Tuesday, 30 April 2024

नवदुर्गा यानि नवरात्र में यहां समझें शक्ति पूजा का असली अर्थ, देवी उपासना की पूरी जानकारी

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नवदुर्गा यानि नवरात्र में यहां समझें शक्ति पूजा का असली अर्थ, देवी उपासना की पूरी जानकारी

                                                                                                                         प्रवीणा अग्रवाल

 

Navratri 2024 : नवरात्र कहें नवरात्रि बोलें अथवा नव दुर्गा कहकर पुकारें यह सब एक ही है। नवरात्र का त्यौहार चल रहा है। ऐसे में नवरात्र के पूरे महत्व को जानना व समझना बेहद जरूरी है। यहां देवी उपासना से लेकर शक्ति पूजा तथा नवरात्र मनाने वाले शाक्त धर्म का पूरा विवरण विस्तार से दिया गया है। तो आइए शुरू करते हैं नवरात्र में माँ दुर्गा की पूजा के विवरण को।

देवी उपासना व शाक्त धर्म

श्री दुर्गा पूजा विशेष रूप से वर्ष में दो बार चैत्र मास व आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से प्रारंभ होकर नवमी तक मनाई जाती है। देवी दुर्गा के नौ स्वरूपों, शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा कूष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी व सिद्धिदात्री की पूजा होने के कारण इसे नवदुर्गा तथा 9 दिनों में पूजा होने से नवरात्र कहा जाता है। चैत्र मास के नवरात्र वार्षिक नवरात्र तथा आश्विन मास के नवरात्र शारदीय नवरात्र कहलाते हैं।

सप्त मातृका/ सात देवियां

सनातन परंपरा के अनुसार स्त्री व पुरुष को एक दूसरे के बिना अधूरा माना जाता है। इसी कारण शिव पार्वती को अर्धनारीश्वर रूप में दिखाया जाता है। अर्धनारीश्वर ब्रह्मांड में प्रकृति व पुरुष की संयुक्त ऊर्जा का प्रतिनिधित्व करते हैं ।वह यह दिखाते हैं कि कैसे ईश्वर में निहित स्त्री तत्व व पुरुष तत्व अविभाज्य हैं। सप्त मातृका अथवा सात देवियां ब्राह्मणी, वैष्णवी, माहेश्वरी, इंद्राणी, कुमारी, वाराही, चामुंडा ब्रह्मांडीय ऊर्जा व मौलिक शक्ति के विभिन्न रूप हैं तथा ब्रह्मा, विष्णु, शिव, वराह, इंद्र, कुमार अथवा कार्तिकेय आदि की शक्ति स्वरूपा अर्धांगिनियां मानी जाती हैं। चामुंडा का वाहन प्रेत, वाराही का वाहन भैंसा, माहेश्वरी का वाहन बैल कौमारी का वाहन मोर लक्ष्मी का वाहन कमल तथा ब्राह्मणी का वाहन हंस है।

ऐतिहासिक तथ्य

देवी उपासना का विधान प्रागैतिहासिक युग में भी प्रचलित था।मोहनजोदड़ो की खुदाई में भी देवी की अनेक मूर्तियां प्राप्त हुई है।वेदों में भी अनेक देवियों का उल्लेखहै जिनकेनाम अदिति, उषा, सरस्वती ,श्री ,लक्ष्मी आदि है ।ऋग्वेद के दसवें मंडल के दसवें अध्याय के 125 वें सूक्त में देवी की महिमा के संबंध में आठ ऋचाएं हैं जिनमें कहा गया है “मैं सच्चिदानंदमयी सर्वात्मा देवी रूद्र वसु आदित्य और विश्व देवों के रूप में सर्वत्र विचरती हूं। मित्र, वरुण, इंद्र, अग्नि और अश्वनी कुमारो को भी मैंने ही धारण कर रखा है। सौम याग, प्रजापति, उषा और भगको मैंने ही धारण कर रखा हैं ।जो देवताओं के उद्देश्य से प्रचुर हवियुक्त सोम याग आदि का अनुष्ठान करते हैं उन यजमानों का फल मुझ में विद्यमान है। इस ब्रह्मांड की अधिष्ठात्री पार्थिव और अपार्थिव देने वाली मैं ही हूं। साक्षात्कार करने योग्य परब्रह्म को अपने से अभिन्न रूप में जानने वाली तथा पूजनीय देवताओं में प्रधान मैं ही हूं। मैं प्रपंच रूप से अनेक भावों में स्थित हूं। संपूर्ण भूतों में मेरा प्रवेश है ।अनेक स्थानों में रहने वाले देवता जहां कहीं जो कुछ भी करते है सब में भी मैं ही हूं। जीव जो अन्नादि ,खाद्म ,द्रव्य भक्षण करता है, देखता है व प्राण धारण करता है तथा सुनता है यह सब क्रियाएं मेरे द्वारा ही सिद्ध होती हैं। जो मुझको इस दृष्टि से नहीं देख सकते वह नाश को प्राप्त होते हैं। हे सौम्य मैं तुम्हें श्रद्धा से प्राप्त होने वाले ब्रह्म तत्वों का उपदेश करती उन्हें सुनो। मैं यह उपदेश स्वयं दे रही हूं। मैं जिसे चाहती, उसे उच्च पद प्रदान करती हूं। उसी को सृष्टि कर्ता ब्रह्मा, परोक्ष ज्ञान संपन्न ऋषि और सर्व ज्ञान संपन्न सुमेधा बनाती हूं। मैं ही ब्रह्म देवी हिंसक असुरों का वध करने के लिए रुद्र के धनुष को चढ़ाती हूं। मैं ही शरणागत जनों की रक्षा के लिए शत्रुओं से युद्ध करती हूं। इस प्रकार मैं सर्वत्र व्याप्त हूं। मैं इस जगत के पिता रूप आकाश को सर्वाधिष्ठान स्वरूप परमात्मा के ऊपर उत्पन्न करती हूं। समुद्र (संपूर्ण भूतों के उत्पत्ति स्थान परमात्मा) में तथा जल (बुद्धि की व्यापक वृत्तियों)- मेरे कारण (कारण स्वरूप चैतन्य ब्रह्म) की स्थिति है; अतएव मैं समस्त भुवन में व्याप्त रहती हूं तथा उस स्वर्ग लोक का भी अपने शरीर से स्पर्श करती हूं। मैं कारण रूप से जब समस्त विश्व की रचना आरंभ करती हूं तब दूसरों की प्रेरणा के बिना स्वयं ही वायु की भांति चलती हूं। स्वेच्छा से ही कर्म में प्रवत्त होती हूं और पृथ्वी और आकाश दोनों से परे हूं । अपनी महिमा से ही मैं ऐसी हुई हूं।

देवी सूक्त शाक्तवाद का महत्वपूर्ण वैदिक आधार है।

मार्कंडेय पुराण में देवी की महिमा का विस्तृत गुणगान करते हुए उनकी स्तुति की गई है ।देवी को सभी प्राणियों में विष्णु माया, चेतना, बुद्धि ,निद्रा क्षुधा, छाया, शक्ति, तृष्णा,क्षांति ,लज्जा जाति शांति ,श्रद्धा ,कांति ,लक्ष्मी, वृत्ति स्मृति, दया, तुष्टि मात्तृ तथा भ्रांति रूपों में स्थित बताकर उनकी उपासना की गई है ।उसे स्वर्ग तथा अपवर्ग एवं सभी प्रकार के मंगलों को देने वाली कहा गया है। उसे सृष्टि ,पालन तथा संहार की शक्तिभूता सनातनी देवी गुणों का आधार तथा गुणमयी कहा गया है।

इन उल्लेखों से स्पष्ट है की शक्ति की महत्ता को वैदिक ऋषियों ने स्पष्ट रूप से स्वीकार किया था। शक्ति की उपासना के उद्भव के पीछे वैदिक तथा अवैदिक दोनों ही प्रवृत्तियों का योगदान रहा है। महाभारत में विंध्यवासिनी देवी को यशोदा के गर्भ से उत्पन्न, नारायण की परमपिया तथा कृष्ण की बहन कहकर उनकी स्तुति की गई है । देवी ने नंद गोप के कुल में यशोदा के गर्भ से जन्म लिया ।कंस द्वारा कन्या रूप में शिला पर पटके जाने पर वह आकाश मार्ग में चली गई तथा विन्ध्य पर्वत पर जाकर बस गई।

देवी उपासना के तीन रूप

देवी की उपासना तीन रूपों में की जाती है –
1-शांत या सौम्य रूप
2-उग्र या प्रचंड रूप
3-काम प्रधान रूप

सामान्य जनों द्वारा देवी के सौम्य रूप की ही उपासना की जाती है। देवी के सौम्य रूपों के अनेक नाम है -जैसे उमा, पार्वती ,लक्ष्मी, सरस्वती आदि। दुर्गा ,चंडी, कापाली ,भैरवी आदि नाम देवी केउग्र रूप को प्रकट करते हैं। काम प्रधान रूप में देवी की उपासना आनंद भैरवी, त्रिपुर सुंदरी, ललिता आदि नाम से की जाती है। जम्मू स्थित वैष्णो देवी मंदिर एवं मध्य प्रदेश के सतना जिले में मैहर स्थित देवी मंदिर देवी के सौम्य रूप के प्रतीक है। कोलकाता स्थित काली मंदिर देवी के उग्र रूप का तथा असम का कामाख्या मंदिर देवी के काम प्रधान रूप का प्रतिनिधित्व करता है।

शाक्त धर्म

शक्ति को इष्ट देवी मानकर आराधना पूजा करने वालों का संप्रदाय शाक्त संप्रदाय कहा जाता है।शाक्त संप्रदाय के अनुयायी आदि शक्ति को जगत जननी स्वीकार कर उन्हें सृष्टिकर्ती पालनकर्ती तथा संहारकर्ती के रूप में मानते हैं। शाक्त धर्म का शैव धर्म, (वह धर्म जिसमें शिव को इष्ट देव मानकर उनकी पूजा उपासना की जाती है), से घनिष्ठ संबंध रहा है। शक्ति को शिव का ही क्रियाशील रूप माना गया है। शक्तिसाधक देवी के किसी एक रूप को इष्ट मान कर उसके साथ अपना तादात्म्य स्थापित करता है। शाक्त धर्म में योग ध्यान के साथ-साथ तंत्र मंत्र का भी अत्यधिक महत्व है। शाक्त धर्म में “कुंडलिनी ” नामक रहस्यमय शक्ति का अत्यधिक महत्व है। भारतीय ऋषियों की मान्यता है कि यत् पिण्डे तत् ब्राह्मण्डे (संपूर्ण ब्रह्मांड मनुष्य के शरीर में ही है )इस जगत का रचयिता सहस्रार में स्थित है और उसकी शक्ति मूलाधार में इन दोनों के कारण ही संसार की रचना हुई है ।साधना तथा मंत्रों के द्वारा जब यह शक्ति जागृत की जाती है तथा चेतन होकर उर्ध्व गमन करते हुए सहस्रार में पहुंचती है सभी साधक को मोक्ष की प्राप्ति होती है। शाक्त धर्म में दो वर्ग हुए जिन्हें कौल मार्गी या वामाचारी तथा समयाचारी दक्षिणाचारी कहा जाता है। कौल मार्गी आराधना में पंचमकार (मत्स्य, मांस ,मदिरा मुद्रा, एवं मैथुन) कीउपासना की जाती है एवं दक्षिणचारी या समयाचारी तंत्र-मंत्र एवं बलि, नरबलि एवं पशु बलि द्वारा शक्ति की आराधना करते हैं। शक्ति के साधक ” श्री चक्र” की पूजा एवं उपासना करते हैं। श्री चक्र रेशमी वस्त्र या भोजपत्र अथवा स्वर्ण से बना हुआ नौ योनियों का एक मंडल होता है जिसके मध्य में एक योनि का चित्र बना होता है। जो की सृष्टि का कारक है एवं लिंग पूजा का समानार्थी है।

दस महाविद्याएं-

यह सभी महाविद्यायें ब्रह्मांड की उस दिव्य शक्ति की अभिव्यक्ति है जो ब्रह्मांडीय ऊर्जा व ज्ञान के विशिष्ट पहलुओं को दर्शाती हैं। तांत्रिक और साधक दिव्य शक्ति एवं सिद्धि प्राप्त करने के लिए इनकी आराधना करते हैं। यह दस महाविद्याएं काली ,तारा ,षोडशी भुवनेश्वरी, भैरवी ,छिन्नमस्ता धूमावती ,बगलामुखी ,मातंगी एवं कमला है। विष्णु के दशावतार के समान ही इन्हें शक्ति के दस रूप माना जाता है। प्रत्येक महाविद्या ब्रह्मांड के विभिन्न ग्रहों की अधिष्ठात्री वप्रतिनिधि है ।काली को शनि ग्रह का तारा को बृहस्पति ग्रह का षोडशी को बुध ग्रह का भुवनेश्वरी को चंद्रमा का भैरवी को लग्न का छिन्नमस्ता को राहु का धूमावती को केतु का बगलामुखी को मंगल ग्रह का मातंगी को सूर्य का और कमला को शुक्र की अधिष्ठात्री देवी माना जाता है।

महिषासुरमर्दिनी

महिषासुर का वध करने के लिए विष्णु ,शिव, ब्रह्मा, इंद्र ,चंद्र ,वरुण, सूर्य आदि देवताओं के मुख से नि:सृत तेज पुंज से शक्ति की उत्पत्ति हुई ।उसे सभी देवताओं ने अपने-अपने अस्त्र प्रदान किये। शंकर ने त्रिशूल, विष्णु ने चक्र, वरुण ने शंख, वायु ने धनुष बाण युक्त तरकश, अग्नि ने तेज, इंद्र ने वज्र यमराज ने दंड ,ब्रह्मा ने कमंडल काल ने ढाल और तलवार तथा विश्वकर्मा ने परशु देवी को भेंट किया। इस शक्ति ने महिषासुर का वध किया जिससे वह महिषासुर मर्दिनी के नाम से विख्यात हुई। मार्कंडेय पुराण में दुर्गा की कथा एवं स्तुति से संबंधित दुर्गा सप्तशती नमक अंश है जिसका पाठ नवरात्रि के दिनों में अत्यंत श्रद्धा पूर्वक किया जाता है।

इंद्र आदि देवतागण जब शुम्भ निशुम्भ जैसे असुरों से पीडि़त हुए तो उन्होंने हिमालय में जाकर देवी की अभ्यर्थना की। जिससे देवी ने स्वयं को प्रकट किया एवं असुरों का विनाश किया। चण्ड मुण्ड का संहार करने के कारण देवी का नाम चामुंडा पड़ा। धूम्र लोचन रक्तबीज एवं शुंभ निशुंभ असुरों का विनाश करने के कारण वह अंबिका काली कौशिकी आदि नाम से विख्यात हुई। सनातन धर्म विशाल वट वृक्ष की तरह है जिसकी शाखाएं प्रशाखाएं अनेकानेक है किंतु जिसका मूलाधार ” एकम् सद् विप्रा बहुधा वदन्ति” है अर्थात वह परम सत्ता एक ही है जिसे ज्ञानी जन भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते हैं। जिसमें सभी धाराएं चाहे वह वैष्णव हो शैव हो शाक्त हो बौद्ध हो अथवा जैन समाहित हो गए हैं क्योंकि धर्म हमारे लिए पूजा और उपासना की पद्धति मात्र न होकर जीवन जीने की शैली है जो मनुष्य मात्र की भौतिक एवं आध्यात्मिक प्रगति का मार्ग प्रशस्त करता है।

[इस आलेख की लेखिका प्रवीणा अग्रवाल पूर्व प्रशासनिक अधिकारी तथा प्रसिद्ध चिंतक है]

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