Friday, 3 May 2024

Article : कंपनियों के बुने विज्ञापन जाल में फंस रहे बच्चे

न्यूजीलैंड की ‘यूनिवर्सिटी ऑफ ओटागो’ से सम्बद्ध ‘वेलिंगटन स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ’ की प्रमुख प्रोफेसर लुईस सिग नल की टीम…

Article : कंपनियों के बुने विज्ञापन जाल में फंस रहे बच्चे
न्यूजीलैंड की ‘यूनिवर्सिटी ऑफ ओटागो’ से सम्बद्ध ‘वेलिंगटन स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ’ की प्रमुख प्रोफेसर लुईस सिग

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नल की टीम का अध्ययन भी इस मकडज़ाल की तरफ इशारा करता है। वैज्ञानिक पत्रिका ‘द लैंसेट प्लैनेटरी हेल्थ’ में प्रकाशित उनका शोध बताता है कि कंपनियों ने विज्ञापनों के जरिए 11-13 साल के बच्चों को हर 10 घंटे में 554 ब्रांड से अवगत कराया। मतलब, हर मिनट बच्चों ने कम से कम एक ब्रांड के बारे में जान लिया। बच्चों ने बड़ी संख्या में जंक फूड के विज्ञापन भी देखे। शोध के मुताबिक, रोजाना औसतन 68 जंक फूड के विज्ञापनों से बच्चों का सामना हुआ। प्रोफेसर सिगनल इन विज्ञापनों को मोटापे की महामारी करार देती हैं तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है।

सब जानते और मानते हैं कि बच्चे मन के भोले होते हैं। उन्हें आसानी से बरगलाया जा सकता है। इस सच्चाई को खासकर खाद्य और पेय उत्पाद बनाने वाली कंपनियां बखूबी भुना रही हैं। बच्चों को ‘सॉफ्ट टारगेट’ समझकर इन कंपनियों ने विज्ञापन का ऐसा जाल बुना है, जिसमें फंसकर अभिभावक न सिर्फ अपनी जेब हल्की कर रहे हैं बल्कि अनजाने में अपने बच्चों के जीवन के लिए भी खतरा पैदा कर रहे हैं। मेडिकल जर्नल ‘बीएमजे’ के एक व्यापक शोध से तो यही साबित होता है। शोध के नतीजे न सिर्फ कंपनियों की विज्ञापन पॉलिसी पर सवाल खड़े करते हैं बल्कि, बच्चों से जुड़े उत्पादों को उनके जीवन के लिए ही खतरा बताते हैं।

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शायद आपने गौर किया हो कि आजकल टेलीविजन से लेकर सोशल मीडिया पर ऐसे विज्ञापनों की भरमार है, जिनमें बच्चों की लंबाई, इम्यूनिटी, स्टेमिना और मेमोरी तक बढ़ाने के दावे के साथ उत्पाद पेश किए जा रहे हैं। एक से बढक़र एक दावे, हर कोई बच्चों के लिए अपने उत्पाद को दूसरी कंपनी से बेहतर साबित करने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार है। लेकिन हकीकत क्या है, इसका भंडाफोड़ ‘बीएमजे’ में प्रकाशित शोध कर रहा है। वैज्ञानिकों ने भारत समेत 15 देशों में 757 उत्पादों का अध्ययन करने के बाद नतीजे तैयार किए हैं। अप्रैल, 2020 से जुलाई, 2022 तक किए गए अध्ययन में वैज्ञानिकों ने पाया कि बच्चों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े उत्पादों में से 700 से अधिक उत्पादों को लेकर किए गए दावे वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित नहीं हैं। साथ ही, उत्पादों में इस्तेमाल होने वाली 307 तरह की सामग्री और दावों के बीच कोई संबंध ही नहीं है। मतलब साफ है, इन सामग्रियों को लेकर किए गए दावे मनगढ़ंत हैं। वैज्ञानिकों को काफी खोजबीन के बाद भी इन सामग्रियों के क्लिनिकल ट्रायल का कोई डाटा नहीं मिला। ऐसे उत्पाद न सिर्फ अभिभावकों की गाढ़ी कमाई से कंपनियों का खजाना भर रहे हैं बल्कि, बच्चों की सेहत के लिए नुकसानदेह साबित हो रहे हैं।

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निश्चित रूप से ‘बीएमजे’ में प्रकाशित शोध के नतीजे डराने वाले हैं। बच्चों को विज्ञापनों के जरिए टारगेट करने की कंपनियों की होड़ यहीं खत्म नहीं हो जाती। खानपान से जुड़े उत्पादों से लेकर लाइफस्टाइल से जुड़े उत्पादों तक के विज्ञापन बच्चों को लक्ष्य बनाकर परोसे जा रहे हैं। विज्ञापन का व्यापक मनोवैज्ञानिक प्रभाव बच्चों पर सबसे ज्यादा पड़ता है, इस सच्चाई को कंपनियां बखूबी समझती हैं। इसी को ध्यान में रखकर विज्ञापन पॉलिसी तैयार की जा रही है। यूनाइटेड स्टेट्स की आधिकारिक वेबसाइट ‘नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन’ पर दिए गए तथ्य इस पॉलिसी की पोल खोलते हैं। हाल यह है कि अकेले खाद्य और पेय कंपनियां हर साल बच्चों से जुड़े उत्पादों के विज्ञापनों पर 1200 करोड़ रुपए से ज्यादा खर्च करती हैं। टेलीविजन पर दिखाए जाने वाले कुल विज्ञापनों में से 18 फीसदी खाद्य पदार्थों से जुड़े होते हैं, जिनका प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष निशाना बच्चे हैं। एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि 3-13 साल के बच्चों के मोटापे का सीधा संबंध खाद्य पदार्थों के विज्ञापनों से पाया गया है। वेबसाइट का दावा है कि एक साल में बच्चे औसतन 40000 से ज्यादा विज्ञापन देखते हैं। वहीं, 3-12 साल के बच्चों को रोजाना फास्ट फूड के 21 विज्ञापन देखने को मिल जाते हैं।

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अमूमन हर घर में टेलीविजन देखा जाता है, बच्चे-बड़े सभी देखते हैं। लेकिन, हमें शायद ही कभी इस कड़वी सच्चाई का एहसास होता हो कि हमारे बच्चों के इर्द-गिर्द विज्ञापनों का मकडज़ाल बुन दिया गया है। न्यूजीलैंड की ‘यूनिवर्सिटी ऑफ ओटागो’ से सम्बद्ध ‘वेलिंगटन स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ’ की प्रमुख प्रोफेसर लुईस सिगनल की टीम का अध्ययन भी इस मकडज़ाल की तरफ इशारा करता है। वैज्ञानिक पत्रिका ‘द लैंसेट प्लैनेटरी हेल्थ’ में प्रकाशित उनका शोध बताता है कि कंपनियों ने विज्ञापनों के जरिए 11-13 साल के बच्चों को हर 10 घंटे में 554 ब्रांड से अवगत कराया। मतलब, हर मिनट बच्चों ने कम से कम एक ब्रांड के बारे में जान लिया। बच्चों ने बड़ी संख्या में जंक फूड के विज्ञापन भी देखे। शोध के मुताबिक, रोजाना औसतन 68 जंक फूड के विज्ञापनों से बच्चों का सामना हुआ। प्रोफेसर सिगनल इन विज्ञापनों को मोटापे की महामारी करार देती हैं तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है। जंक फूड में शर्करा, वसा, सोडियम और कैमिकल से तैयार आर्टिफिशियल फ्लेवर की भरमार होती है। कंपनियां विज्ञापनों के जरिए बच्चों को जंक फूड खाने के लिए उकसाती हैं और बच्चे इन्हें खाकर मोटापा समेत स्वास्थ्य संबंधी अन्य गंभीर परेशानियों से दो-चार होते हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन भी बच्चों के जीवन पर भारी पड़ रही कंपनियों की विज्ञापन पॉलिसी से चिंतित है। संगठन बच्चों के लिए खाद्य पदार्थों के विज्ञापनों में कमी किए जाने का आह्वान कर चुका है लेकिन, धरातल पर इसका रत्ती भर भी असर देखने को नहीं मिलता। बात अगर भारत की करें तो, कहने को यहां पर उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम-2019 लागू है। इसका मकसद अनुचित व्यापार प्रथाओं और भ्रामक विज्ञापनों पर अंकुश लगाना है। लेकिन, टेलीविजन से लेकर सोशल मीडिया में हर घड़ी प्रसारित होने वाले अधिकतर विज्ञापनों में किए जा रहे हवा-हवाई दावे अधिनियम के प्रभाव को झुठलाते नजर आते हैं। कभी-कभार एकाध मामले में कार्रवाई को छोड़ दिया जाए तो उपभोक्ता संरक्षण की बातें बेमानी ही लगती हैं। कंपनियों से लेकर विज्ञापन में अपनी लोकप्रियता को भुनाकर करोड़ों कमाने वाली मशहूर हस्तियों तक को इस से कोई मतलब नहीं कि इस अंधी दौड़ का सबसे ज्यादा खामियाजा नौनिहालों को भुगतना पड़ रहा है।

उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि भारत में डिजिटल विज्ञापन का कारोबार तेजी से बढ़ा है। पिछले साल विज्ञापन बाजार का आंकड़ा 1275 करोड़ का था, जिसके 2025 तक 2800 करोड़ तक पहुंचने का अनुमान जताया जा रहा है। विज्ञापन बाजार के आंकड़े साबित करते हैं कि दुनिया भर की कंपनियों की निगाहें भारतीय बाजार पर लगी हैं। कंपनी अपने उत्पाद बेचने के लिए हर तरह की तिकड़मबाजी में जुटी हैं। ऐसे में विज्ञापन से जुड़ी मर्यादाएं टिक पाएंगी, इसकी उम्मीद नहीं की जा सकती। बहुत संभव है कि कंपनियों की विज्ञापन पॉलिसी का स्तर और अधिक गिर जाए। इसका सबसे नकारात्मक असर बच्चों पर ही पड़ेगा, जो पहले से ही कंपनियों के लिए ‘सॉफ्ट टारगेट’ हैं। इसी साल फरवरी में मुंबई में हुई ‘एडवरटाइजिंग स्टैंडर्ड काउंसिल ऑफ इंडिया’ की बैठक में मंत्रालय के जिम्मेदार अधिकारियों ने कंपनियों को विज्ञापनों के प्रति और अधिक जिम्मेदार बनने की नसीहत तो दी है लेकिन, अब देखना यह है कि इसका धरातल पर कोई असर दिखाई पड़ेगा या नहीं। इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि हम अपने बच्चों को लेकर कितने सजग हैं। Article

 

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