OMG : OMG कुछ साल पहले एक प्रसिद्ध फिल्म आई थी। फिल्म का नाम था ओ माई गॉड। इस फिल्म का शॉर्टकट में OMG नाम दिया गया था। OMG भगवान और भक्त के बीच की कहानी थी। OMG की तरह से कुछ कहानियां और भी लिखी गयी हैं। हाल ही में सुश्री प्रवीणा अग्रवाल ने OMG फिल्म जैसा ही कुछ अपने जीवन में अनुभव किया है। उनके सपने में भगवान ने दर्शन दिए। आप भी जान लीजिए भक्त और भगवान के बीच क्या बात हुई ?
जब मिल गए भगवान
सुश्री प्रवीणा अग्रवाल ने लिखा है कि कल रात का खाना खाने के बाद मैं सड़क पर टहल रही थी। यद्यपि मेरी आदत टहलने की नहीं है पर यह भी शायद कोई संयोग था। जिसके विषय में मैं आज भी यह निश्चय नहीं कर पायी कि यह सुखद था या दुखद! देखती क्या हूं कि शंख, चक्र, गदा पद्मधारी भगवान जी चले आ रहे हैं। सोचा कोई बहुरूपिया होगा, भगवान का वेश धारण कर घूम रहा है। पर उनकी चार भुजाएं ! या तो बहुरूपिया अपने काम में निश्चय ही बहुत सिद्धहस्त है या फिर साक्षात भगवान ने ही दर्शन दे दिए हैं। मैं मन ही मन अपने कर्मों का हिसाब लगाने लगती हूं। ऐसा तो कुछ तप, ध्यान, आराधन, पूजन किया नहीं कि भगवान साक्षात दर्शन दे दें। चलते-चलते मैं और भगवान आमने-सामने आ गए और जैसी कि हमारी दार्शनिक -पौराणिक मान्यता है कि ब्रह्म का दर्शन होते ही समस्त माया तिरोहित हो जाती है। वही मेरे साथ घटित हुआ और सारे भ्रम मिट गए। अब कोई भ्रम नहीं रहा कि निश्चय ही सामने साक्षात श्री हरि विष्णु खड़े हैं। मैंने कहा अहो भाग्य! मुझ दीन को आपका साक्षात दर्शन हुआ और प्रभु को साष्टांग दंडवत किया। उन्होंने अपना वरद हस्त उठाकर मेरा प्रणाम स्वीकार किया। मैंने कहा प्रभु सारी दुनिया आपको खोज रही है, अब आप कहां जा रहे हैं? क्या किसी व्रती, तपस्वी, आराधक की कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर वरदान देने जा रहे हैं या भक्त वत्सल प्रभु के किसी भक्त पर ऐसा संकट आया है कि प्रभु को सहायता के लिए जाना पड़ रहा है। प्रभु श्री हरि बोले अरे रुको-रुको एक साथ कितने प्रश्न पूछोगी। मैं किसी तपस्वी को उसकी तपस्या का फल/वर देने नहीं जा रहा हूं ना किसी भक्त की सहायता के लिए जा रहा हूं क्योंकि ना तो अब ऐसे तपस्वी रहे और ना ऐसे भक्त जिनको मुझ पर अगाध भक्ति, श्रद्धा और विश्वास हो। अखिल विश्व में अविश्वास एवम् अश्रद्धा का अंधकार ही विस्तार पा रहा है। मैं आश्चर्यचकित, हतबुद्धि सी प्रभु का मुख निहारती हूं। फिर क्या बात है प्रभु यह तो आपके शयन का समय है भ्रमण का नहीं। इसके लिए तो नारद मुनि ही पर्याप्त है जो देश दुनिया के समाचार आप तक पहुंचाते रहते हैं। प्रभु के होठों पर एक भुवन मोहिनी मुस्कान आ गई। उन्होंने कहना आरंभ किया, तुम मनुष्यों के साथ यही समस्या है कि मैं तुम्हारे लिए अज्ञेय ही हूं तुमने मुझे जाना ही नहीं। मुझे वृहदाकार भवनों में बंदी बना रखा है। ऊंची-ऊंची दीवारों एवं दीर्घाकार दरवाजों में हर वक्त कैद रहते-रहते मैं ऊब गया हूं। मेघाच्छादित आकाश, रिमझिम फुहार,बासंती बयार, शुभ्र नीलाकाश ,उजली धूप ,सतरंगी सूर्य रश्मियों एवं धवल चंद्रिका के नयनाभिराम, मनमोहक आनंददायक दृश्यों एवं अनुभवों से मुझे वर्षों से वंचित कर रखा है। मेरे और मेरी सृष्टि के बीच कितनी दीवारें खड़ी कर दी हैं। उस पर हर दिन मेरे मंदिर में भक्तों की इतनी भीड़ उपस्थित होती है कि सांस लेना दूभर हो जाता है। भक्त भी कैसे-कैसे हर एक कुछ ना कुछ मांगता ही रहता है। मैं किस-किस की इच्छा पूर्ण करूं। भक्तों की अनंत आकांक्षाओं, आशाओं एवं इच्छाओं का मुझ पर भारी बोझ हो गया है, जो कि दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है।
भगवान घर आने लगे
मैं इन सब पर अभी विचार ही कर रही थी कि प्रभु ने जैसे मेरे कानों में बम ही फोड़ दिया। क्या तुम मुझे अपने साथ ले चलोगी? मैं शांति से रहना चाहता हूं। मैं एकदम गंभीर हो गई क्या उत्तर दूं। अचानक मेरे दिमाग में खतरे की घंटी बजी। सावधान! प्रभु ने वामनरूप रखकर राजा बलि से मात्र तीन पग धरती मांगी थी और तीन पगों में ही तीनों लोक (स्वर्ग लोक, मृत्यु लोक, पृथ्वी, एवं पाताल लोक) नाप लिए थे, मुझ मध्यवर्गीय व्यक्ति के आवास की तो बिसात ही क्या? पर प्रत्यक्षत: मैंने कहा कि हे प्रभु आप अनादि, अनंत, सर्व व्यापक घट-घटवासी, यदि मैं आपको अपने साथ ले गई तो मेरे दो कमरों के छोटे से घर में आपका यह विराटरुप कहां समाएगा। आपके पहुंचते ही मेरे छोटे से गृह में आपके दर्शन, पूजन हेतु इतनी भीड़ आ जाएगी कि आपके साथ-साथ मेरी भी शांति भंग हो जाएगी। अगर कहीं आपके प्रतिष्ठान के पंडों पुजारियों एवं प्रबंध समिति को ज्ञात हो गया ना कि आप मेरे यहां विराजमान हैं तो निश्चय ही मेरी दुर्गति में कोई कोर कसर नहीं रखेगे। आप भले ही स्वेच्छया आए हैं पर वे लोग इस पर क्यों विश्वास करेंगे। उनको तो यही लगेगा कि प्रभु दिन -रात्रि की सेवा, छप्पन भोग, संध्या, शयन आरती, स्तुति, यश, कीर्ति छोडक़र मुझ जैसे सामान्य आदमी के यहां क्यों निवास करेंगे? भले ही अपने भजन कीर्तन में शबरी के गुण गाए या यह कहे कि दुर्योधन घर मेवा त्यागी साग विदूर घर खायो पर आचरण में कतई ऐसा नहीं मानते। अगर कहीं आमजनों को यह ज्ञात हो गया कि प्रभु ने अपना मंदिर छोड़ दिया है तो मठाधीशों का क्या होगा। यदि कहीं आपकी चोरी का आरोप मुझे दीन पर लगा दिया प्रभु तो मेरा तो संपूर्ण जीवन जेल की चारदीवारी के अंदर ही बीत जाएगा।
भगवान ने छोड़ दिया मंदिर
मेरे इंकार के कारण या मेरे बनाए बहानों के कारण प्रभु विचार मग्न हो गए। अचानक मुझे पता नहीं क्या सूझा कि मैंने ही प्रश्न कर दिया कि हे महाप्रभु! आपने अपना भवन छोडक़र जाने के जो भी कारण मुझ अज्ञानी से कहे हैं वह तो अनेक वर्षों से विद्यमान है। फिर अचानक प्रभु आपको ऐसा क्या हुआ कि आपने गृह त्याग का निश्चय कर लिया। प्रभु ध्यान मग्न हो गए, न जाने क्यों मुझे ऐसा लगा कि प्रभु अनिश्चय की अवस्था में है जैसे विचार कर रहे हो कि मुझे बताएं या ना बताएं। फिर उन्होंने धीरे-धीरे कहना आरंभ किया पुत्री! तुम्हारा कथन सत्य है कि जिन परिस्थितियोंवश मैंने गृह त्याग किया वह सैकड़ो वर्ष पूर्व भी विद्यमान थी। किंतु मानव नीति-अनीति का विचार किए बिना जिस प्रकार धन लोलुप हो रहा है और जैसा उसका अधो पतन हो रहा है क्या यह स्वीकार्य है।
लोग मेरे भवन में आते थे। अपनी श्रद्धा एवं सामर्थ्यानुसार मुझे जल, दुग्ध, दधि घृत, फल, पुष्प, अक्षत, पकवान, मिष्ठान, धन धान्य समर्पित करते थे। मुझे क्या इससे कोई अंतर पड़ता है कि कौन मुझे पकवान- मिष्ठान समर्पित कर रहा है और कौन अक्षत पुष्प या कोई केवल अपनी श्रद्धा, भक्ति एवं भाव ही निवेदित कर रहा है। मैं क्या इन सभी के बीच कोई भेद करता हूं। पर तन्त्र ने तो मेरा व्यवसायी करण कर दिया। मेरे एवं मेरे भक्त के बीच बाजार खड़ा हो गया है। सामान्य दर्शन करना है या विशिष्ट। सामान्य दर्शन का शुल्क अलग विशिष्ट दर्शन का शुल्क अलग। भक्त श्रद्धा भाव से आपूरित सामग्री मुझे अर्पित करने के लिए लेकर आता था। वह सब व्यवस्था एवं सुरक्षा के नाम पर बंद कर दिया गया। प्रसाद मंदिर से ही मिलेगा बस भक्तों को मूल्य देना होगा। इस पर भी भक्तों की मुझ पर अगाध भक्ति कि हर वर्ष करोड़ों रुपए, हीरे-मोती, स्वर्णाभूषण मुझे भेंट किए जाते हैं। जो मंदिर के कोष में जमा होते जाते हैं। पर बाजार तो हमेशा और और और लाभ की सोच से चलता है। इसलिए मेरे प्रसाद में भी बेईमानी होने लगी। मेरे भक्तों को महाप्रसाद के नाम पर गाय व सूअर की चर्बी तथा मछली का तेल तक खिलाने की नौबत आ गई। मेरे भक्तों ने भले ही वर्ष 1857 की तरह विद्रोह नहीं किया किंतु मेरा हृदय विदीर्ण हो गया है। मेरा उस गृह से मन विरक्त हो गया है।
मैं अचंभित होकर प्रभु की ओर देखती हूं किंतु मेरी जिज्ञासा मुझे मौन नहीं रहने देती। मैं फिर पूछती हूं कि हे प्रभु! आप तो संपूर्ण विश्व के सबसे बड़े न्यायाधीश और दंडाधीश हैं, सभी को उसके कर्मों के अनुसार फल देते हैं फिर दुष्कर्मियों को दंडित क्यों नहीं करते? प्रभु का मुख मंडल सहज आनंद से उद्भासित हो उठा है। वह बोले पुत्री! इस प्रश्न का उत्तर अत्यंत गूढ है और उतना ही सरल भी। तुम सभी मेरी ही संतान हो मेरी ही सृष्टि। फिर एक पिता अपनी संतान के प्रति कितना निर्मम हो सकता है? अपनी संतान को मैं जो चोट देता हूं वह सुनार, कुम्हार या फिर लोहार की चोट है जिसका लक्ष्य उसकी कमियों को दूर कर उसे नए आकार में ढालना होता है। पुत्री! अभी तुमने स्वयं ही कहा है कि मैं कर्म के अनुसार फल देता हूं पर कर्म तो बीज के समान है। बीज के अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित होने के बाद ही फल प्राप्त होता है। इसीलिए कर्म का फल प्राप्त होने में समय लगता है चाहे वह सत्कर्म हो या दुष्कर्म। मैं एक उदाहरण से तुम्हें अपनी बात समझाता हूं यदि बीज पपीते का है तो फल एक दो वर्ष में प्राप्त हो जाता है किंतु यदि बीज इमली का है तो फल प्राप्त होने में 35 वर्षों का समय लगता है। इसी प्रकार कुछ कर्मों का फल तत्काल मिलता है और कुछ कर्मों का फल प्राप्त होने में जन्म-जन्मांतर का समय लग जाता है जीव बार-बार जन्मता एवं मृत्यु को प्राप्त होता है और कृत कर्मों का फल भोगता है।
इससे पहले कि मैं कुछ और पूछती भगवान अंतर्ध्यान हो गए। मेरे मस्तिष्क को एक तीव्र झटका लगा जैसे मैं किसी स्वप्न से जागी हूं और समझ नहीं पा रही हूं कि यथार्थ में मुझे श्री हरि का साक्षात दर्शन हुआ है या फिर यह मेरे चेतन और अवचेतन के बीच के द्वंद का परिणाम मात्र है।
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