Tuesday, 8 October 2024

भाषा की सीमाओं से परे सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यासकार शरतचंद्र

Sarat Chandra Chattopadhyay : शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय ऐसे लोकप्रिय उपन्यासकार हुए, जो साहित्य में भाषा की सभी सीमाओं को लांघकर सच्चे…

भाषा की सीमाओं से परे सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यासकार शरतचंद्र

Sarat Chandra Chattopadhyay : शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय ऐसे लोकप्रिय उपन्यासकार हुए, जो साहित्य में भाषा की सभी सीमाओं को लांघकर सच्चे अर्थों में अखिल भारतीय हो गए। उन्हें बंगाल में जितनी ख्याति और लोकप्रियता मिली,सारे देश में भी उतनी ही प्रसिद्धि मिली।बंगाली और हिन्दी के अलावा गुजराती,मलयालम तथा अन्य भाषाओं में भी वे समान रुप से लोकप्रिय रहे।

कौन है शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय  Sarat Chandra Chattopadhyay

साहित्य के क्षेत्र में यथार्थवादी दृष्टिकोण को लेकर उतरे। शरतचन्द के लेखन में देश की मिट्टी की सुगंध आती है, उनकी कथाओं तथा उपन्यास का हर पात्र जमीन से जुड़ाव रखता है। उनके लेखन में एक ओर जहां रूढ़िवादी समाज की नासमझी तथा क्रूरता का चित्रण मिलता है, वहीं दूसरी ओर उनके नारी पात्र अपमानित, पीड़ित तथा लांक्षित प्रतीत होते हैं। नारी वर्ग के प्रति उनके मन में गहरी संवेदना थी और इसके प्रति वे विशेष संवेदनशील रहे। शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय का जन्म पश्चिम बंगाल के हुगली जिले के छोटे से गांव देवानंदपुर में 15 सितम्बर 1876 ई. तदनुसार 31 भाद्र 1283 बंगाब्द, आश्विन कृष्णा द्वादशी, सम्वत् 1933, एकाब्द 1798 को हुआ था।

वे अपने माता-पिता की दूसरी संतान थे। जिस दौर में शरतचन्द्र का जन्म हुआ, वह जागृति और प्रगति का काल था। स्वाधीनता के प्रथम संग्राम 1857 के ब्रिटिश हुकूमत द्वारा दमन के बाद अब पुनः क्रांति के स्वर फूटने लगे थे। साहित्य के इस स्वर की प्रथम अभिव्यक्ति हुई बंकिमचन्द के ‘आनंदमठ’ उपन्यास से। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में सारा देश सामाजिक क्रांति की पुकार से गूंज उठा। पांच वर्ष की उम्र में ही देवानंदपुर के प्यारी पंडित की पाठशाला में दाखिल कराया। भागलपुर में शरतचन्द्र का ननिहाल था। नाना केदारनाथ गांगुली का आदमपुर में अपना मकान था और उनके परिवार की गिनती संभ्रांत बंगाली परिवार के रूप में होती थी, पिता मोती लाल बेफिक्र स्वभाव के थे और किसी नौकरी में टिक पाना उनके वश की बात नहीं था। परिणामस्वरूप उन्हें बाल बच्चों के साथ देवानंदपुर छोड़कर भागलपुर अपने ससुराल में रहना पड़ा। इस कारण उनका बचपन भागलपुर में गुजरा और पढ़ाई लिखाई भी यहीं हुई।

गरीबी और अभाव में पलने के बावजूद शरत् दिल के आला और स्वभाव के नटखट थे। वे अपने हम उम्र मामाओं और बाल सखाओं के साथ खूब शरारातें किया करते थे। कथाशिल्पी शरत् के प्रसिद्ध पात्र देवदास, श्रीकांत, सत्यसाची, दुर्दान्त राम आदि के चरित्र को झांके तो उनके बचपन की शरारतें और सभी साथियों की सहजता दिख जायगी। साल 1883 में शरतचन्द्र का दाखिला भागलपुर दुर्गाचरण एम.ई स्कूल की छात्रवृति क्लास में कराया गया। नाना केदारनाथ गांगुली इस विद्यालय के मंत्री थे। अब तक उसने वोधोदय ही पढा था, लेकिन यहां पढ़ना पड़ा-सीता वनवास, चारू पाठ, सद्भाव सद्गुरू और प्रकांड व्याकरण। नाना कई भाई थे और संयुक्त परिवार में एक साथ रहते थे।

इसलिए मामा तथा मौसियों की संख्या काफी थी। छोटे नाना अघोरनाथ गांगुली का बेटा मणिन्द्रनाथ उनका सहपाठी था। छात्रवृत्ति की परीक्षा पास करने के बाद अंग्रेजी स्कूल में भर्ती हुए, उनकी प्रतिभा उत्तरोत्तर विकसित होती गयी। मामा सुरेन्द्र नाथ से सबसे अधिक पटती थी। मकान के उत्तर में गंगा बहती थी। गंगा के दृश्यों को किनारे बैठकर निहारना, क्रीड़ाएं करना दिनचर्या का एक अंग बन गया था। स्कूल के पुस्तकालय में उस युग के सभी प्रसिद्ध लेखकों की रचना पढ़ डाली। हर वस्तु को काफी करीब से देखते थे।

आदर्शवादी गांगुली परिवार में केदारनाथ के चौथे भाई अमरनाथ गांगुली ऐसे व्यक्ति थे, जो नवयुग से प्रभावित थे। बंकिमचन्द्र बनर्जी के ‘बंग-दर्शन’ का प्रवेश इन्हीं के द्वारा गांगुली परिवार में हो सका। ‘बंग-दर्शन’ बंगला साहित्य में नवयुग का सूचक था। नवयुग के संदेशवाहक होने के कारण कट्टर परिवार में उनके प्रति अप्रतिष्ठा थी।अमरनाथ चोरी छिपे ‘बंग-दर्शन’ लाते थे, उनसे भुवनमोहनी के द्वारा मोतीलाल के पास पहुंचता था ओर वहां से कुसुम कामिनी की बैठक में। कुसुमकामिनी सबसे छोटे नाना, अघोरनाथ की पत्नी थी। छात्रवृति पास करके स्वयं उन्होंने ईश्वर चन्द्र विद्यासागर के हाथों पुरस्कार पाया था। जिस दिन रसोई की बारी नहीं रहती उस दिन ऊपरी छत या बैठक खाने में होने वाली साहित्यिक गोष्ठी में वे ‘बंग-दर्शन’ के अतिरिक्त मृणालिनी,वीरांगना, वृजांगना, मेघनाथ वध और नील दर्पण स्वयं सुनाती थी। इस गोष्ठी में शरतचन्द्र ने साहित्य का पहला पाठ पढ़ा था।

‘बंग-दर्शन’ में कवि गुरू की युगान्तकारी रचना ‘आंख की किरकिरी’ पढ़कर उनके मन में गहरे आनंद की अनुभूति हुई। अपराजेय कथाशिल्पी शरतचन्द्र के निर्माण में कुसुमकामिनी का जो योगदान है, उसे कभी नहीं भुलाया जा सकेगा। पारिवारिक स्थितियां ऐसी हो गयी कि तीन वर्ष नाना के घर में रहने के बाद शरतचन्द्र को पुनः देवानंदपुर लौटना पड़ा और वहां हुगली ब्रांच स्कूल में दाखिला लिया,दो कोस चलकर स्कूल का सफर तय करना पड़ता था। बावजूद इसके किसी तरह प्रथम श्रेणी तक पहुंच पाए। पिता का ऋण बहुत बढ़ गया था। फीस का प्रबंध न होने के कारण विद्या पीछे छूट गयी ओर शरारती बालकों के सरदार बन गए। यहां कथा गढ़कर सुनाने की उसकी जन्मजात प्रतिभा पल्लवित हो रही थी जो आगे चलकर साहित्य सृजन का आधार बनी। कहानी लिखने की प्रेरणा उन्हें एक और मार्ग से मिली ।पिता की टूटी आलमारी खोलकर चुपके से हरिदास की गुप्त बातें और भवानीपाक जैसी पुस्तकें पढ़ डाली, यहां उसे मिली आधी-अधूरी कहानियां।

वे 1891 में माता-पिता के साथ भागलपुर लौट गए। स्कूल में प्रवेश पाना कठिन था, क्योंकि देवानंदपुर के स्कूल से ट्रांसफर सर्टिफिकेट लाने के पैसे नहीं थे। तब टीएनबी कॉलेजिएट स्कूल के प्रधानाध्यापक चारूचन्द्र वसु की कृपा से दाखिला मिल गया और यहां से 1894 में प्रवेशिका पास की। एफ ए की परीक्षा धनाभाव के कारण देने से वंचित रहे। संथाल परगणा में सर्वे सेटेलमेंट का काम चल रहा था। उन दिनों बनेैली स्टेट के हित की देखभाल के लिए कर्मचारी के रूप में नियुक्त किए गये। जिस दौर में शरतचन्द्र भागलपुर में थे, वह जागृति तथा प्रगति का काल था, नवोत्थान की लहर थी। बंग समाज अंधविश्वास और कुसंस्कारों से घिरा था। भागलपुर के प्रवासी बंगाली बिहार के अन्य हिस्सों के गांगुलियों की अपेक्षा ज्यादा कट्टर थे और इसका नेतृत्व करते थे शरतचन्द्र के नाना केदारनाथ गंगोपाध्याय इन्हें शास्त्रसम्मत विचार प्रिय थे। तो दूसरी ओर कट्टर पंथी लोगों के विरोध में राजा शिवचन्द्र वन्दोपाध्याय बहादुर।

तीक्ष्ण बुद्धि ओर अध्यवसाय के बूते उन्होंने राजा की उपाधि पायी। इनके बारे में एक कहावत है कि ‘राज न पाट शिवचन्द्र राजा, ढोल न ढाक अंग्रेजी बाजा।’ यूरोप से लौटने के बाद बंगाली समाज ने इन्हें बहिष्कृत कर दिया था। गांगुली परिवार के युवकों, किशोरों को जाने की मनाही थी। गांगुली परिवार का शासन इन्हें बांधकर नहीं रख सका। बांसुरी, बेहाला, हारमोनियम और तबला आदि बजाना तो आता ही था, वे इस मंडली में शामिल हो गए। नई सभ्यता के प्रसार के साथ भागलुपर में बंगाली समाज में थियेटर का उदय हुआ।। शरतचन्द्र के प्रयासों से एक नए थियेटर का जन्म हुआ, जिसका नाम आदमपुर क्लब रखा गया। राजा शिवचन्द्र बनर्जी के पुत्र सतीशचन्द्र इस दल के प्राण थे। बंकिमचन्द्र के ‘मृणालिनी’ का मंचन किया गया, जिसमें मृणालिनी की भूमिका शरतचन्द्र ने अदा की थी। शरतचन्द्र ने ‘चिंतामणि’ और जनां में भी प्रमुख भूमिका अदा की थी।

उन दिनों अंग्रेजियत हावी थी पर वे न तो अंग्रेजी में पत्र लिखते और न ही किसी परिचित को प्रेरणा देते थे।एक मासिक हस्तलिखित पत्रिका ‘शिशु’ का प्रकाशन हुआ और संपादक थे मामा गिरिन्द्रनाथ। साहित्य साधना मात्र उन्हीं तक सीमित नहीं थी। भागलपुर में 4 अगस्त 1900 में ‘साहित्य गोष्ठी’ की स्थापना की। इसके प्रणेता वे स्वयं थे और उसके प्रमुख सदस्यों में थे मामा सुरेन्द्र नाथ, गिरिन्द्रनाथ और विभूतिभूषण भट्ट। निरूपमा देवी और विभूतिभूषण दोनों भाई बहन थे निरूपमा देवी विधवा थी, वह स्वयं न उपस्थित होकर रचनाओं के माध्यम से उपस्थित होती थी। खंजरपुर भट्ट परिवार के मकान के पश्चिम की ओर शाहजहां द्वारा निर्मित खंजरपुर बेग साहब का मकबरा था।

कभी उसकी छत पर गोष्ठी जमती थी तो कभी किसी दूसरी जगह। साहित्यिक गोष्ठियां में रचनाओं की समीक्षा होती थी। इस साहित्य गोष्ठी में एक और सदस्य थे सतीशचन्द्र मिश्र ।उन्होंने हस्तलिखित पत्रिका ‘आलो’ के प्रकाशन की योजना शरतचन्द्र के सुझाव पर बनायी गयी और संपादक के रूप में सतीशचन्द्र मित्र और योगेन्द्र चन्द्र मजूमदार तय किये गए। नियति को यह मंजूर नहीं था, एक पखवाड़े के अंदर सतीश चन्द्र मिश्र की मौत हो गयी, जिससे सभी मर्माहत थे। यह तय किया गया कि सतीश की स्मृति में छाया नाम से हस्तलिखित पत्रिका प्रकाशित की जाए और संपादक के रूप में नियुक्त किए गए योगेन्द्र चन्द्र मजूमदार।

शरतचन्द्र की कहानियां और आलेख इस पत्रिका में प्रकाशित हुए। छुद्रेर गौरव नामक प्रबंध और ‘आलो ओ छाया’ लघु उपन्यास इसी पत्रिका में प्रकाशित हुए। लेखक कई थे लेकिन लेखिका एक ही थी निरूपमा देवी। थोड़े ही दिनों में इस पत्रिका की धूम मच गयी थी। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में भागलपुर के साहित्यिक इतिहास को नयी गति प्रदान करने वाले कथाकार शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय भागलपुर के साहित्यिक इतिहास के शिखर पुरुष थे। अंतिम दशक का यह दौर शरतयुग के नाम से नाम से जाना जाता रहेगा। साहित्यिक गोष्ठी के माध्यम से हिन्दी और बंगला के साहित्यकारों को प्रेरित किया। शरत् की साहित्य सभा की प्रेरणा से ही नगर के पूर्वी भाग आदमपुर में ‘बंग-साहित्य परिषद’ की स्थापना की गयी। शरतचन्द्र के प्रसिद्ध पात्र देवदास,श्रीकांत,सव्यसाची, आदि के चरित्र को देखें तो शरत् के बचपन की शरारतें और संगी-साथियों की छवि सहज दिखती है।

भागलपुर में शरत् के बचपन के मित्रों में राजेन्द्र नाथ मजूमदार उर्फ राजू का नाम महत्वपूर्ण है। शरत् के बचपन की कई यादें, कई शरारतें और दुस्साहसिक कारनामें राजू के साथ जुड़े हैं। ‘श्रीकांत’ उपन्यास के पात्र इन्द्रनाथ में शरतचन्द्र ने बचपन के इस मित्र को साकार रूप दिया है। कथाशिल्पी शरतचन्द्र ने ‘देवदास’ में दो अविस्मरणीय नारी पात्रों का सृजन किया है-पार्वती उर्फ पारो और चन्द्रमुखी। पारो की छवि शरत के बाल्यकाल की देवानंदपुर की सहपाठिनी धीरू में देखी जा सकती है और चन्द्रमुखी और कोई नहीं भागलपुर की बदनाम बस्ती मंसूरगंज की एक नर्तकी थी, जिसका नाम था-कालीदासी। मामा और मित्रों की सलाह पर ‘कुन्तलीन पुरस्कार’ के लिए रचना अपने मामा सुरेन्द्रनाथ गंगोपाध्याय के नाम भेजी और यह कहा कि यदि भाग्य से पारितोषिक मिल जाय तो मोहित सेन द्वारा प्रकाशित रविन्द्रनाथ की काव्य ग्रंथावली भेज देना। डेढ़ सौ कहानियों में उनकी रचना सर्वश्रेष्ठ रचना के रूप में चुनी गयी।

शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय की रचनाएं

जिन्दगी की जंग लड़ते हुए वे रंगून गये थे इस समय वे अपनी सारी रचनाएं अपने मित्रों के पास छोड़ गये थे। उनमें एक लम्बी कहानी थी – ‘बड़ी दीदी’। जो सुरेन्द्र नाथ के पास थी जाते समय कह गये थे कि प्रकाशित करने की आवश्यकता नहीं, छापना हो तो ‘प्रवासी’ छोड़कर किसी भी पत्र में उनकी कोई भी रचना बिना अनुमति के न छापी जाय’। 1907 में भारती के अंक में शरतचन्द्र का पहला उपन्यास ‘बड़ी दीदी’ प्रकाशित हुआ। इसके बाद तो रचनाएं प्रकाशित होती गयी। विदुरे-र-छेले, ओ अनन्या (1914) गृहदाह (1912) बकुण्डेर-विल (1916), पल्ली समाज (1916) , देवदास (1917), चरित्रहीन (1917), निविकृति (1917-33), गृहदाह (1920), दत्ता (1918), देना-पावना (1923), पाथेर-दावी (1926), श्रीकांत, छेलेर-बेलार गल्प, सुभद्रा (1938), शेषेर परिचय (1949), नारीर मूल्य (1930), स्वदेश ओ साहित्य (1932), विराज-वहू (1934), रमा (1928), विजया (1935), तरूणेर विद्रोह (1919), शरतचन्द्र ग्रंथावली (1948), प्रमुख है। शरत् चंद्र उपन्यासकार तथा कथाकार के साथ-साथ कलाकार भी थे। उनका तैलचित्र ‘महाश्वेता’ काफी चर्चित है। 1921 में असहयोग आंदोलन में भी हिस्सा लिया तथा हुगली जिला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष भी चुने गये।

अप्रतिम प्रतिभा के धनी कथाकार शरतचन्द्र ने अपने उपन्यासों ने मध्यमवर्गीय उच्छश्रृंखल पुरुष पात्रों और रूढिग्रस्त समाज की नाना प्रताड़नाओं से पीड़ित नारी पात्रों का हृदय विदारक चित्रण करके इस क्षेत्र में अभूतपूर्व क्रांति उपस्थित कर दी। शरतचन्द्र की कथाकृतियों में उनका निजी वैचित्र्य एवं वैशिट्य है, जो मध्यमवर्गीय जीवन में उनके प्रगाढ़ संपर्क तथा परम्परागत सामाजिक रूढ़ियों से निरंतर जूझने वाले उनके संवेदनशील प्रखर व्यक्तित्व के स्वयं मुक्त अनुभवों का प्रतिफल है। ‘चरित्रहीन’ परम्परागत सामाजिक सदाचार की रूढ़ियों को चुनौती देनेवाला क्रांतिकारी उपन्यास था, जिसे किसी समय द्विजेन्द्र लाल राय जैसे प्रौढ़ लेखक ने भी छापने से इंकार कर दिया। शरतचन्द्र की अन्य कथाकृतियों में पंडित मोशाय, बैकुठेर विल, दीदी, दर्पचूर्ण, पल्ली समाज, श्रीकांत,अरजणीया,निविकृति,माललार फल, गृहदाह,पथेरदावी,दत्ता,देवदास, बाम्हन की लड़की और शेष प्रश्न उल्लेखनीय है। पाथेरदावी, उपन्यास बंगाल के क्रांतिकारी आंदोलन पर केन्द्रित था और इसे ब्रिटिश सरकार का कोपभाजन भी होना पड़ा था,यह उपन्यास इतना लोकप्रिय हुआ कि तीन हजार का संस्करण तीन माह में समाप्त हो गया, ब्रिटिश सरकार को इसे जप्त करना पड़ा।

शरतचंद्र के उपन्यासों के अनेक-पात्रों में संकेतों की छाप वर्तमान है। वे वस्तुतः उनके निजी जीवन तथा भोगे हुए यथार्थ का जीवंत चित्रण है।चरित्रहीन का सतीश,पल्ली समाज का रमेश, बड़ी दीदी का सुरेन्द्र,दत्ता का नरेन्द्र, गृहदाह का सुरेश और पाथेरदावी का क्रांतिकारी डाक्टर सबके सब सामान्य लोकाचार और सामाजिक मर्यादा की रूढ़ियों से सर्वथा स्वच्छंद युवा का जीवन व्यतीत करते हैं। शरतचन्द्र के कथा साहित्य की विशेष मौलिकता उनके नारी-जीवन चित्रण की मार्मिकता में है। नारी को परंपरागत रूढ़ियों से मुक्त रूप में चित्रित करके शरत् ने बंगला कथा साहित्य को एक नूतन दिशा प्रदान की। शरतचन्द्र के जीवनीकार विष्णु प्रभाकर ने ‘आवारा मसीहा’ कहकर उनके स्वच्छंद, संचरणशील व्यक्तित्व और शोषित वर्ग के प्रति उनकी तीव्र संवेदनशील प्रकृति की बड़ी सटीक अभिव्यंजना की है। महान रचनाकार का निधन 16 जनवरी 1938 को हुआ। (कुमार कृष्णन-विनायक फीचर्स) Sarat Chandra Chattopadhyay

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