Sunday, 5 May 2024

दुनिया का पहला मंगलसूत्र भगवान शिव ने पहनाया था पार्वती को

Mangalsutra : भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के एक बयान के कारण मंगलसूत्र अचानक चर्चा का विषय बन गया है। हर…

दुनिया का पहला मंगलसूत्र भगवान शिव ने पहनाया था पार्वती को

Mangalsutra : भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के एक बयान के कारण मंगलसूत्र अचानक चर्चा का विषय बन गया है। हर कोई मंगलसूत्र की बात कर रहा है। ऐसे में मंगलसूत्र का इतिहास भी खूब तलाश किया गया है। भारतीय सनातन परंपरा की बात करें तो सबसे पहला मंगलसूत्र भगवान शिव ने माता पार्वती को पहनाया था। हम आपको बताते हैं मंगलसूत्र का पूरा इतिहास तथा मंगलसूत्र की मान्यता के विषय में।

Mangalsutra

विवाह एक बड़ी परंपरा

मंगलसूत्र की बात करने से पहले विवाह की परंपरा को समझ लेते हैं। भारतीय सनातन परंपरा में जन्म से लेकर मृत्यु तक के बीच 16 संस्कारों का विधान है. इन 16 संस्कारों में विवाह संस्कार सबसे खास बना रहा है। यह दो परिवार के लिए उनका निजी उत्सव, उत्साह और समय के साथ-साथ संपन्नता को प्रदर्शित करने का भी एक जरिया रहा है। बल्कि राजाओं-महाराजाओं के युग में तो विवाह संस्कार कूटनीति का भी हिस्सा रहे हैं, इनके जरिए बिना किसी युद्ध और शक्ति प्रदर्शन के समाज को सांकेतिक भाषा में ही अपनी ताकत का अहसास करा दिया जाता था। इसलिए पौराणिक कथाओं में विवाहों के भी अलग-अलग प्रकार मिलेंगे. किसी ने स्वेच्छा से प्रेम विवाह किया तो उसे गंधर्व विवाह कहा गया, लड़के ने किसी लड़की को जबरन किडनैप करके उससे विवाह कर लिया तो उसे राक्षस विवाह कहा गया. माता-पिता ने वर का पूजन कर कन्यादान करते हुए उसका विवाह किया और वर-वधू दोनों को ही एक सूत्र में बांधा तो उसे प्रजापत्य विवाह कहा जाता है. आम तौर पर आजकल हम जिन हिंदू विवाहों में शामिल होते हैं, वे इसी तरह के प्रजापत्य विवाह के ही प्रकार हैं. इस विवाह में तीन बातें प्रमुख हैं. 1.कन्यादान, 2. फेरे और 3. सूत्र बंधन।

पिता या भाई द्वारा लड़की का कन्यादान किए जाने के बाद, होने वाले पति-पत्नी अग्नि के फेरे लेते हैं और इसके बाद कन्या को पत्नी के तौर पर स्वीकारने के तौर पर पति उसकी मांग में सिंदूर भरता है और मंगलसूत्र पहनाता है. पौराणिक कथाओं में मांग में सिंदूर भरने का जिक्र तो मिलता है, लेकिन विवाह के पहचान की तौर पर किसी खास आभूषण के पहनाने का जिक्र नहीं मिलता है. हालांकि विवाहित स्त्रियों के पास स्त्री धन के तौर पर केशों से लेकर पांव की अंगुलियों तक के लिए कई तरह के आभूषण होते हैं, जो उन्हें विवाह में ही मिलते हैं और सभी मंगल प्रतीकों से ही जुड़े होते हैं। इन्हें धन की देवी लक्ष्मी का रूप माना जाता है, और इस तरह के आभूषणों में खुद पार्वती देवी विराजमान होती हैं, इसलिए ये सभी आभूषण अपने आप ही सुहाग और पतिव्रता की निशानी बन जाते हैं।

ये जरूर है कि पुराण कथाओं में भी पतियों की ओर से पत्नियों को समय-समय पर आभूषण दिए गए, जो कि आज के दौर में उदाहरण बनते हुए सुहाग की निशानी बन गए हैं. जैसे श्रीराम ने सीता जी को मुंहदिखाई में चूड़ामणि दिया था. ये जूड़े के ऊपर मुकुट की तरह खोंसा जाने वाला एक आभूषण होता था, जो अब प्रचलित नहीं है. इसके अलावा उन्होंने सीता जी को अंगूठी भी पहनाई थी. अंगूठी भी आज भारतीय विवाह का एक प्रतीक आभूषण है, जिसे पति-पत्नी दोनों ही पहनते हैं।

महाभारत में वर्णन मिलता है कि पांचों पांडवों ने द्रौपदी से विवाह करते हुए उसे अलग-अलग आभूषण दिए थे. जिनमें कर्ण फूल, कंठहार, कड़े, मणिबंध (कमर में बांधने वाली लड़ी) और मुंदरी (अंगूठी) शामिल थी. इसी तरह जब श्रीकृष्ण ने जब रुक्मिणी से विवाह किया था, तो उन्हें वनफूल की माला पहनाकर स्वीकार किया था।

उत्तर प्रदेश और बिहार की विवाह परंपरा में जब किसी लड़की की शादी होने वाली होती है, तो वह उससे कुछ दिन पहले गौरी व्रत करके, गौरी पूजन करती है। मां गौरी, देवी पार्वती का ही अपर्णा स्वरूप हैं। कहानी के अनुसार, जब पार्वती ने हिमालय के घर जन्म लिया तो वह शिवजी से विवाह करने की इच्छा लेकर उनकी तपस्या करने चली गईं। कठोर तप के कारण उन्होंने अन्न-जल भी त्याग दिया और अपर्णा कहलाईं. इस कठोर तप से शिवजी प्रसन्न हुए। सबसे पहले उन्होंने देवी को अनुपम सौंदर्य दिया, जिसके कारण वह गौरी कहलाईं, फिर उन्होंने इच्छित पति का वरदान दिया। लड़कियां गौरी मां का ये व्रत इसलिए करती हैं ताकि उन्हें भी शिवजी की तरह योग्य वर मिले और माता पार्वती की तरह वह भी उसमें निष्ठा रख सकें। इस व्रत की विधि में देवी पार्वती को लाल जोड़ा, चूड़ियां और हल्दी-कुमकुम और केसर से रंगा धागा अर्पित किया जाता है, जिसे प्रसाद के तौर महिलाएं पहनती हैं. लाल जोड़ा सौभाग्य लाता है, चूड़ियां सुहाग की निशानी होती हैं और हल्दी-कुमकुम का धागा पवित्र रिश्ते और उसकी अखंडता की निशानी होता है, जिसकी मान्यता मंगलसूत्र से ही मिलती-जुलती है. सीताजी ने भी गौरी मां का व्रत किया था और प्रसाद के तौर पर मां ने उन्हें अपनी ही माला उतारकर दे दी थी. संत तुलसीदास ने मानस में इसका जिक्र किया है।

दक्षिण भारत से आया मंगलसूत्र

मंगलसूत्र शब्द का जिक्र दक्षिण भारत में बहुत प्रमुखता से मिलता है। वहां विवाह को मंगलकल्याणम कहते हैं. यानी मांगलिक और कल्याणकारी कार्य। दक्षिण भारत की तमिल-तेलुगू संस्कृति में विवाह सबसे मंगलकारी और कल्याणकारी संस्कार है। यह संसार में प्रेम को स्थापित करता है और इसके साथ ही नए संसार के निर्माण की नींव भी बनता है। इसलिए यहां के विवाह में बहुत से ऐसे प्रतीकों का इस्तेमाल होता है, जिनके जरिए वर-वधू को विवाह की पवित्रता और उसका महत्व याद दिलाया जाता है, ताकि वे इसे सिर्फ शारीरिक जरूरत का जरिया न समझें।  तमिल विवाह परंपरा में सप्तपदी से पहले कन्या के हाथों में एक पीला धागा बांधा जाता है। ये पीला धागा उसके जीवन में आने वाले बदलावों का प्रतीक होता है, लेकिन जब हम तेलुगू की पारंपरिक विवाह व्यवस्था को देखते हैं तो हमें वहां, मंगलसूत्र की एक पूरी परंपरा मिलती है। इसमें सात डोरों के एक समूह को एक साथ मिलाकर हल्दी में डुबोकर रखा जाता है, फिर इसमें सोने की दो लटकन (पेंडेंट) जोड़ी जाती है. अब इससे बनी माला को शादी के समय सप्तपदी से पहले पति, अपनी पत्नी को गले में तीन गांठें बांधकर पहनाता है। ये तीन गांठें पहले तो यह तय करती हैं कि मंगलसूत्र ठीक से बंधा है और गिरेगा नहीं, और इन तीन गांठों को प्रेम, विश्वास और समर्पण की गांठें कहा जाता है। कहते हैं कि पति, पत्नी को इन तीनों का वचन देता है और पत्नी इन वचनों को याद रखते हुए खुद भी इनके पालन का वचन देती है।

भगवान शिव ने पहनाया पहला मंगलसूत्र

लोककथा है कि शिव ने जब पार्वती से विवाह किया तो उन्हें उनके पूर्व जन्म की याद आ गई। तब शिव को दुख हुआ कि काश सती अपने पिता के दक्ष यज्ञ में न जातीं तो उन्हें भस्म नहीं होना पड़ता और दूसरा कि अगर वहां मैं साथ होता तो शायद ये अनिष्ट नहीं होता, तब शिव ने हल्दी-चंदन के धागे में खुद की शक्ति बांधकर पार्वतीजी के गले में पहनाईं थीं और इस तरह तेलुगू विवाह परंपरा में इसका स्थान बहुत महत्वपूर्ण हो गया।

वैदिक परंपराओं का विकास भले ही उत्तर भारत में हुआ, लेकिन उनका जन्म दक्षिण भारत में ही माना जाता है. हमारी उत्तर भारतीय विवाह परंपरा की वैदिक रीतियां, मंत्र-ऋचाएं सभी प्राचीन तेलुगू परंपरा से ही निकली हैं, बस लोकाचार में स्थान के आधार पर इनके स्वरूप में थोड़ा बहुत बदलाव है, नहीं तो सभी तौर-तरीके एक जैसे ही हैं. इसलिए उत्तर भारत में भी मंगलसूत्र भले ही काले दाने और सोने की माला से बना दिखता है, लेकिन उसके पहनने-पहनाने का तरीका एक ही जैसा है। समय के साथ नजर न लगना, बुरी शक्तियों को दूल्हा-दुल्हन से दूर रखना और किसी ऊपरी बाधा आदि से बचाव ने ऐसा प्रभाव डाला कि मंगलसूत्र ने अपना रंग ही बदल लिया।

उसके मूल में ही वही पीली डोरी शामिल है, लेकिन अब वह शुद्ध सोने की है, सोना पवित्र धातु है, वह लक्ष्मी का प्रतीक है, आरोग्य का वरदान है, इसके साथ ही काले दाने नकारात्मक शक्तियों को दूर करने वाले हैं और शिव स्वरूप हैं, लिहाजा मंगलसूत्र की भारतीय विवाह परंपरा में बड़ी मान्यता है।

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