले को उड़ाने का प्रयास किया। किले की दीवार कच्ची मिट्टी की बनी थी, जिस पर तोप के गोले विशेष प्रभाव न डाल सकें। परन्तु, अन्त में तोप से किले के दरवाजे को तोड़ गोरखा सेना किले में घुसने में सफल हो गयी। दोनों ओर से भीषण युद्व हुआ। सहायक मजिस्ट्रेट मिशोर युद्ध में बुरी तरह से घायल हो गया। परन्तु, विजयश्री अन्ततः अंग्रेजों को प्राप्त हुई। राजा विजय सिंह बहादुरी से लड़ते हुए शहीद हो गये।

भारतीयों की हार की वजह मुख्यतः आधुनिक हथियारों की कमी थी, वे अधिकांशतः तलवार, भाले बन्दूकों जैसे हथियारों से लडे़। जबकि ब्रिटिश सेना के पास 303 बोर आधुनिक रायफल और कारबाइनें थीं। इस पर भी भारतीय बड़ी बहादुरी से लडे़, और उन्होंने आखिरी सांस तक अंग्रेजों का मुकाबला किया।

ब्रिटिश सरकार के आंकड़ों के अनुसार 152 स्वतन्त्रता सेनानी शहीद हुए, 129 जख्मी हुए और 40 गिरफ्तार किये गये। लेकिन, वास्तविकता में शहीदों की संख्या काफी अधिक थी। भारतीय क्रान्तिकारियों की शहादत से भी अंग्रेजी सेना का दिल नहीं भरा और युद्व के बाद उन्होंने कुंजा के किले की दीवारों को भी गिरा दिया।

ब्रिटिश सेना विजय उत्सव मनाती हुई देहरादून पहुंची। वह अपने साथ क्रान्तिकारियों की दो तोपें, कल्याण सिंह का सिर और विजय सिंह का वक्षस्थल भी ले गये। ये तोपें देहरादून के परेड स्थल पर रख दी गयीं। भारतीयों को आंतकित करने के लिए राजा विजय सिंह का वक्षस्थल और कल्याण सिंह का सिर एक लोहे के पिंजरे में रखकर देहरादून जेल के फाटक पर लटका दिया। कल्याण सिंह के युद्ध की प्रारम्भिक अवस्था में ही शहादत के कारण क्रान्ति अपने शैशव काल में ही समाप्त हो गयी।
कैप्टन यंग ने कुंजा के युद्ध के बाद स्वीकार किया था कि यदि इस विद्रोह को तीव्र गति से न कुचला गया होता, तो दो दिन के समय में ही इस युद्व को हजारों अन्य लोगों का समर्थन प्राप्त हो जाता। और, यह विद्रोह समस्त पश्चिम उत्तर प्रदेश में फैल जाता। इस तरह 1824 का यह मिनी स्वतंत्रता संग्राम बाद के 1857 के वृहद संग्राम की तरह ही असफल हो गया। लेकिन, इस संघर्ष में भारतीयों के मन में अंग्रेजों को यहां से निकाल फेंकने की जो भावना पैदा हुई, वह मर नहीं पाई। अपितु जैसे ही समय मिला, स्थान स्थान पर स्थानीय विद्रोह के रूप में वह प्रकट होती रही और अंततः 15 अगस्त 1947 को अंग्रेजों को भारत को स्वाधीन घोषित करना ही पड़ा।

जानिए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1822-24 कुंजा क्रांति को:

आजादी के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कुंजा क्रांति के महानायक राजा विजय सिंह गुर्जर व उनके सेनापति कल्याण सिंह गुर्जर को कई दिनों तक कुंजा बहादुरपुर में चले भीषण संग्राम के बाद अंग्रेजी फौज के द्वारा 3 अक्टूबर 1824 को शहीद कर दिया गया था। युद्ध खत्म होने के बाद अंग्रेजी फौज उन वीर योद्धाओं के सिर अपने साथ ले गई थी। तब बचे हुए कटे फटे अंगों को इक्ट्ठा करके गांव डाडली निवासी गुर्जर गुलाब सिंह परमार जी ने मुखाग्नि देकर वीर शहीदों को प्रथम श्रद्धांजलि दी थी। जिसकी एवज में उन्हें भी फिरंगी हुकुमत द्वारा सजा के तौर पर फांसी पर चढ़कर अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी थी। इतिहासकारों द्वारा भुला दिए गए ऐसे अमर शहीदों को कोटि कोटि नमन। जय हिंद, जय वीर गुर्जर समाज।

तो यह है भारत के स्वतंत्रता का असली इतिहास। इतिहास के कुछ और रोचक किस्से शीघ्र ही आपके सामने लेकर आएंगे। जुड़े रहें अपने इस न्यूज पोर्टल www.chetnamanch.com से।

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