Friday, 26 April 2024

Article : 2 जीबी डाटा से पेट भर रहे हैं आज बच्चे

  Article : जाने क्या कशिश है इस फोन या टी.वी की स्क्रीन में कि बच्चा (Child) मदहोश हो मम्मी-पापा…

Article :  2 जीबी डाटा से पेट भर रहे हैं आज बच्चे

 

Article : जाने क्या कशिश है इस फोन या टी.वी की स्क्रीन में कि बच्चा (Child) मदहोश हो मम्मी-पापा (Mom-Dad) या जो कोई भी उसका अपना हो, उसके फोन (Phone) के स्क्रीन या टी.वी (T.V.) के स्क्रीन जहाँ से भी वह एक झलक पा सके। वहाँ तक तो वह अपने आप खिसकना-पलटना सीख ही लेता है। पता नहीं कैसे समझदार थे हमारे सीनियर्स जो कि झुनझुना या बच्चे के लिए कुछ स्पेशल रख घंटों ताली पीटते थे। तब जाकर कहीं बच्चा मुस्कुराकर, खिसक कर या चलकर दिखाता था।

ना कि रिश्तों का मर जाना बुरा है। पर क्या उससे भी कहीं बुरा नहीं है, झूठे रिश्तों से जुड़ते और जुड़ते ही जाना? यानि मोबाइल फोन (Mobile Phone) या टी.वी की कहानियों या उनके पात्रों से जुडऩा। आज जैसे ही एक छोटा बच्चा खुद को पलट लेना सीखता है। साथ ही वह फोन या टी. वी की स्क्रीन पर रंग बिरंगी तस्वीरें झाँकने की ट्रेनिंग भी खुद-ब-खुद लेना सीखने लगता है।

जाने क्या कशिश है इस फोन या टी.वी की स्क्रीन (TV Screen) में कि बच्चा मदहोश हो मम्मी-पापा (Mom-Dad) या जो कोई भी उसका अपना हो, उसके फोन के स्क्रीन या टी.वी के स्क्रीन जहाँ से भी वह एक झलक पा सके। वहाँ तक तो वह अपने आप खिसकना-पलटना सीख ही लेता है। पता नहीं कैसे समझदार थे हमारे सीनियर्स जो कि झुनझुना या बच्चे के लिए कुछ स्पेशल रख घंटों ताली पीटते थे। तब जाकर कहीं बच्चा मुस्कुराकर, खिसक कर या चलकर दिखाता था। आज आप थोड़ा सा टी.वी का वॉल्यूम बढ़ाएँ फिर देखिये बच्चा भी जितनी उसकी आयु है उसी के हिसाब से करतब दिखाने शुरू कर देता है।

अब परिस्थितियाँ ही तो हैं जो कि बच्चों का स्वभाव बदल देती हैं। वीर अभिमन्यु (Veer Abhimanyu) जब अपनी माँ के पेट से चक्रव्यूह भेदना सीख कर आ सकता है। तो आज का बच्चा क्यों नहीं नैक फॉर डेटा यूज (कुशलता) लेकर अपनी माँ के पेट से पैदा हो सकता? अब यदि हम कहें कि आज के समय में प्राईओरिटीज बदल रही हैं तो क्या ये भी सही नहीं है कि इंसान के व्यक्तित्व में भी निखार तभी आता है जब कि वो चुनौतियों का सामना करता है। प्राय: देखा गया है कि यदि माँ-पिता दोनों ही वर्किंग हैं और बच्चा आया के हाथों पल रहा है। ऐसे में तो बच्चा पूरा फोन या स्क्रीन का रसिया बनकर ही बडा होता है। क्योंकि अपनों पर तो रौब चल जाता है। पर आया आपके पास नौकरी करने आई है। आपके परिवार का हिस्सा नहीं है वो। तो लगाव भी प्रोफेशनल काइंड ऑफ ही होगा। ऐसे में बहुत ही अच्छा होगा कि आप अपने माता-पिता के लाड़-प्यार में ही बच्चे की परवरिश की चुनौती भी स्वीकार कर लें। माता-पिता चाहे पति के हों या पत्नी के जो भी आपको सूट करें। नहीं तो बच्चे तो वैसे ही बढ़े होंगे जैसेकि आजकल देखने में आ रहे हैं। छोटी सी उम्र में ही मोटा चश्मा, क्रोधी, वीडियो या फोन पर गेम खेलने के एक्सपर्ट यहाँ तक की दोस्त बनाना या उनके साथ खेलना भी उन्हें पसन्द नहीं। मुंह में भोजन का एक टुकडा भी तब तक नहीं लेंगे जब तक कि आँखों के सामने टी.वी या फोन का स्क्रीन न हो। अब ऐसे में आपके ऐसे न निकलेंगे इसमें कोई अतिशयोक्ति है क्या ?

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हम निर्धन तब नहीं होते जब सबके मुक़ाबले हमारे पास सामान नहीं होता या हमारा घर एक कमरे का और लोगों का महल जैसा होता है । हम तो गरीब तब हो जाते हैं । जबकि हमारे पास बहुत बड़ा घर उसमें हर प्रकार का आधुनिक ऐशो आराम का सामान होता है । पर हमारे बच्चे देखने के पहलवान यानी कि आंखों पर मोटा चश्मा । जिम में स्टेरॉयड या शरीर को नुकसान पहुंचाने वाले पाउडर खा-खाकर एक खोखला शरीर लिए हुए बढ़ रहे हों। जो ना तो माता-पिता की सुनते हैं ना ही अन्य किसी और की सुनना चाहते हैं उनके

अनुसार वे ही सर्वश्रेष्ठ और बुद्धिमान हैं।

सच कहा गया है कि मनुष्य को धोखा। मनुष्य नहीं देता बल्कि उसकी अपनी उम्मीदें धोखा दे जाती हैं। जो कि हम दूसरों से रखते हैं जिंदगी है ही क्या? इच्छाओं का गुलदस्ता ही तो है। जैसे हम सोचते हैं आया या क्रेच हमारा बच्चा बड़ा कर देंगे । लेकिन आया बच्चे को देती हैं ऐडिक्श्न मोबाइल की या टी.वी. की । उसके बाद हम भी जब काम से थके मांदे आते हैं। या कुछ देर खुद को ही सुकून देने के लिए ही सही। हम कुछ देर सोच कर बच्चे के हाथ में मोबाइल या उसके सामने टीवी चला देते हैं। बस यहीं से शुरुआत हो जाती है। हमारी उम्मीदों के लुटने की। बच्चा नाच कर दिखाता है तो हम खुश होते हैं। वहीं बच्चा जब खाना बिना मोबाइल या टीवी स्क्रीन के बिना नहीं निगलता। तब शुरू होती हैं हमारी तमन्नाये मुरझाना या झुकना।

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सच तो यह ही है कि कोई नहीं बिगाड़ता हमारे बच्चों को। अपने बच्चों के पहले शिक्षक तो हम ही हैं। अब यदि बिगाड़ ही दिया है तो सुधारना भी हमें ही है। बच्चों से अच्छा सेल्समैन कोई नहीं होता। रोकर, चीखकर, सर पीट कर अपनी जिद मनवा ही लेते हैं। मां-बाप भी निराश होकर मानने लगते हैं। अब यदि जीवन को संवारना है या कड़े शब्दों में बच्चों को अच्छा भविष्य देना है। उनको एक से दो डाटा यूजर बनने से रोकना है, तो हमें ही संभलना होगा उन्हें । बच्चे डरते भी जल्दी हैं। उन्हें सिर्फ एक या दो वीडियो ऐसे दिखा दें। जिनमें टी वी या अधिक फोन देखने के कारण जिसमें आँखें टेढ़ी हो जाती हैं। या आँखों से खून निकलने लगता है। दिखाएँ। फिर उन्हें क्वालिटी समय दें उनकी ज्यादा सुनें। आप पाएंगे की रिश्ते जगने लगे हैं तथा फोन अब ओंधे मुह पड़ा है। डाटा यूसेज भी कंट्रोल हो ही जाएगा।
(लेखिका सामाजिक कार्यकर्ता व चेतना मंच की प्रतिनिधि हैं)

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