Friday, 3 May 2024

धर्म-अध्यात्म : इच्छा का दासत्व!

विनय संकोची मनुष्य इच्छा का दास है और उसे यह बंधन, यह दासता अति प्रिय है। मनुष्य इच्छा रहित जीवन…

धर्म-अध्यात्म : इच्छा का दासत्व!

विनय संकोची

मनुष्य इच्छा का दास है और उसे यह बंधन, यह दासता अति प्रिय है। मनुष्य इच्छा रहित जीवन की कल्पना भी नहीं करना चाहता है, क्योंकि उसका मन कहता है कि इच्छा ही जीवन की ऊर्जा है। इच्छाओं की पूर्ति का प्रयास ही जीवन का एकमात्र उद्देश्य है। शास्त्र इसके उलट बात कहते हैं कि कर्म फल की इच्छा को त्याग कर केवल भगवत पथ कर्तव्य पालन स्वरूप किए हुए कर्म निष्काम कर्म होते हैं।…और निष्काम कर्म में कामना, आसक्ति, इच्छा व ममता के लिए कोई स्थान नहीं है।

निष्काम कर्म में कामना-इच्छा आदि त्याज्य हैं। परंतु मनुष्य तो इच्छाओं-कामनाओं का दास है। यह दासत्व वह स्वेच्छा से अंगीकार करता है, पहनता है। कितने लोग हैं, जो निष्काम कर्म को जीवन में महत्व देते हैं। बहुत कम लोग हैं, जो इच्छाओं को अपनी दासी बना पाने में सक्षम होते हैं और इच्छा रहित, स्वार्थ रहित होकर निष्काम कर्म में प्राण पण से संलग्न रहते हैं।

प्रश्न यह भी उठता है कि क्या मनुष्य कोई भी कर्म इच्छा भाव से नहीं कर सकता है, अवश्य कर सकता है। धार्मिक कर्म करने की इच्छा करने में कोई दोष, कोई बुराई नहीं है। इच्छा से भी कर्म करना अनुचित नहीं है। लेकिन इन कर्मों को करते हुए भी फल की इच्छा नहीं करनी चाहिए। यदि परमात्मा को प्रसन्न करने की इच्छा से कोई कर्म किया जाए तो कोई बुराई नहीं है, परंतु शर्त यही है कि फल की चिंता और चिंतन न किया जाए। शास्त्र इस विषय को स्पष्ट करते हैं – स्वार्थ रहित उत्तम कर्म करने की इच्छा, निर्मल व पवित्र इच्छा है यह कर्मों को सलाम नहीं बनाती है।

क्या स्वार्थ रहित करम हो सकते हैं – यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है। स्वार्थ, इच्छा, कामना, आसक्ति को आत्मबल और अभ्यास से कम किया जा सकता है। इसका अर्थ यह हुआ कि जिसे कम किया जा सकता है, उसे समाप्त भी किया जा सकता है। लेकिन इसके लिए मन की गहराइयों से प्रबल प्रयास की आवश्यकता होती है।

परंतु पहली बात तो लोग यह प्रयास करते नहीं है और जो प्रयास करते भी हैं, तो उनमें से अधिकांश सफल नहीं होते हैं। इच्छा, कामना, आसक्ति, ममता का त्याग निश्चित रूप से कठिन है, बहुत-बहुत कठिन और आम मानव के लिए तो किसी हद तक असंभव ही है।

साधारण मनुष्य तो इच्छा मुक्ति के बारे में सोचता ही नहीं है। वह तो संसार को प्रेम करता है। संसार को पाना चाहता है। उसकी यह इच्छा उसे बंधन में कसती रहती है, क्योंकि नाशवान को महत्व देने का अर्थ बंधन को सहर्ष अपनाना है और संसार तो नाशवान ही है, तो बंधन स्वाभाविक है, अवश्यंभावी है।

मनुष्य परमात्मा का अंश है और देह संसार का अंश है। यदि देह को संसार को समर्पित कर दिया जाए और स्वयं को परमात्मा को अर्पित कर दिया जाए, तो कल्याण सुनिश्चित है, मुक्ति निश्चित है। लेकिन ऐसा होता नहीं है, हम और हमारा शरीर दोनों ही संसार को अर्पित-समर्पित रहते हैं और यह अर्पण-समर्पण हमें परमात्मा से दूर करता चला जाता है। संसार से निकटता और ईश्वर से दूरी ही हमारे तमाम दु:खो-कष्टों का सबसे बड़ा कारण है। सबसे बड़ी बात है कि हम इस कारण को स्वयं ही उत्पन्न करते हैं और दोष परमात्मा को तथा प्रारब्ध को देते हैं।

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